५९४ ३४०
पूर्वोक्त रीति से साधनात्मिका भक्ति का वर्णन हुआ। उक्त भक्ति में सिद्धि क्रम भी श्रीसूत के उपदेशारम्भ में भा० १ २ १६ में “शुश्रूषोः श्रद्दधानस्य" प्रदर्शित हुजा है । अर्थात् पवित्र तीर्थ निषेवन से साधुसङ्ग की सम्भावना होती है, स घुमङ्ग से श्रीहरिकथा श्रवण में रुचि होती है, अनन्तर श्रीहरिकथा में विशेष श्रद्धा का उदय होता है । इत्यादि रूप में श्रीभगवत् प्रेम प्राप्ति का क्रम का प्रदर्शन हुआ है। एवं उक्त क्रम का दृष्टान्त - देवर्षि नारद का कथोपकथन प्रसङ्ग में सुस्पष्ट रूप से है । श्रीकृष्ण द्वैपायन को देवर्षि नारद कहे थे, – “मैं पहले दासी पुत्र था" इत्यादि क्रम से दर्शाया गया है । भा० ३।२५।२५ में श्रीकपिल देव का वाक्य “सतां प्रसङ्गान्ममवोर्थ्य सम्बिदः” भी प्रस्तुत विषय का उदाहरण है । इस में साधन भक्ति से आरम्भ कर भाव एव प्रेम भक्ति का दृष्टान्त उपस्थित किया गया है। उस साधन भक्ति के मध्य में भी कैवल्यकामा भक्ति में “भक्तचा पुमान् जात विराज ऐन्द्रियात्” (भा० ३।२५।२६) दृष्टान्त है । अर्थात् भक्ति साधन करते करते ऐन्द्रियक सुख भोग में वितृष्णा होती है । अनन्तर क्रमशः मुक्तिपथ में साधक अग्रसर होता है । इत्यादि क्रम का वर्णन है । शुद्ध भक्ति में भा० ३।२५।३४) “नैकात्मतां में स्पृहयन्ति केचित् “क्रमर्वाणित है । अर्थात् मुति पर्यन्त समस्त विषयों की कामना परित्याग पूर्वक श्रीभगवान् में दास्य सख्यादि किसी एक भाव लाभ होता है । इत्यादि क्रम का वर्णन हुआ है । उस शुद्धा भक्ति में हो श्रीप्रह्लाद कृत दैत्य बालक वृन्द के प्रति उपदेश प्रसङ्ग में कथित है - भा० ७७१३० " गुरु– शुश्रूषया भक्तद्या” अर्थात् श्रीगुरु शुश्रूषा भक्ति के द्वारा श्रीभगवान् में सर्व लाभार्पण द्वारा अर्थात् जहाँ जो कुछ भगवदर्पण योग्य द्रव्य उपलब्ध होगा, वह श्रीभगवान् को समर्पण करे । इस प्रकार साधुभक्त के सङ्ग के द्वारा एवं ईश्वर आराधना के द्वारा श्रीभगवान् में भाव भक्ति लाभ होती है । इत्यादि क्रम प्रदर्शित हुआ है। इस क्रम का वर्णन सदृष्टान्त भा० १११२१४२–४३ में हुआ है ।
(३४०) “भक्तिः परेश,नुभवो विरक्ति, रन्यत्र चैष त्रिक एककाल
प्रपद्यमानस्य यथाश्नतः स्यु,–स्तुष्टिः पुष्टिः क्षुदपायोऽनुघासम् ॥१०७३॥ इत्यच्युतां भजतोऽनुवृत्तया, भक्तिविरतभंगवत् प्रबोधः
की
भवन्ति वै भागवतस्य राजंस्ततः परां शान्तिमुपैति साक्षात् ॥ १०७४॥
श्लोक द्वय की श्रीधरस्वामिपाद कृत व्याख्या इस प्रकार हैं- एकान्त शरणागत होकर श्रीहरिभजन कारी मानव की श्रीहरि में प्रेम लक्षणा भक्ति, प्रेमास्पद भगवत् रूप की - स्फूर्ति, (अर्थात् परेशानुभव)
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(जय
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टीका च - " प्रपद्यमानस्य हरि भजतः पुंसो भक्तिः प्रेमलक्षणा, परेशः नुभवः प्रेमः स्पद भगवद्र प-स्फूत्तिस्तया निर्वृतस्य ततोऽन्यत्र गृहादिषु विरक्तिरित्येष विक एककालो भजन- समकाल एव स्यात् यथाश्नतो भुञ्जानस्य तुष्टिः सुखं पुष्टिरुदरभरणं क्षुनिवृत्तिश्च प्रतिग्रासं स्युः । उपलक्षणमेतत् । प्रतिसिक्थमपि यथा स्युस्तद्वत् । एवमेवैकस्मिन् भजने किशिमादि त्रिके जायमाने अनुवृत्त्या भजतः परमप्रेमादि जायते । महुग्रासभोजिन इव परम्तुष्ट्यादि, ततश्च भगवत् प्रसादेन कृतार्थो भवतीत्याह - इत्यच्युताङ्घ्रिमिति” इत्येषा । शान्तिं कृतार्थत्वम्,
परमपुरुषार्थत्वादव्यवधानेनं साक्षादन्तर्व हिश्च प्रकटित परमपुरुषार्थ त्वादव्यवधानेनं वेत्यर्थः । पूर्व्वपद्य े भक्तयादीनां तुष्ट्यादयः क्रमेनैव दृष्टान्ता ज्ञ ेयाः, - उत्तरत्राप्येतत्क्रमेणैव भक्ति-तुष्टयोः सुखैकरूपत्वात्, पुष्ट्यनुभवयोरात्मभरणैकरूपत्वात्, क्षुपायविरक्तयोः शान्तये करूपत्वात् । यद्यपि भुत्तवतो- ऽन्नेऽपि वैतृष्ण्यं जायते, भगवदनुभविनस्तु विषयान्तर एवेति वैधम्मंघम, तथापि वस्त्वत्तर- वैतृष्ण्यांश एव दृष्टान्तो गम्य इति । श्रीकविनिमिम् ॥
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तदेतद्वयाख्यातमभिधेयम् । अत्रान्योऽपि विशेषः शास्त्र महाजन दृष्टयानुसन्धेयः ।
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एवं तज्जन्य परमानन्द आल्पुतान्तः करण होने के कारण, भगवद् भिन्न अन्यत्र गृहादि में विरक्ति–यह तीन एककाल में अर्थात् भजन समकाल में ही होती हैं । जिस प्रकार भोजन में प्रवृत्त व्यक्ति की तृष्टि अर्थात् सुख, पुष्टि, अर्थात् उदरभरण, एवं क्षुधानिवृत्ति यह तीन प्रांत ग्रास में होती हैं, । यह उपलक्षण है । अर्थात् भजन के अन्यान्य अङ्ग समूह भी कमशः प्रकाशित होते हैं । प्रत्येक अन्नकणा से ही जिस प्रकार तुष्टि पुष्टि होती हैं, भजन के सम्बन्ध में भी उस प्रकार जानना होगा । इस प्रकार एक अङ्ग भजन करने से किञ्चित् प्रेम, भगवदनुभाव एवं विषय वैराग्य यदि यह तीन उत्पन्न होते हैं, तो जो व्यक्ति अनुकूल वृत्ति अवलम्बन से श्रीकृष्ण भजन करते रहते हैं, उन में परम प्रेमादि भी आविर्भूत होते हैं । जो व्यक्ति बहु ग्रास भोजन करते हैं, जिस प्रकार उनकी परम तुष्टि, परम पुष्टि, एवं परम क्षुधा निवृत्ति होती हैं, भक्ति सम्बन्ध में भी उस प्रकार जानना चाहिये । अनन्तर साधक भगवत् कृपा से कृतार्थ होता है - इस का कथन" इत्यच्युताङ्घ्रि” इत्यादि श्लोक में हुआ है। यहाँ तक श्रीधरस्वामिपादकृत टीका का वर्णन है । श्लोकार्थ इस प्रकार है - श्रीकृष्ण सुखानुकूल वृत्ति अवलम्बन से श्रीकृष्ण भजन कारी भागवत का श्रीभगवान् में प्रेम, भगवदनुभव, एवं विषय वैराग्य होता है. अनन्तर श्रीभगवत् कृपा से पराशान्ति अर्थात् वह कृतार्थ होता है। उस कृतार्थता भी साक्षात् अर्थात् अव्यवधान से होती है । कारण, भगवद् भक्त के अन्तर एवं बाहर में परम पुरुषार्थ वस्तु भगवत् प्रेम, एवं भगवदनुभव का प्रकाश होता है। पूर्व पद्य में अर्थात् “भक्तिः परेशानुभवः” इस श्लोक में प्रेम, भगवदनुभव, एवं विषय वैराग्य के सहित तुष्टि, पुष्टि, एव उदरभरण का दृष्टान्त यथा क्रम से उत्थापित हुआ है । उस के मध्य में प्रेम भी सन्तुष्टि के सुखांश में एक रूपता है, एवं क्षुधानिवृत्ति भी विरक्ति, शान्ति अर्थात् निवृत्ति अंशमें एकरूपता है । यद्यपि भोजन कारी की अन्न में भी वितृष्णा होती है, किन्तु भगवदनुभवी का विषयान्तर में वैराग्योदय होता हैं। यह वं धम्म्यं है । तथापि अन्य वस्तु में वितृष्णा होती है - इस अंश में दृष्टान्त है, यह जानना होगा ।
श्रीकवियोगीन्द्र निमिमहाराज को कहे थे ॥ ३४० ॥
श्रीमद् भागवतोक्त अभिधेय तस्वका विश्लेषण उक्त रीति से हुआ । इस अभिधेय के प्रसङ्ग में अपर जो
श्री भक्तिसन्दर्भः
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गुरुः शास्त्रं श्रद्धा रुचिरनुगतिः सिद्धिरिति मे यदेतत्तत् सर्व्वं चरणकमलं राजति ययोः । कृपापूरस्यन्द स्नपित-नयनाम्भोजयुगलौ
सदा राधाकृष्णा वशरणगती तौ मम गतिः ॥१०७५॥
इति कलियुगपावन- स्वभजन- विभजनप्रयोजनावतार श्रीश्रीभगवत्कृष्ण चैतन्य देव- चरणानुचर-विश्ववैष्णव राजसभा सभाजन-भाजन - श्रीरूप सनातनानुशासन-
भारतीगर्भे ष्ट्सन्दर्भात्मके श्रीश्रीभागवतसन्दर्भे श्रीश्रीभक्तिसन्दर्भो
नाम पञ्चमः सन्दर्भः ॥५॥
श्रीभागवत सन्दर्भे सर्व्वसन्दर्भगर्भगे ।
पञ्चमो भक्तिसन्दर्भः समाहिमिह सङ्गतः ॥ समाप्तोऽयं श्रीश्रीभति सन्दर्भः ॥
मूलम् - ३४०, लेख्याः ४६२६ श्लोकाः
कुछ जानना आवश्यक है । उस को शस्त्र एवं महाजन गण के आचरण के द्वारा जानना आवश्यक है ।
“गुरुः शास्त्रं श्रद्धा रुचिरनुगतिः सिद्धिरिति मे यदेतत्तत् सब्वौं चरणकमलं राजति ययोः । कृपापूरस्यन्द स्नपित- नयनाम्भोजयुगलौ
सदा राधाकृष्णावशरणगतो तौ मम गतिः ॥१०७५॥
श्रीगुरु शास्त्र, श्रद्धा, रुचि, शरणागति एवं सिद्धि-मेरा यह सब जिनके श्रीचरणकमल हैं, अर्थात् जिन के चरण कमल ही मेरा सर्व साधन एवं सर्व सिद्धि स्वरूप में विराजमान हैं निज श्रीचरणाश्रित के प्रति अपार करुणा प्रवाह धारा से जिन के नवनाम्भोज युगल सर्वदा स्नापित हैं, उन अशरण गति श्रीराधाकृष्ण ही मेरा सर्वदा समाश्रय हैं ।
इति कलियुग पावन स्व भजन विभजन प्रयोजनावतार श्रीश्रीभगवत् कृष्णचैतन्यदेव चरणानुचर विश्व व ेष्णव राज सभा सभाजन भाजन श्रीरूप सनातनानुशासन भारता गर्भ में श्रीभागवत सन्दर्भ में भक्ति सन्दर्भ नामक यह पञ्चम सन्दर्भ हैं।
श्रीभागवत स दर्भे सर्व सन्दर्भ गर्भ में पञ्चमो भक्ति सन्दर्भः समाप्तिमिह सङ्गतः । तत्व भगवत प्रभृति षट् सन्दर्भ जिस के अन्तर्भुक्त है । उस श्रीभागवत सन्दर्भ के मध्य में यह भक्ति सन्दर्भ नामक पश्चम सन्दर्भ सम्पूर्ण हुआ !
“शास्त्रीति ख्यात तत्त्वेन हरिदासेन धीमता श्रीगान्धर्वा प्रसादेन ग्रन्थोऽयं प्रमुदे कृतः । वृषस्थे भास्करे रम्ये वृन्दारण्ये शुभास्पदे ह्याकाश ग्रहेचन्द्रे ग्रन्थोऽयं पूर्णतां गतः ॥
श्रीगुर्वार्पणमस्तु ॥
- श्रीश्री गौराङ्ग महाप्रभु