५८९ ३३८
अनेन तत्रापि गोकुललीलात्मकस्य श्रीकृष्णस्य भजनमाहात्म्यातिशयो दर्शितः, तथा (भा० १०१६।३५) - " पूतना लोकबालघ्नी" इत्यादौ च ज्ञेयम् । तथा श्रीकृष्णसन्दर्भे च (भा० १०/७११) “येन येनात्रतारण” इत्यादिकं विवृतमस्ति । अथ गोकुलेऽपि श्रीमद्वजबधू- सहित- रासादिलीलात्मकस्य परमवैशिष्ट्य माह, (भा० ११।३३।३६) -
(३३८) विक्रीड़ितं व्रजबधूभिरिदश्च विष्णोः
श्रद्धान्वितोऽनुशृणुयादथ वर्णयेद् यः ।
भक्त परां भगवति प्रतिलभ्य काम
हृद्रोगमाश्वपहिनोत्य चिरेण धीरः ॥ १०७१॥
।
चकारादन्यच्च, अथेति वाथ, - शृणुयाद्वा वर्णयेद्वा, उपलक्षणञ्चतद्ध्यानादेः । परां यतः
अहो असत् स्वभाव सम्पन्ना राक्षसी पूतना ने श्रीकृष्ण के प्रति जिघांसा बुद्धि से कालकूटलिप्त स्तन पान करा कर भी धात्री वृन्द प्राप्य स्थान लाभ किया । अतएव जिन प्रभु की इतनी दया है, उन दयालु प्रभु श्रीकृष्ण को छोड़कर अन्य किस की शरण ग्रहण करें ?
टीका - एवमनु वृत्ति कृपयैवेति सूचयन् अपकारिष्वपि तस्य कृपालुतां दर्शयन्नाह । अहो आश्चय्यं दयालु तायाः । हन्तुमिच्छयापि स्तनयोः सम्भृतं, कालकूटं विषं समपाययत् । वकी, पूतना, आसाध्वी, दुष्टापि धात्र्या यशोधाया उचितां गति लेभे । भक्तवेश मात्रेण यः सद्गत दत्तवानित्यर्थः । ततोऽन्यं कं वा भजेम ॥
वह श्रीमदुद्धव ही कहे थे ॥३३७ ॥
५९० ३३८
श्रीमद् भागवत के “अहोव की यं” श्लोक द्वारा श्रीकृष्ण स्वरूप के मध्य में भी श्रीगोकुल लीलामय श्रीकृष्ण का भजन माहात्म्य ही अतिशय रूप से प्रदर्शित हुआ है । जिस प्रकार ‘अही वकी यं’ श्लोक के द्वारा व्रज विलासी श्रीकृष्ण का अतिशय कारुण्य प्रदर्शित हुआ है, उस प्रकार ही ‘पूतना लोक बालघ्नी राक्षसी रुधिराशना” भा० १०।६।३५ के श्लोक के द्वारा श्रीकृष्ण का भजन माहात्म्य प्रदर्शित हुआ । अर्थात् पूतना लोक बालघ्नी रुधिराशना राक्षसी होकर भी जिघांसा बुद्धि से श्रीकृष्ण को विष लिप्त स्तन दान करके भी धात्री जनोचित गति लाभ की अधिकारिणी हुई थी। इस श्लोक के द्वारा श्रीकृष्ण भजन का आधिक्य प्रदर्शित हुआ है । उसी प्रकार श्रीकृष्ण सन्दर्भ में ’ भा० १०।७१ । “येन येनावतारेश” श्लोक के द्वारा श्रीव्रज लीलात्मक श्रीकृष्ण का अतिशय माधुर्य्य विस्तार पूर्वक वर्णित है । गोकुल में भी श्रीमती व्रज बधू वृन्द के सहित रासादि लीला कारी श्रीकृष्ण का परम वैशिट्य भा० १०।३३।६६ में सुस्पष्ट रूप से वर्णित है
(३३८) “विक्रीडितं व्रजबधुभिरिदश्च विष्णोः
श्रद्धान्वितोऽनुशृणुयादथ वर्णयेद्यः
भक्त परां भगवति प्रतिलभ्य कामं
।
(38)
हृद्रोगमाइव पहिनोत्यचिरेण धीरः ॥ १०७१ ॥
व्रज बधू वृन्द के सहित श्रीविष्णु को यह विचित्र क्रीड़ा, एवं उन क े सहित अन्यान्य जो सब लोला है, जो व्यक्ति उस का श्रवण श्रद्धा पूर्वक करता है । अर्थात् यह लीला प्राकृत काम मयी नहीं है । किन्तु
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परा नाम्या कुत्रचिद्विद्यते, तादृशीम्, हृद्रोगं कामादिकमपि शीघ्रमेव त्यजति । अत्र सामान्यतो- ऽपि परमात्व-सिद्धे तत्त्रापि परमप्रेष्ठ- श्रीराधा- संवलित लीलामय-तद्भजनन्तु परमतमेवेति स्वतः सिध्यति । किन्तु रहस्यलीला तु पौरुषविकारवदिन्द्रियैः पितृ-पुत्र- दास- भावैश्च नोपास्था, - स्वीयभावविरोधात् । रहस्यत्वञ्च तस्याः क्वचिदपांशेन क्वचित्तु शथ्वीशेने ति ज्ञेयम् ॥ श्रीशुकः ॥
५९१ ३३८
तत्र ते भक्तिमार्गा दर्शिताः । अत्र च श्रीगुरोः श्रीभगवतो वा प्रसादलब्धं साधन- साध्य गतं स्वीयसर्व्वस्वभूतं यत्किमपि रहस्यम्, तत्तु न कस्मैचित् प्रकाशनीयम्, यथाह साध्य-गतं
(भा० ८।१७/२०)
(३३६) “नैतत् परस्मा अख्येयं पृष्टयापि कथञ्चन ।
सर्वं सम्पद्यते देवि देवगुह्य ं सुसंवृतम् ॥ १०७२ ।
सम्पद्यते फलदं भवति । श्रीविष्णुरविति ।
५९२ ३४०
तदेवं साधनात्मिका भक्तिर्दशिता । तत्र सिद्धिक्रमश्च श्रीसूतोपदेशारम्भे
काम गन्ध शून्य विशुद्ध प्रेममयी है । इस प्रकार दृढ़ विश्वास के सहित जो व्यक्ति श्रवण करता है । श्लोकोक्त - “श्रृणुयावथ” यहाँ अथ शब्द का प्रयोग ‘दा’ अर्थ में हुआ है । अर्थात् श्रवण करता है, अथवा वर्णन करता है । उपलक्षण में ध्यानादि करता है, वह व्यक्ति, श्रीभगवच्चरणारविन्द में पराभक्ति लाभ करता है । अर्थात् जिस से अपर कोई श्रेष्ठ भक्ति नहीं हैं, उस प्रकार भक्ति प्राप्त करता है, तदनन्तर स्वयं ही हृद
रोग काम वासन को आशु परित्याग करता है । यहाँपर यद्यपि व्रजाङ्गनावृन्द के सहित सामान्य रूप से श्रीकृष्ण विहार का श्रेष्ठत्व प्रदर्शित हुआ है, तथापि तन्मध्य में भी अर्थात् व्रजाङ्गना वृन्द के सहित श्रीकृष्ण लीला के मध्य में भी परम प्रियतमा श्रीराधा सम्बलिता लीला का सर्व श्रेष्ठ तमत्व - स्वतः सिद्ध है । किन्तु जिस की इन्द्रिय- पौरुष विकार युक्त है, उस के पक्ष में एवं पितृ भाव, पुत्रभाव, दास्य भाव दास्य भाव विशिष्ट भक्त वृन्द के पक्ष में रहस्य लीला उपास्या नहीं है । कारण, निज भाव विरोधी है । इस लीला का रहस्यत्व कभी अल्पांश में कभी सश में है । अर्थात् आलिङ्गन चुम्बन प्रभृति का वर्णन जहाँ है वहाँ रहस्यत्व अल्पांश में है, एवं सम्प्रयोगादि लीला में रहस्यत्व सर्वांश में विद्यमान है । यह जानना होगा ।
प्रवक्ता श्रीशुक हैं-॥३३८ ॥
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