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तस्य सर्व्वावतारावतारिष्वप्रकटितं परमशुभ-स्वभावत्वं च स्मृत्याह, (भा० ३।२।२७)

(३३७) “अहो वकी यं स्तन कालकूटं

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जिघांसयापाययदप्यसाध्वी ।

लेभे गति धात्र्युचितां ततोऽन्यं

कं वा दयालु शरणं व्रजेम ॥ १०७० ॥

यथा त्वच्चरणाम्भोजे रतिः स्य दनपायिनी ॥ " १०६८ ॥

हे प्रभो ! यद्यपि तुमने मेरा बहोत उपकार किया है, तथापि मेरी यही शेष प्रार्थना है । तुम्हारे चरणों में मेरा सतत प्रणाम हो । हे महायोगिन् ! तुम्हारे चरणों में एकान्त शरणागत मुझ को उसी प्रकार शिक्षा दान करो, जिस से मुक्ति अवस्था में भी तुम्हारे चरण नलिन युगल में मेरी अनपायिनी अर्थात् अविचला रति विद्यमान रहे ।

श्रीमानुद्धव कहे थे - ॥३३५॥

क ३३६ । अतएव अन्यस्थान में भी - अर्थात् अन्य अधिकारी के प्रति भी श्रीकृष्ण स्वरूप का ध्यान करने का अभिप्राय को भा० ११।१४।३१ में व्यक्त किया है ।

(३३६) “यथा त्वामरविन्दाक्ष यादृशं वा यदात्मकम् ।

॥ ध्यायेन्मुमुक्षुरेतन्मे ध्यानं मे वक्तुमर्हसि ॥ १०६६॥

(app)

हे अरविन्दाक्ष ! मुमुक्षु व्यक्ति, तुम्हारा ध्यान किस प्रकार करेगा, उसका वर्णन करो । यद्यपि तुम्हारे चरणारविन्द युगल का दास्य ही मेरा एक मात्र पुरुषार्थ है । तादृश, अर्थात् मोक्ष सम्पादक ध्यान से मेरा कोई प्रयोजन नहीं है । तथापि जिज्ञासु व्यक्ति के कल्याणार्थ मैंने इस प्रकार जिज्ञासा की है। श्रीउद्धव ने तो भा० ११।६।४६ में ‘स्वयोपभुक्तस्रग्गन्ध” इत्यादि के द्वारा श्रीकृष्ण दास्य हो जो निज परम पुरुषार्थ है उस को कहा है।

श्रीमान् उद्धव कहे थे ॥३३६॥

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श्रीकृष्ण के सर्व अवतार एवं सर्व अवतारी में जिस परम शुद्ध स्वभाव का प्रकाश नहीं हुआ है, उस स्वभाव का स्मरण करके श्रीउद्धव कहे थे - ( भा० ३०२ २३)

(३३७) “अहो बकी यं स्तन कालकूटं जिघांसयापाययदप्यसाध्वी ।

लेभे गति धात्र्युचितां ततोऽन्यं कं वा दयालु शरणं व्रजेम ॥ १०७० ॥

श्रीभक्तिसदर्भः

धात्र्या या उचिता गतिस्तामेव ॥ स (श्रीमदुद्धवः) एव ॥

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