३३४

५८४ ३३५

पुनरेवमेव श्रीमानुद्धवोऽपि प्रार्थितवान् (भा० ११।२०।४० ) -

(३३५) “नमोऽस्तु ते महायोगिन् प्रपन्नमनुशाधि माम् ।

DEE

यथा त्वच्चरणाम्भोजे रतिः स्यादनपायिनी ॥ " १०६८ ॥

भी बाधा उपस्थित नहीं करता है । इस को समझाने के निमित्त कैमुत्य नीति के अवलम्बन से श्रीकृष्ण स्वरूप निज असाधारण भजनीयता व्यञ्जक दृष्टान्त उपस्थित करते हैं- “भयादेरिव सत्तम” जिस प्रकार कंसादि के सहित मेरा सामान्य सम्बन्ध था, तज्जन्य भयादि का आयास भी निरर्थ (व्यर्थ नहीं हुआ । कारण, मेरे सम्बन्ध में भय से भी मोक्ष लाभ होता है । ऐसा होने पर जो लोक सत्तम हैं, अर्थात् शुद्ध भक्त हैं, उनकी मेरे विषयक किसी चेष्टा जो विफल नहीं होती हैं, इस विषय में अधिक कहना निष्प्रयोजन है ॥ ३३३ ॥

५८५ ३३४

अनन्तर श्रीमान् उद्धव के समान जो लोक श्रीकृष्ण के एकान्त अनुगत हैं, उन के साधन एवं साध्य- एतदुभयविध अवस्था में ही स्वयं श्रीकृष्ण रूप ही जो परमोपादेय है-उसका वर्णन भा० ११।२६। ३३ में करते हैं-

(३३४) “ज्ञाने कर्मणि योगे च वार्त्तायां दण्ड धारणे ।

(Pre) यावानर्थो नृणां तात तावांस्तेऽहं चतुविधः ॥ १०६६॥

श्रीकृष्ण कहे थे - हे उद्धव ! ज्ञान, कर्मयोग, वार्त्ता एवं दण्ड धारण के मानव वृन्द के धर्मादि लक्षण जो चतुविध फल हैं, तुम्हारे सम्बन्ध में तत् समुदय भी मैं ही हूँ। उस के मध्य में ज्ञान का फल मोक्ष, निष्काम कर्म का फल धर्म, सकाम कर्म का फल काम, अर्थात् विषय भोग, योग के विविध प्रकार सिद्धि लक्षण लौकिक फल है, वार्ता-अर्थात् जीविका एवं दण्ड धारण के विविध लौकिक फल है । इस प्रकार चतुविध फल का प्रदर्शन हुआ । श्लोक का तात्पर्य यह है कि - हे उद्धव ! में ही तुम्हारा धर्म हूँ । मैं ही तुम्हारा मोक्ष हूँ, में ही तुम्हारी सिद्धि हूँ एवं मैं ही तुम्हारे विविध लौकिक फल स्वरूप हूँ

श्रीभगवान् कहे थे ॥३३४॥ ३३५ । पुनर्वार श्रीमान् उद्धव ने भी उसी प्रकार प्रार्थना की- भा० १११२६/४०

(३३५) “नमोऽस्तु तु महायोगिन् प्रपन्नमनुशाधि माम् ।

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टीका च - " एवं यद्यपि त्वया बहूकृतम्, तथाप्येतावत् प्रार्थय इत्याह- नमोऽस्त्वति । अनुशाधि अनुशिक्षय, अनुशासनीयत्वमेवाह - यथेति । मुक्तावप्यनपायिनी " इत्येषा ॥ श्रीमानुद्धवः ॥