५८१ ३३३
अथ तामेव कंमुत्येनाप्याह, (भा० १११२६२१)-
(३३३) “यो यो मधि परे धर्मः कल्प्यते निष्फलाय चेत् ।
तत्त्रायासोऽनिरर्थः स्याद्भयादेरिव सत्तम ॥” १०६६ ॥
मयि मर्दापितत्वेन कृतो यो यो धम्र्मो वेदविहितः स स यदि निष्फलाय फलाभावाय कल्प्यते, फलकामनया नार्च्छत इत्यर्थः, तदा तत्र तत्रायास, श्रान्तिरनिरर्थः स्यात्, व्यर्थो न भवति । निष्फलायेति विशेषणं फलभोगादिरूप - तद्भक्तचन्तरायाभावेनानिरर्थतातिशयतात्- पर्थ्यम् । तत्नानिरर्थत्वे कैमुत्येन श्रीकृष्णलक्षणस्य स्वस्यासाधारणभजनीयताव्यञ्जको दृष्टान्तः प्रकट किया है । अर्थात् वे मानते हैं - यह देह प्राकृत नराकार है । वस्तुतः मेरी श्रीमूत्ति, विशुद्ध सत्त्वमयी स्व प्रकाशा एवं सच्चिदानन्दस्वरूपा है। किन्तु भक्त वृन्द के सङ्कल्प के कारण, नित्य ही प्रकटित मनुष्याकार है । मूर्ख लोक- इस परम तत्त्व को नहीं जानते हैं, तज्जन्य ही अवज्ञा करते हैं । “मोघ शा मोघ कर्माणो” इत्यादि श्लोकों की व्याख्या करते हैं, वे जो मुझ को अनादर करते हैं—उसका और एक कारण है - वे मानते हैं कि मुझ को छोड़ कर अपर देवतावृन्द सत्वर फल प्रदान करते हैं। इस प्रकार व्यर्थ आशा पोषण करते हैं । अतएव मुझ में विमुख होने के कारण हो निष्फल कर्मानुष्ठान में वे रत होते हैं, उसका शास्त्र ज्ञान भी विविध कुतर्काश्रित होने के कारण, वे विक्षिप्त चित्त होते हैं। यह सब दुष्प्रवृत्ति के प्रति कारण हैं- हिंसादि बहुल राक्षसी अर्थात् तामसी, एवं काम कर्म्म बहुल आसुरी अर्थात् राजसी बुद्धि भ्रंशकारी, प्रकृति होती है, अतः मुझ को अवज्ञा करते रहते हैं। कौन व्यक्ति श्रीकृष्ण की आराधना करते हैं-सम्प्रति उसका विवरण कहते हैं -
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“महात्मानस्तु मां पार्थ देवीं प्रकृति माश्रिताः ॥ भजन्त्यनन्य मनसो ज्ञात्वा भूतादि मव्ययम् ॥”
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जो लोक, महात्मा हैं, अर्थात् कामादि से अनभिभूत चित्त हैं । वे देव स्वभाव को प्राप्त कर अन्य सङ्कल्प शून्य होकर जगत् कारण, नित्य स्वरूप मेरा भजन करते हैं । अतएव सर्वान्तर्य्यामि भजन से भी उत्तम होने के कारण, तत् परवत्ति अध्याय में ‘अष्टादशाध्याय में’ ‘सर्व गुह्य तमम् भूयः " उक्त श्लोक में सर्वपद का उल्लेख हेतु श्रीकृष्ण भजन की सर्वोत्तमता निद्दिष्ट होने के कारण, श्रीकृष्ण के अन्य अवतार का भजन से सर्वावतारी श्रीकृष्ण भजन का सर्वोत्तमत्व सुतरां सिद्ध हुआ ॥३३२॥
५८२ ३३३
अनन्तर भा० ११।२६।२१ में श्रीकृष्ण भजन का श्रेष्ठत्व प्रदर्शन कैमुत्यिक न्याय से करते हैं-
(३३३) “यो यो मयि परे धर्मः कल्प्यते निष्फलाय चेत् ।
तत्रायासोऽनिरर्थः स्याद्भयादेरिव सत्तम ॥ १०६६॥
हे उद्धव ! जो जो वेद विहित धर्म मुझ को अर्पण करके अनुष्ठित होते हैं, उस उस धर्म यदि निष्फलत्व होते हैं, अर्थात् फल कामना से अर्पित नहीं होते हैं, तो उस धर्म में प्रयास अर्थात् परिश्रम अनिरर्थ होता है, अर्थात् व्यर्थ नहीं होता है । ‘निष्फलाय’ यह ‘विशेषण’ उल्लेख करने का उद्देश्य यह है कि- फल भोगादि रूप भक्ति का अन्तराय न होने के कारण, वह साधक की अभीष्ट सिद्धि के पक्ष में कोई
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भयादेरिवेति । यथा कंसादौ मत्सम्बन्धमात्रेण भयादेरप्यायासो निरर्थो न भवति, - मोक्षसम्पादकत्वादित्यर्थः ॥