३३०

५७९ ३३०

तथैव स्वभक्तेरतिशयित्वं श्रीभगवानपि तदनन्तरमुवाच । तत्र च तादृशान् प्रति शुद्धां स्वभक्त (भा० १११२६८) " हन्त ते कथयिष्यामि " इत्यादि चतुभिरुक्त्वा पुनरेतादृशान् प्रति च करुणया स्वभजन- प्रवर्त्तनार्थमन्यद्विचारितवान् चतुभिः । यतः प्रायशो लोकाः स्पर्द्धादिपराः कथञ्चिदन्तर्मुखत्वेऽपि सर्व्वान्तर्यामिरूप त्वद्भजनमात्रज्ञानिन इत्यालोच्य कृपया तेषां स्पर्द्धादीन् झटिति दूरीकत्तु स्वस्मिन्नेवान्तर्मुखीकर्त्तृञ्च ( गी० १०।४२ ) " विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्" इत्याद्युक्त तदन्तर्यामि रूप-स्वांशस्य भजनस्थाने स्वभजनमुपदिष्टवान् । यथा ( भा० ११।२६।१२) -

(३३०) “मामेव सर्व्वभूतेषु वहिरन्तरपावृतम् ।

ईक्षेतात्मनि चात्मानं यथा खममल शय, ॥ १०५१ ॥

तुम्हारा भजन करके भी तुम्हारे भजन जनित परमानन्द को प्राप्त करके भी तुम्हारे द्वारा कृत उपकार का स्मरण करके उपकार का प्रत्युपकार रूप ऋण मुक्ति को नहीं देख पाते हैं । अतएव तुम को वे लोक परित्याग करने में अक्षम हैं। तुम्हारे द्वारा उपकार क्या है ? उस को कहते हैं, समस्त देह धारि वृन्द तुम्हारे एकमात्र कृपापात्र हैं । अतः देहधारी के बाहर आचार्य वपुः अर्थात् गुरु रूप में एवं अन्तर में चैत्यवपुः अर्थात् चित्त में स्फुरित ध्येय भगवदाकार में तुम्हारे भक्ति विरोधी समस्त अशुभ

को विनष्ट करके निजानुभाव का विस्तार करते रहते हो ।

HE

श्रीमदुद्धव कहे थे - ॥३२६॥

५८० ३३०

उद्धवकी इस प्रकार प्रार्थना के पश्चात् श्रीभगवान् निजभक्ति की श्रेष्ठता का वर्णन उद्धव के द्वारा वर्णित रीति से ही किये थे। उस के मध्य में श्रीउद्धव प्रभृति के समान ऐकान्तिक भक्त के प्रति ( भा० ११२६८ ) “हन्त ते कथयिष्यामि” इत्यादि चार श्लोकों में विशुद्ध निज भक्ति का विवरण कहने के पश्चात् जो लोक ऐकान्तिक भक्त नहीं है, उस के प्रति भी करुणा करके निज भजन में प्रवृत्ति उत्पन्न कराने के निमित्त चार श्लोकों के द्वारा अन्य कुछ विचार भी किए हैं । कारण, प्रायशः लोक समूह स्पर्द्धादि निष्ठ होते हैं, किसी प्रकार अर्थात् साधुसङ्ग प्रभाव से भगवदन्तर्मुखता होने पर भी “सर्वान्तर्यामीरूप का हो भजन करना चाहिये” इस प्रकार ज्ञान सम्पन्न होते हैं । इस प्रकार आलोचना करके सत्वर उस के स्पद्धादि विदूरित करने के निमित्त एवं निज श्रीकृष्ण रूप के प्रति अन्तर्मुखी करने के निमित्त गोता शास्त्र में उल्लिखित ( गी० १०।४२) “विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत् " हे अर्जुन ! मैं एकांशके द्वारा समस्त जगत् में व्याप्त हूँ । अन्तर्थ्यामी रूप में जो समस्त जगत् में व्याप्त है, वह भी श्रीकृष्ण का अंश है । उस अंश स्वरूप का भजन के स्थान में निज भजन का उपदेश किये हैं । ( भा० ११/२६/१२)

(३३० “मामेव सर्वभूतेषु वहिरन्तरपावृतम् ।

1 ।

ईक्षेतात्मनि चात्मानं यथा खममलाशयः ॥ १०५१ ॥श्रीभक्ति सन्दर्भः

[[६६६]]

टीका च - “अन्तरङ्गां भक्तिमाह-मामिति त्रिभिः । सर्व्वभूतेष्वात्मनि चात्मानमीश्वरं स्थितं मामे-वेक्षेत” इत्येषा । कथम्भूतमीश्वरम् ? - बहिरन्तः पूर्णमित्यर्थः, तत् कुतः ? अपावृतमनावरणम्, तदपि कुतः ? यथा खमसङ्गत्वाद्विभुत्वाच्चेत्यर्थः । अत्र मामेवेति श्रीकृष्णरूपमेवेक्षेत्र, न तु केवलान्तर्यामिरूप मित्यभिप्रायेणैव " अन्तरङ्गां भक्तिमाह” इति व्याख्यातम् ॥

३३१-३३२ । ततश्च (भा० ११।२६।१३-१४)

(३३१) " इति सर्वाणि भूतानि मद्भावेन महाद्य ुते ।

में

समाजयन् मन्यमानो ज्ञानं केवलमाश्रितः ॥ १०५२ ॥ । ब्राह्मणे पुक्कशे स्तेने ब्रह्मण्येऽर्के स्फुलिङ्गके ।

"

अक़रे क्रूरके चैव समदृक् पण्डितो मतः ॥ १०५३॥

केवलं ज्ञानमन्तर्यामिदृष्टिमाश्रितोऽपि इति पूर्वोक्तप्रकारेण सर्वाणि भूतानि मद्भावेन तेषु मम श्रीकृष्णरूपस्य यो भावोऽस्तित्वं तद्विशिष्टतया मन्यमानः सभाजयन् पण्डितो मतः ।

श्रीधर स्वामिपाद कृत इस श्लोक की व्याख्या इस प्रकार है - तीन श्लोकों के द्वारा अन्तरङ्गा भक्ति की व्याख्या करते हैं-सर्व भूतों में एवं अपने में अन्तर्थ्यामी रूप में अवस्थित परमेश्वर मेरा दर्शन करोगे यहाँ तक श्रीधर स्वामी पाद कृत टीका की व्याख्या है । इस का भावार्थ यह है कि- समस्त भूतों में एवं अपने में अन्तर्यामी रूप में अवस्थित जो ईश्वर हैं-वह ईश्वर मैं ही हूँ । इस प्रकार निद्दश होने के कारण, सर्व भूतान्तर्यामी रूप में श्रीकृष्ण दृष्टि ही करनी चाहिये । वह ईश्वर किस प्रकार हैं ? बाहर में एवं अन्तर में पूर्ण है । पूर्ण क्यों है ? उस के उत्तर में कहते हैं । “अपावृतम्” अर्थात् आवरण शून्य है । आवरण शून्य क्यों है ? उस के उत्तर में कहते हैं ‘यथा खम्’ अर्थात् आकाश जिस प्रकार असङ्ग है, विभु होने के कारण पूर्ण एवं अनावृत है, उस प्रकार मैं भी असङ्ग एवं विभु होने के कारण पूर्ण ऐव अनावृत हूँ । यहाँ समस्त भूतों में मुझ को अर्थात् श्रीकृष्ण स्वरूप को ही देखना चाहिये। किन्तु केवल अन्तर्यामी रूप न देखे । इस अभिप्राय से ही श्री धर स्वामी पाद ने ‘अन्तरङ्गां भक्ति माह, अर्थात् अन्तरङ्गा भक्ति को कहते हुए इस प्रकार व्याख्या की है ॥ ३३०॥

३३१–३३२ । अनन्तर भा० ११।२६।१६ – १४ में कहा है-

(३३१) “इति सर्वाणि भूतानि मद्भावेन महाद्युते

सभाजयन् मन्यमानो ज्ञानं केवलमाश्रितः ॥ १०५२॥ ब्राह्मणे पुक्कशे स्तेने ब्रह्मण्येऽर्के स्फुलिङ्गके ।

चैत्र

"

अक्रूरे क्रूरके चैव समदृक् पण्डितो मतः ॥ १०५३ ॥

श्रीकृष्ण उद्धव को कहे थे - हे उद्धव ! केवल ज्ञान अर्थात् अन्तर्यामी दृष्टि से भी पूर्वोक्त प्रकार से समस्त भूतों में मैं हो श्रीकृष्ण रूपमें विद्यमान हूँ । विशिष्ट दृष्टि से जो इस प्रकार मान कर सब को सम्मान प्रदान करता है, वही पण्डित है । अर्थात् ब्राह्मण में पुक्कश में स्तेन (चौर) में ब्रह्मण्य में सूर्य में, अग्नि स्फुलिङ्ग में, अक्रर एवं क्रूर में जो जन मद् दृष्टि से सम अर्थात् मेरा दर्शन करता है-उस को ही पण्डित कहा जाता है । अनन्तर निरन्तर सर्वभूतों में जो व्यक्ति मेरा चिन्तन करता है । तत् पश्चात् भा० ११।

[[६७०]]

मद्दृष्टया ब्राह्मणादिषु समदृक् समं मामेव पश्यतीति । ततश्च (भा० १११२६।१५) “नरेष्व- भीक्ष्णम्” इत्यादिना तादृश-स्वोपासनाविशेषस्य झटिति स्पर्द्धादिक्षयलक्षणं फलमुक्त्वा (भा० १११२६११६) “विसृज्य” इत्यादिना तथा दृष्टि-साधनं सर्व्वनमस्कारमुपदिश्य (भा० ११।२६।१७) “यावत्” इत्यादिना तादृशोपासनाया अवधिञ्च सर्व्वत्र स्वतः स्वस्फूत्ति- मुक्त्वा (भा० १११२६।१८) “सर्वम्” इत्यादिना (भा० ४१३०/२०) -

“नव्यवद्धृदये यज्ज्ञो ब्रह्मेतद्ब्रह्मवादिभिः ।

ह FREE न मुह्यन्ति न शोचन्नि न हृष्यन्ति यतो गताः ॥ १०५४ ॥

इति प्रचेतसः प्रति श्रीभगवद्वाक्ये तट्टीकायाञ्च तस्य भगवतः प्रतिपद-नव्यस्फूर्त्तिरेक

२६ .१५ में उक्त “नरेष्वभीक्ष्णम्’ समस्त भूतों में स्पर्द्धा असूया, तिरस्कार एवं अपने में जो अहङ्कार होता है-उस का विलय हो जाता है, इस प्रकार सर्व भूतों में निरन्तर श्रीकृष्ण दृष्टि रूप निज उपासना विशेष का सत्त्वर स्पर्द्धादि विलय रूप फल को कहकर भा० ११।२६।१६ “विसृज्य” श्लोक में उन्होंने कहा है- उपहास कारी व्यक्ति में एवं हिताचरण कारी व्यक्ति में शत्रु मित्र दृष्टि परित्याग पूर्वक - उत्तम–अधम बुद्धि परित्याग पूर्वक कुकुर चण्डाल प्रभृति को भी दण्डवत् प्रणाम करो। इस प्रकार उपदेश के द्वारा सर्वत्र श्रीकृष्ण दृष्टि का साधन रूप नमस्कार का उपदेश प्रदान पूर्वक भा० ११।२६।१७ में कहते हैं- ‘यावत्’ जब तक सर्व भूतों में श्रीकृष्णरूपी में हूँ-इस प्रकार दृष्टि नहीं आती है, तब तक कायिक, वाचिक, मानसिक वृत्ति के द्वारा सब को नमस्कार रूप उपासना करे। इस प्रकार सर्वत्र प्रणाम रूप उपासना की अवधि है, सर्वत्र स्वाभाविक श्रीकृष्ण स्फूर्ति । इस प्रकार उपदेश करने के पश्चात् भा० ११।१६।१८ में कहा “सर्व म्” अर्थात् इस प्रकार उपासना कारी साधक के पक्ष में सर्व विश्व ब्रह्ममय हो जाता है । कारण, उस को सर्वत्र ईश्वर दृष्टि हेतु जो ज्ञान प्राप्त होता है, उस का फल स्वरूप वह नराकृति पर ब्रह्म मुझ को देखता है, अतएव निखिल क्रिया- अर्थात् अनुष्ठान से वह विरत हो जाय- उन्होंने इस प्रकार कहा है । इस उपदेश में “सर्व ब्रह्मात्मकं तस्य” यह ब्रह्म शब्द से श्रीभगवान् कहे जानना चाहिये - अर्थात् वह श्रीकृष्ण वाचक है । कारण, भा० ४।३० । २१ में श्रीभगवान् प्रचेताः गण कहें कहे थे-

‘नव्यवद्धृदये यज्ज्ञो ब्रह्म तद्ब्रह्मवादिभिः ।

न मुह्यन्ति न शोचन्ति न हृष्यन्ति यतो गताः ॥” १०५४॥

प्रचेतागण ! जो सब व्यक्ति, गृह धर्म में आविष्ट हैं, वे भी यदि समय अतिवाहत मेरी कथा से करें, तो वह गृह, बन्धन का कारण नहीं होता है। कारण, मेरी कथा श्रवण करने से सर्वत्र ईश्वर मैं प्रतिक्षण में नूतन के समान हृदय में प्रकाशित होता हूँ । तब जो भी मेरी कथा कीर्तन करे – उस को भक्ति रस विभोर हृदय होना आवश्यक है । कहा जा सकता है कि श्रीकृष्ण कथा श्रवण से ब्रह्म साक्षात् कार कैसे हो सकता है ? उत्तर में कहते हैं–तुमने जो मेरा दर्शन किया है । “एतदेव ब्रह्म” अर्थात् मैं हीं ब्रह्म हूँ । कारण, मुझ को प्राप्त कर कोई भी मोह अथवा शोक किंवा प्राकृत हर्ष को प्राप्त नहीं करते हैं । श्रीधर स्वामिपादने उक्त श्लोक की टीका में लिखा है- “भगवतः प्रतिपदनव्य स्कूत्तिरेव ब्रह्मतीति’ भगवान् का प्रतिपद में नूतन नूतन रूप से आविर्भाव हो ब्रह्म है । अतएव “सर्वं ब्रह्मात्मकं तस्य” भा० ११/२६ २८ श्लोक में उक्त ब्रह्म शब्द से श्रीकृष्ण का ही बोध होता है। कारण, जो भक्त, सर्वत्र श्रीकृष्ण

[[99]]

[[६७१]]

ब्रह्म तोति यदुक्तम्, तदेव तत्फलमित्युक्त्वा, यद्वा, (गो० ता०, उ० २८) " कथमस्यावतारस्य ब्रह्मता भवति” इति गोपालतापनी श्रुतिप्रसिद्ध - ब्रह्मेत्यभिधान- नरः कृति पर ब्रह्मरूप स्फुत्तिस्तत् फलमित्युक्त्वा तेनैव तादृशोपासनां सर्वोर्ध्वमपि प्रशंसत्ति, (गा० ११ १२ १C)-

(३३२) “अयं हि सर्वकल्पानां सध्रीचीनो मतो मम ।

मद्भावः सर्वभूतेषु मनोवाक्काय वृत्तिभिः ॥ १०५५।

सर्वकल्पानां सव्र्वोपायानां सध्रीचीनः समीचीनः, मद्भावो मम श्रीकृष्णरूपस्य भावना । एतच्च श्रीकृष्ण भजनस्यान्तर्यामिभजनादप्याधिक्यं श्रीगीतोपसंहारानुसारेणेवोत्तम्, तथाहि ( गी० १८१६१–६६) -

FIPER P

“ईश्वरः सर्व्वभूतानां हृद्द शेऽज्जुन तिष्ठति ।

भ्रामयन् सर्व्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया ॥ १०५६ ॥ तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत ।

तत्प्रसादात् परां शान्ति स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम् ॥१०५७ ॥ इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया ।

विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु ॥ १०५८ ।

(Peh afr)

सत्ता की उपलब्धि करते हैं, उन के पक्ष में निर्विशेष ब्रह्म साक्षात्कार - फल रूप में कभी भी प्रकाशित नहीं हो सकता है ।

अथवा, श्रीगोपाल तापनी में उक्त है-“कथमस्यावतारस्य ब्रह्मता भवति’ श्रीकृष्णावतार की ब्रह्मता कैसे सम्भव है ? इस प्रकार प्रश्न के उत्तर में कथित है-नराकृति परब्रह्म रूप में श्रीकृष्ण स्फूर्ति ही सर्वत्र श्रीकृष्ण दर्शनोपासना का फल है । श्रीभगवान् उस प्रकार कह कर पूर्वोक्त उपासना को ही सर्वोर्द्ध कह कर प्रशंसा किये हैं- (भा० १११२६।१६ )

(३३२) “अयं हि सर्वकल्पानां सध्रीचीनो मतो मम ।

मद्भावः सर्वभूतेषु मनोवाक्कायवृत्तिभिः ॥ " १०५५ ॥

सर्व कल्प अर्थात् समस्त उपायों के मध्य में यही समीचीन उपाय है । वह उपाय क्या है ? उत्तर में कहते हैं- मनोवाक् कार्य वृत्ति के द्वारा सर्वभूतों में मेरी श्रीकृष्ण रूप की भावना है। भगवद् गीता के (१-१६१–६५) उपसंहार वाक्य में भो अन्तर्य्यामो भजन से भी श्रीकृष्ण भजन का आधिक्य प्रर्दशित हुआ है । उस में “ईश्वरः सर्वभूतानां” से आरम्भ कर “सर्व धर्मान् परित्यज्य” पर्यन्त उक्त विषय का वर्णन

हुआ है-

“ईश्वरः सर्व्वभूतानां हृद्द शेऽज्जुन तिष्ठति ।

भ्रामयत् सर्व्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया ॥ १०५६ ॥

तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत ।

तत्प्रसादात् परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम् ॥१०५७॥ इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया ।

દૂર ]

g

[[1889]]

सर्व्वगुह्यतमं भूयः शृणु मे परमं वचः ।

इष्टोऽसि मे दृढ़मिति ततो वक्ष्यामि ते हितम् ॥१०५६ ॥

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।

मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ॥१०६०॥

सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।

अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥ १०६१ ॥ इति ।

अत्र च गुह्यं पूर्वाध्यायोक्तं ज्ञानम्, गुह्यतरमन्तर्यामिज्ञानम्, सर्व्वगुह्यतमं तन्मनस्त्वादि- लक्षणं तदेक-शरणत्वलक्षणञ्च तदुपासनमिति समानम् । एवं श्रीगीतास्वेव नवमाध्यायेऽषि ( गी० ६११)

11 विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु ॥ १०५८ ।

सर्व्वगुह्यतमं भूयः शृणु मे परमं वचः ।

इष्टोऽसि मे दृढ़मिति ततो वक्ष्यामि ते हितम् ॥ १०५६। मन्मना भव मद्भक्तों मद्याजी मां नमस्कुरु । मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ॥ १०६० ॥ सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।

अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥ १०६१॥

है अर्जुन ! समस्त प्राणीओं के हृदय में ईश्वर विद्यमान है, जो यन्त्रारूढ़ वत् माया द्वारा समस्त प्राणिओं को भ्रमण कराते रहते हैं । उनकी प्रेरणा व्यतीत कोई भी कुछ करने में सक्षम नहीं हैं । हे भारत

तुम

सर्वास्तः करण से सर्वापेक्षा शून्य होकर सर्व नियामक तत्त्व उन परमेश्वर की शरण लो। उन की प्रसन्नता से पराशान्ति एवं ध्वंस उत्पत्ति शून्य सनातन स्थान लाभ करोगे

काल, कर्म, माया, जीव, यह सब हो ईश्वर के नियम्य हैं, ईश्वर सब के नियामक हैं। नियामक तत्व के

अनुग्रह के बिना कोई भी परम शान्ति लाभ नहीं कर सकते हैं । अथच उस सर्वनियामक तत्क में भी करुणा है, उस करुणा को प्राप्त करने में शरणागत भिन्न अपर कोई भी व्यक्ति प्राप्त करने में सक्षम नहीं हैं। यही है गुह्य से गुह्य तर ज्ञान, जिस को मैंने तुम से कहा है । पूर्व अध्याय में जिस ज्ञान का कथन मैं ने किया है, वह ज्ञान गुह्य है, अन्तर्य्यामी ज्ञान-गुह्यतर है, “मन्मनाभव मद्भक्तः” इस श्लोक में वर्णित ज्ञान ही सर्व गुह्यतम है । सब कुछ ही मैंने तुम से कहा है, अब तुम अशेष विशेष से विचार कर जैसी इच्छा वैसी करो । ‘यद्यपि मैंने यद्यपि राज गुह्याध्याय नामक नवम अध्याय में तुम्हारे निकट सर्व गुह्य तत्त्व का वर्णन किया है । तथापि पुनर्वार कह रहा हूँ । यही मेरा महाकाव्य है-अवधान पूर्वक श्रवण करो। तुम मेरा इष्ट हो, अतः परमगम्भीर गीतार्थ अवधारण में यदि तुम भ्रान्त न हो जाओ, एतज्जन्य हो तुम्हारे हितार्थ गीता शास्त्र का सारार्थ को कहता हूँ । तुम, मन्मना मद्भक्त होओ, मेरा अर्चन शील बनो, मुझ को प्रणाम करो। तुम मेरा प्रिय हो, प्रिय व्यक्ति के निकट मैं शपथ पूर्वक कहता हूँ, तुम इस प्रकार आचरण करने से मुझ को तुम प्राप्त करोगे । सर्व धर्म को परित्याग करके तुम मेरी शरण लो, मैं तुम को समस्त पापों से रक्षा करूँगा, तुम ज्ञाति बध निबन्धन शोक न करो। इस प्रकार श्रीकृष्ण चरण में सङ्कल्प स्वरूप मन को स्थापन करना, एवं श्रीकृष्णंक शरण लक्षण उनकी उपासना करना दोनों ही

“इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे ।

ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ॥” १०६२॥

[[६७३]]

( गी० ६।२) “राजविद्या राजगुह्यम्” इत्यादिना वक्ष्यमाणार्थं प्रशस्य श्रीकृष्णरूपस्वभजन श्रद्धाहीनान् निन्दन्, तच्छ्रद्धावतः प्रशस्तवान् स्वयमेव, यथा ( गी० ६।११-१३) - " अवजानन्ति मां मूढ़ा मानुषीं तनुमाश्रितम् । परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम् ॥१०६३॥ मोघाशा मोधकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः । राक्षसीमासुरीञ्चैव प्रकृति मोहिनीं श्रिताः ॥१०६४॥

महात्मानस्तु मां पार्थ देवीं प्रकृतिमाश्रिताः ।

भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम् ॥” १०६५॥

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माम् ‘अव’ अनादरेण मानुषीं तनुमाश्रितं जानन्तीत्यर्थः । तस्मात् सर्व्वान्तर्यामि–

समान हैं । अर्थात् सर्व सङ्कल्प श्रीकृष्ण में स्थापन करने का नाम ही मन्मना होना है, द्वितीया - सर्व धर्मापेक्षा शून्य होकर श्रीकृष्ण की शरण ग्रहण करना । इन दोनों उपासना का एक ही लक्षण है । इसी प्रकार गीता के नवमाध्याय (६।१) में कहा गया है-

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“इदं तु ते गृह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे ।

ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ॥ १०६२॥

इस श्लोक से आरम्भ कर “महात्मानस्तु मां पार्थ” इत्यादि कतिशय श्लोकों के द्वारा वक्ष्यमाण भगवत् चरणारविन्द में सर्व सङ्कल्प समर्पण लक्षण उपासना की प्रशंसा करके श्रीकृष्ण रूप निज भजन में श्रद्धा विहीन जन की निन्दा एवं श्रद्धावान् जनकी प्रशंसा - स्वयं श्रीकृष्ण ही किये हैं । पूर्वोक्त श्लोक का अर्थ इस प्रकार है- “हे अर्जुन ! तुम किसी के गुण में दोषारोप नहीं करते हो, अर्थात् असूया वर्जित हो । तज्जन्य तुम्हारे समीप में अनुभव के सहित शास्त्रीय ज्ञानोपदेश कर रहा हूँ। जिस को जानकर तुम निखिल अशुभ वासना से मुक्त हो जाओगे। यह तत्त्व ज्ञान, समस्त विद्याओं के मध्य में राजा है, एवं समस्त गोपनीय विषयों के मध्य में भी राजा है ।” इस प्रकार गुह्य विद्या भक्ति की प्रशंसा करके “अव जानन्ति मां मूढाः” इत्यादि श्लोक के द्वारा श्रीकृष्ण भजन में श्रद्धा हीन जनकी निन्दा करते हैं- ( गी० ६-११-१३

“अवजानन्ति मां मूढ़ा मानुषीं तनु माश्रितम् ।

परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम् ॥१०६३॥ मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः ।

॥ राक्षसीमासुरीञ्चैव प्रकृति मोहिनीं श्रिताः ॥ १०६४ ॥

महात्मानस्तु मां पार्थ देवीं प्रकृतिमाश्रिताः ।

भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम् ॥ १०६५॥

“हे अर्जुन ! तुम यह कह सकते हो कि पूर्वोक्त लक्षणाक्रान्त मुझ को सब लोक आदर क्यों नहीं करते हैं ?” उस के उत्तर में कहते हैं-अज्ञ लोक समूह सर्व भूत महेश्वर रूप मेरा परम तत्त्व को न जान कर मेरी अवज्ञा करते हैं। अवज्ञा करने का कारण यह है कि- मैंने शुद्ध सत्वमयी तनु को भक्तेच्छा हेतु

[[६७४]]

भजनादप्युत्तमत्वेन तदनन्तरञ्च ‘सर्वगुह्यतमम्’ इत्यत्र सर्व्वग्रहणात् सर्व्वत उत्तमत्वेन श्रीकृष्ण भजने सिद्धे तदवतार - भजनात् सुतरामेवोत्तमता सिध्यति ॥