३२८

५७५ ३२८

फलितमाह, (भा० ११।२६।५)

(३२८) “तं त्वाखिलात्मदयितेश्वरमाश्रितानां

सर्व्वार्थदं स्वकृतविद्विसृजेत को नु ।

को वा भजेत् किमपि विस्मृतयेऽनुभूत्यै

[[11]]

किं वा भवेन्न तव पादरजोजुषां नः ॥ १०४६॥

तमेवम्भूतं त्वां स्वकृतवित् (भा० ३।२८।१३) “प्रसन्नवदनाम्भोजं पद्मगर्भारुणेक्षणम्” इत्यादि - श्री कपिलदेवोपदेशतः स्वसौन्दर्य्यादि-स्फूत्तिलक्षणं स्वस्मिन् कृतं त्वदीयोपकारं यो

रूपा है, दैत्य प्रभृति को उस मुक्ति प्रदान भी करते हो। पाण्डवादिक के सम्बन्ध में तुमने सख्य, दौत्य, एवं वीरासनादि का आचरण किया है। उस प्रकार ही अकिञ्चिन दास भक्त वृन्द के सम्बन्ध में तुम अधीन हो जाते हो, अतएव एवम्भूत तुम्हारे श्रीकृष्ण स्वरूप की ही भक्ति ही मुख्या है। उक्त श्लोक का अभिप्राय यही है ॥ ३२७॥

५७६ ३२८

सम्प्रति निष्किञ्चन भाव से जो भजन करते हैं- उन के उस प्रकार भजन का फल को कहते हैं - ( भा० ११०२६/५)

(३२८) “तं त्वाखिलात्मदयितेश्वरमाश्रितानां

सर्वार्थदं स्वकृतविद् विसृजेत को नु ।

को वा भजेत् किमपि विस्मृतयेऽनुभूत्यै

कि वा भवेन्न तव पादरजोजुषां नः ॥ ” १०४६॥

पूर्वोक्त लक्षणाक्रान्त अशेष बन्धु स्वरूप तुम को परित्याग करके कौन व्यक्ति अपर का आश्रय ग्रहण करेगा ? विशेषतः जो व्यक्ति, अन्तर्य्यामी रूप से तुमने जो उपकार किया है, उस को जानता है, वह क्या कभी भी तुम को छोड़कर इस का आश्रय ले सकता है ? तुमने ही तो बलि प्रभृति की आत्मदान किया है। तुम्हारे द्वारा कृत उपकार का स्मरण करके सभी व्यक्ति तुम्हारे चरणों में एकान्त भाव से आश्रय ग्रहण करते हैं । भा० ३।२८।१३ में कपिल देव ने कहा है–“प्रसन्न वदनाम्भोजं पद्मगर्भारुणेक्षणम्” इस तुम्हारे सौन्दर्य्यादि की कथा वर्णित हुई है । इस जगत् के कौन व्यक्ति परम सुन्दर तुम से निज चित्त को वियुक्त कर सकता है । भा० ३।२८।३४ में कपिल देव ने कहा है- मुमुक्ष दोष दुष्ट चित्त रूप व डिश को धीरे धीरे उन परम सुन्दर श्रीभगवान् से वियुक्त करे । इस प्रकार उपदिष्ट अधिकारी विशेष के समान

श्रीभक्ति सन्दर्भः

[[६६७]]

वेत्ति, स को नु विसृजेत्, (भा० ३।२८।३४) “तच्चापि चित्तवड़िशं शनकैवियुङ्क्ते” इति तदुपदिष्टाधिकारिविशेषवत् परित्यजेत् ? - न कोऽपीत्यर्थः । तस्माद्यस्त्यजति स कृतघ्न एवेति भावः । कतम्भूतं त्वाम् ? स्वरूपतः एवाखिलानामात्मनां दयितं प्राणकोटिप्रेष्ठ- मीश्वरञ्चेत्यादि तथा नु वितर्के, तद्व्यतिरिक्तं किमपि देवतान्तरं धर्म- ज्ञानादि साधनं भूत्ये ऐश्वर्य्याय संसारस्य विस्मृतये मोक्षाय वा को भजेत् ?- न कोऽपीत्यर्थः । अस्माकन्तु तत्तत्फलमपि त्वद्भक्तेरेवान्तर्भूतमित्याह – किं वेति । वा– शब्देन तत्राप्यनादरः सूचितः, तदुक्तम् (भा० ११।२०।३२) - “यत् कर्म्मभिर्यत्तपसा” इत्यादि ॥

५७७ ३२८

ननु कथं तत्तत् फलमपि विसृजति, न तु माम्, किंवा मम कृतम् ? तवाह ( भा० ११।२६।६ )

(३२६) “नैवोपयन्त्यपचितिं कवयस्तवेश

ब्रह्मायुषोऽपि कृतमृद्धमुदः स्मरन्तः ।

योऽन्तवं हस्तनुभूतामशुभं विधुन्व-

नाचार्य्यचेत्यवपुषा स्वर्गात व्यनक्ति ॥ " १०५० ॥

हे ईश ! कवयः सर्व्वज्ञा ब्रह्मतुल्यायुषोऽपि तत्कालपर्यन्तं भजन्तोऽपीत्यर्थः । तव

भजन कारी व्यक्ति क्या तुम को छोड़ सकता है ? वस्तुतः कोई भी परित्याग करने में समक्ष नहीं हैं । जो परित्याग करता है, वह अत्यन्त अकृतज्ञ है । एवं कृतघ्न भी है, इस में अणुमात्र सन्देह नहीं है । भगवान् किस प्रकार हैं- उस का परिचय देते हुए कहते हैं - स्वरूपतः ही अखिल आत्मा का दयित हैं । अर्थात् प्राण कोटि प्रेष्ठ एवं परमेश्वर हैं। श्लोकोक्त- ‘नु’ शब्द का प्रयोग वितर्क अर्थ में हुआ है। तुम को छोड़कर देवतान्तर को अथवा धर्म ज्ञानादि साधन को ऐश्वर्य के निमित्त अथवा संसार विस्मृति रूप मोक्ष के निमित्त कौन व्यक्ति आश्रय करेगा ? फलतः कोई भी आश्रय ग्रहण कर नहीं सकता है । वह ऐश्वर्य्यादि फल भी तुम्हारी भक्ति के अन्तर्भूत हैं। मूल श्लोक में उस को प्रकाश करने के निमित्त ‘को वा’ कहा गया है । यद्यपि ऐश्वर्य्य प्रभृति भक्ति के ही अन्तर्भूत हैं, तथापि हम सब वह सब फलों के प्रति कुछ भी अनादर भाव नहीं रखते हैं। भा० ११।२० ३२ में श्रीभगवान् ने कहा भी है- " यत् कर्मभिर्यत्तपसा "

“यत् कर्म, ज्ञान, तपस्या, वैराग्य के द्वारा जो फल लाभ होते हैं, मेरा भक्त, भक्ति योग के प्रभाव से वह सब फल को सुख पूर्वक प्राप्त करते हैं । ३२८ ॥