५७३ ३२७
एवम्भूतस्य च भक्तस्य ज्ञान-योगादीनां यत् फलं किन्त्वन्यन्महदेवेत्याह, ( भा० ११/२६४)
(३२७ )
किं चित्रमच्युत तवैतदशेषबन्धो दासेष्वनन्यशरणेषु यदात्मसात्त्वम् ।
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योऽरोचयत् सह मृगैः स्वयमीश्वराणां
श्रीमत् किरीटतटपीड़ित - पादपीठः ॥ १०४८ ॥
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तन्मात्रम्, न
अशेषबन्धो दासेष्वनन्यशरणेषु, यद्वा, अशेषाणामसुरपर्यन्तानां यो बन्धुर्मोक्षादिदाने- निरुपाधिहितकारी, हे तथाभूत ! तवैतत् किं चित्रम् ? यदनन्यशरणेषु ज्ञानयोगकर्माद्यनुष्ठान- हैं । अर्थात् भक्ति अनुष्ठान करने के कारण, किसी भी बाधा से अभिभूत नहीं होते हैं । यद्यपि वे सर्वोत्तम स्वयं भगवान् तुम्हारे प्रति सर्व साधन चूड़ामणि विशुद्ध भक्ति का अनुष्ठान ही करते हैं, तथापि वे अभिमानी नहीं होते हैं । कारण, वे पुरुषार्थ साधन विषय में श्रीभगवान् की निरुपाधि हीन जन के प्रति निरुपाधि कृपा को ही साधकतम मानते हैं। योगी प्रभृति के समान निज पुरुषकार को पुरुषार्थ अर्थात् फल प्राप्ति का साधक है, यह नहीं मानते हैं। एकमात्र श्रीकृष्ण कृपा को ही सर्व फल साधक मानकर सुदृढ़ निश्चय करते हैं ॥३२६॥
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इस प्रकार विशुद्ध भक्त के द्वारा ज्ञान योगादि अनुष्ठित होने से जो फल लाभ होता है, केवल वही नहीं, किन्तु अपर महत् सङ्ग लाभ भी होता है । भा० ११।२६।४ में श्रीउद्धव ने कहा है-
(३१७) किं चित्रमच्युत तवैवदशेषबन्धो
दासेष्वनन्यशरणेषु यदात्मसात्त्वम् ।
योऽरोचयत् सह मृगैः स्वयमीश्वराणां
श्रीमत् किरीटतटपीड़ित - पादपीठः ॥ १०४८ ॥
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हे अशेष बन्धो ! अनन्य शरण दासों के एकमात्र बन्धु । अथवा, अशेष अर्थात् अतुर पर्यन्त सब के मोक्षादि प्रदायक निरुपाधि हितकारी बन्धु ! जो ज्ञान योग कर्मादि अनुष्ठान में विमुख हैं, वह सब शुद्ध भक्त, बलि प्रभृति को जो आत्म दान करते है, अर्थात् निज विग्रह को भी उसका अधीन कर देते तुम्हारे सम्बन्ध में यह कुछ भी विचित्र नहीं है। तुमने तो स्वयं हि भ० ११।१४।२० में कहा है-“न साधयति मां योगः” जो लोक, ज्ञान कर्मादि साधन को अनादर करके एकमात्र विशुद्ध भक्ति को ही आदर करते हैं, उस के जाति गुणादि की अपेक्षा तुम नहीं करते हो । अन्तरङ्ग लीला में भी वृन्दावन में विचरण शोल मृग वृन्द के सहित तुमने ही तो सख्य स्थापन किया है । स्वयं किन्तु तुम श्रीशिव ब्रह्मा प्रभृति ईश्वर वृन्द युक्त किरीटके अग्रभाग के द्वारा पूजित पाद पीठ हो, जो मुक्ति, ज्ञान योगादि साधन की परम फल
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श्रीभक्ति सन्दर्भः विमुखेषु दासेषु शुद्धभक्तेषु बलिप्रभृतिष्वात्मसात्त्वं तेषां य आत्मा तदधीनत्वमित्यर्थः । तदुक्तम् (भा० ११।१४।२० ) - " न साधयति मां योगः" इत्यादि । तस्य त्व तथाभूतेषु न जति गुणाद्यपेक्षा चेत्यन्तरङ्गलीलायामपि दृश्यत इत्याह-य इति । सहेति सहभावं सख्यमित्यर्थः । मृगैर्वृन्दावनचारिभिः स्वयन्तु कथम्भूतोऽपि ईश्वराणामित्यादिलक्षणोऽपि, ईश्वराः श्री शव- ब्रह्मादयः । ज्ञान- योगादि- परमफलरूपापि या मुक्तिस्तां दैत्येभ्योऽपि ददासि । पाण्डवादि- सख्य- दौत्य - वीरासनादिस्थितिवद्दासानान्तु स्वयमधीनो भवसि । अत एवम्भूतस्य श्रीकृष्णस्यैव तव भक्तिर्मुख्येति भावः ॥