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तथा श्रीमदुद्धव-संवादान्ते च यथा । तत्र यद्यपि पूर्व्वाध्याय– समाहौ उक्ताया ज्ञानयोग-चर्याया भक्तिसहभावेनैव स्वफलजनकत्वं श्रीभगवतोत्तम्, तथापि तां ज्ञानयोग- चर्यामंशतोऽप्यनङ्गीकुर्व्वता परमेकान्तिमा श्रीमदुद्धवेन (भा० १११२६।१-२)

“सुदुश्चरामिमां मन्ये योगचर्यामनात्मनः ।

यथाज्ञ्जसा पुमान् सिध्येत्तन्मे ब्रूह्यञ्जसाच्युत ॥१०४५॥

यह हैं कि - जब तक निष्ठा भक्ति का उदय नहीं होता है, तब तक मन प्रसन्न नहीं होता है । किन्तु श्रीकृष्ण भजन कथा प्रसङ्ग में प्रश्न मात्र से ही चित्त प्रसन्न होता है “यत् कृतः कृष्ण संप्रश्नः येनात्मा सुप्रसीदति” इस श्लोक में उक्ताभिप्राय व्यक्त हुआ है । अतएव अन्यान्य अवतार वृन्द की कथा श्रवण कीर्त्तनादि का भी फल है। श्रीकृष्ण में अभिनिवेश होना । इस का ही वर्णन भा० सार में हुआ है-

(३२५) “हरेर भुतवीर्य्यस्य कथा लोकसुमङ्गला ।

कथयस्व महाभाग यथाहमखिलात्मनि ।

कृष्णे निवेश्य निःसङ्गं मनस्त्यक्ष्ये कलेवरम् ।” १०४४ ॥

श्रीपरीक्षित महार ज श्रीशुक को कहे थे- “हे महाभाग ! अद्भुत प्रभाव श्रीहरि की लोक सुमङ्गला कथा का कीर्तन आप करें। जिस से मैं सर्वांशी अर्जुनसखा श्रीकृष्ण में निःसङ्ग मन को अभिनिविष्ट करके इस कलेवर को परित्याग कर सकेँ । अन्य भगवत कथा श्रवण करने से श्रीकृष्ण चरणों में अभिनिवेश होता है - इस का उल्लेख इस श्लोक में हुआ है ।

श्रीराजा श्रीशुक को कहे थे ॥ ३२५॥

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भागवत के एकादश स्कन्ध श्रीउद्धव के सहित श्रीकृष्ण का जो संवाद हुआ था - उस में भी पूर्वोक्त अभिप्राय हो प्रकाशित हुआ है । यद्यपि उस प्रसङ्ग के ११।२८।४४ में श्रीकृष्ण ज्ञान एवं योग चर्खा के सहित भक्तानुष्ठान के द्वारा हो निज निज फल साधनत्व का प्रदर्शन किये हैं, अर्थात् ज्ञान साधन हो, वा योग स धन हो, यदि भक्ति योग के सहित अनुष्ठित होता है, तो वह फल जनक होता है । भक्त साहचर्य शून्य केवल ज्ञान वा योग फल प्रदान करने में असमर्थ है । तथापि परम ऐकान्तिक भक्त श्रीमान् उद्धव, ज्ञान एवं योग चर्य्या के किसी भी अंश को स्वीकार न करके श्रीकृष्ण को कहे थे

‘सुदुश्चरामिमां मन्ये योगचर्थ्यामनात्मनः ।

यथाञ्जसा पुमान् सिध्येत्तन्मे ब्रह्मज्ञ्जसाच्युत ॥ १०४५ ॥

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प्रायशः पुण्डरीकाक्ष युञ्जन्तो योगिनो मनः ।

विषीदन्त्य समाधानान्मनोनिग्रहकषिताः ॥ ” १०४६॥

इत्यत्र स्ववाक्ये तस्या दुष्करत्वेन प्रायः फलपर्य्यवसायित्वाभावेन चोक्तत्वात् शुश्रूषमाणाया भक्तेस्तु सुकरत्वेनावश्यक फलपर्य्यवसायित्वेन चाभिप्रेतत्वात्तद्भत्तिरेव कर्त्तव्येति स्वाभिप्रायो दर्शितः । तदेवं तां ज्ञानयोगचर्थ्यामनादृत्य भक्तिमेवाङ्गीकुणास्तव श्रीकृष्णरूपस्यैव भक्ति तादृशास्तु ज्ञानयोगादिफलानादरेणैव कुन्तीति पुनराह चतुभिः (६० ११।२६।३)

(३२६) “अथात आनन्ददुधं पद म्बुजं, हंसाः श्रयेरश रविन्द लोचन ।

सुखं नु विश्वेश्वर योगकर्म्मभिस्त्वन्माययामी बिहता न मानिनः ॥” १०४७॥ यस्मादेवं केचन विषीदन्ति, अथात अतएव ये हंसाः सारासारविवेकच तुरास्ते तु समस्तानन्द- परिपूरकं पदाम्बुजमेव नु निश्चितं सुखं यथा स्यात्तथा श्रयेरन्,- पदाम्बुजस्य सम्बन्धि–

प्रायशः पुण्डरीकाक्ष युञ्जन्तो योगिनो मन ।

विषीदन्त्य समाधानान्मनोनिग्रहकषिताः ॥ " १०४६॥

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हे अच्युत ! असंयतचित्त साधक के पक्ष में यह योगमार्ग का अनुष्ठान सुदुश्चर प्रतिभात होता है । अतः अप्रयास से साधक सिद्धि लाभ करने में सक्षम हो, उस प्रकार उपाय का वर्णन सुख बोध्य रूप मे करो। वह योगानुष्ठु न जो सुदुश्वर है, उस को कहते हैं- “हे कमल लोचन ! प्र यशः योगिगण-मनोनिग्रह करने में प्रचुर तर क्लेश लाभ करते हैं, कारण, - मनोनिग्रह नहीं होता है, किसी प्रकार से निग्रहीत होने पर भी प्रचुरतर श्रान्त हो जाते हैं । उद्धव के इस वाक्य में योग चर्य्या का सुदुश्चत्व एवं प्रायशः फल में पर्य्यवसान न होने का संवाद है। अथच जिस भक्ति की कथा सुनना अभीष्ट था, उस भक्ति का सुकरत्व एवं अभीप्सित फल प्राप्ति में सुनिश्चयत्व के कारण श्रीहरि भक्ति का अनुष्ठान करना ही एकमात्र कर्त्तव्य है । श्रीउद्धव इस प्रकार निज अभिप्राय को व्यक्त किये थे । अतएव पूर्व वर्णित हेतु के कारण, ज्ञान योग चर्या के प्रति अनादर करके जिन्होंने एकमात्र भक्ति का अनुष्ठान ही किया है, वे ज्ञान योगादि के फल के प्रति आदर न करके श्रीकृष्ण रूप तुम्हारी चरणों में भक्ति करते हैं। पुनर्वार भा० ११/२६ । ३ आरम्भ कर चार श्लोकों के द्वारा उस को कहते हैं-

(३२६) “अथात आनन्ददुघं पदाम्बुजं,

हंसाः श्रयेरन्नरविन्दलोचन ।

सुखं नु विश्वेश्वर योगकर्मभि–,

स्तन्माययामी विहतः न मानिनः ॥ " १०४७॥

से

हो अरविन्द लोचन ! ज्ञान योग चर्या अनुष्ठान कोई कोई व्यक्ति विषाद को प्राप्त करते हैं, अतएव जो हंस हैं - अर्थात् सारासार विवेक चतुर हैं, वे किन्तु समस्त आनन्द परिपूरक तुम्हारे पदाम्बुज की सेवा परमसुख पूर्वक निश्चिन्त भाव से करते रहते हैं । यहाँ मूल श्लोक में केवल पदाम्बुज शब्द का उल्लेख ही है, किन्तु किस का पदाम्बुज-उस सम्बन्धि पद का उल्लेख नहीं है । उस का कारण है – उद्धव साक्षात् श्रीकृष्ण के पदाम्बुज का दर्शन कर रहे थे । तज्जन्य सम्बन्धि पद का उल्लेख करना निष्प्रयोजन बोध किये थे । वह सब शुद्ध भक्त वृन्द, योग कर्म प्रभृति के द्वारा एवं तुम्हारी माया द्वारा कभी भी वित नहीं होते

श्रीभक्तिदन्दर्भः

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पदानुक्तिः साक्षाद्दृश्यमान तदीयपदाम्बुजाभिव्यजनार्था । अमी च शुद्धभक्ता योगकर्म्मभि- स्त्वन्मायया च विहताः कृतभक्तयनुष्ठानान्तराया न भवन्ति यतो न च मानिनोऽपि न भवन्ति । पुरुषार्थसाधने भगवतो निरुपाधि-दीनजनकृपाया एव साधकतमत्वं मन्यन्ते, न योगिप्रभृतिवत् स्वप्रयत्नस्येत्यर्थः ॥