५६९ ३२५
तदेवं रागानुगा साधिता । सा च श्रीकृष्ण एव मुख्या, (भा० ७।१।३० ) - “गोप्यः कामात्" इत्यादिना तस्मिन्नेव दर्शितत्वात्, दैत्यानामपि द्वेष ेणापि तस्मिन्नेवावेशलाभ– दर्शनात् सिद्धिप्राप्तेश्च । नान्यत्र तु कुत्राप्यंशिन्यंशे वा । अतएवोक्तम् (भा० ७ ११३१ ) - " तस्मात् केनाप्युपायेन मनः कृष्णे" इत्यादि । अतस्तादृश झटित्या वेश हेतूपासनालाभादेव स्वयमेकादशे वैधोपासना स्वस्मिन्नोक्ता, किन्त्वन्यत्र चतुर्भुजाकार एव । तत्र च शुद्धस्य रागस्य श्रीगोकुले एव दर्शनात्, तत्र तु रागानुगा मुख्यतमा, यत्र खलु स्वयं भगवानपि तेषां पुत्रादिभावेनैव विलसति, ( गी० ४।११) - “ये यथा मां प्रपद्यन्ते” इत्यादेः, (भा० १०।४३।१७) “मल्लानामशनिः ’ इत्यादेः, (भा० १०।१४।२) “स्वेच्छामयस्य” इत्यस्माच्च । ततश्च भक्तकर्तृक-भोजन-पायन- उत्प्रेक्षण की है । वस्तुतः द्वेषादि में किसी प्रकार भक्ति नहीं है ।
श्रीनारद श्रीवसुदेव को कहे थे ॥ ३२४ ॥
५७० ३२५
पूर्वोक्त रीति से रागानुगा भक्ति साधित हुई। यह रागानुगा भक्ति– व्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्ण
। विषय में ही मुख्या है । कारण- भा० ७।१।३० में उक्त है -
‘गोप्यः कामाद् भयात् कंसो द्वेषाच्चद्यादयोनृपाः ।
।
सम्बन्धाद् वृष्णयः स्नेहाद् यूयं भक्तचा वयं विभो ॥"
इत्यादि श्लोक से श्रीकृष्ण ही लक्षित हैं । दैत्यवृन्द का विद्वेष के द्वारा श्रीकृष्ण में आवेश एवं तज्जनित अभीष्ट लाभ भी दृष्ट होता है । किन्तु श्रीकृष्ण भिन्न अपर किसी अंशा में वा अंशावतार में इस प्रकार आवेश अथवा अभीष्ट लाभ दृष्ट नहीं होता है । अतएव भा० ७।१।३१ में उपदेश है, “तस्मात् केनाप्युपायेन मनः कृष्णे निवेशयेत्” अर्थात् उक श्लोकों के द्वारा श्री कृष्ण में ही मनोनिवेश करने के निमित्त उपदेश किया गया है । एतज्जन्य श्रीकृष्णोपासना में सत्वर मानसिक आवेश का कारण विद्यमान होने के कारण श्री कृष्ण स्वयं ही एकादशस्कन्ध में बंधी उपासना का वृत्तान्त कहे हैं । यहाँ पर समझने की वात यह है कि - यद्यपि श्रीकृष्ण विषय में वैधी भक्ति करने का उपदेश है, किन्तु वह उपदेश चतुर्भुज श्रीकृष्ण को लक्ष्य करके ही हुआ है । व्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्ण में ही श्रीगोकुल वासी का विशुद्ध राग दृष्ट होता है, श्रीगोकुल में ही अर्थात् गोकुल वासी जननिकर में ही यह रागानुगा मुख्यतम है । जिस श्रीगोकुल में स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण भी उन सब गोकुल वासियों के पुत्रादि भाव में विलास करते हैं । अर्थात् स्वयं भगवान् होकर भी एवं किञ्चिन्मात भगवदावेश का अनुसन्धान न करके ही पुत्र, सखा एवं प्रिय रूप में विलास करत रहते हैं । कारण (गो० ४।११) में उक्त है - “ये यथा मां प्रपद्यन्ते” जो जिस प्रकार से मेरा भजन करते हैं, मैं भी उन सब का भजन उस प्रकार से ही करता रहता हूँ । भजनानुरूप भजन श्रीकृष्ण करते हैं - उसका उदाहरण भा० १०।४३।१७ में हैं-
“मल्लानामशनि नृणां नरवरः स्त्रीणांस्मरो मूर्तिमान् ।
गोपानां स्वजनोऽसतां क्षितिभुजां शास्ता स्वपित्रोः शिशुः । मृत्यु भोज पराविपुषां तत्त्वं परं योगिनां
वृष्णीनां परदेवतेति विदितोरङ्गं गतः साग्रजः ॥”
टीका - तत्र शृङ्गारादि सर्व रस कदम्ब मूर्ति भगवान् तत्तदभिप्रायानुसारेण बभौ न साकल्येन सर्वेषामित्याह - मल्लानामिति । मल्लानामज्ञानां द्रष्टृ णाम् अशन्यादि रूपेण दशधा विदितः सन् साग्रजो
[[६५८]]
स्नपन-वीजनादिलक्षण- लाल नेच्छापि तस्याकृत्रिमेव जायते । साधारणभक्तिसद्भावेनैव हि ( गी० ८।२६) -
“पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्तया प्रयच्छति । तदहं भवत्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः ॥ १०३ ॥
[[5]]
रङ्गं गतः । इत्यन्वयः मल्लादिष्वभिव्यक्ता रसाः क्रमेण श्लोकेन निबध्यन्ते । रौद्रौऽद्भुतश्च श्रृङ्गारो हास्यं वोरोदया तथा । भयानकश्च बीभत्सः शान्तः स प्रेम भक्तिकः । अविदुषां विराट् विकलः अपर्थ्यो राजत इति तथा । अनेन बीभत्स रस उक्तः, विकलत्वञ्च क्व वज्रसार सर्वाङ्गावित्यादिना वक्ष्यते ।
श्रीकृष्ण, जिस समय कुवलयापीड़ नामक हस्ती को बध करके रङ्ग भूमि में प्रवेश किये थे, उस समय मल्लगण देखे थे - जैसे साक्षात् वज्र ही मूर्ति धारण कर आ रहे हैं । सभास्थ सम्यवृन्द ने नर श्रेष्ठ रूप में देखा, स्त्रीगण साक्षात् कन्दर्प रूप में देखी थीं । गोपगण– निज स्वजनरूप में देखे थे । दुष्ट राजन्य वृन्द ने शासन कर्त्ता रूप में देखे थे । माता पिताने शिशु रूप में देखा। कंस ने तो देखा कि-साक्षात् मृत्यु ही मूर्ति धारण कर उपस्थित है । अतत्त्वज्ञव्यक्ति वृन्द के निकट पाञ्चभौतिक देह धारी रूप में योगी वृन्द के निकट — परम तत्त्व - परमात्मा रूप में यादव वृन्द के निकट परमाराध्य अभीष्ट देवरूप में श्रीकृष्ण उस सभा में सम्यगण के भाव के अनुरूप प्रकाशित हुए थे । भा० १०।१४।२ में उक्त है-
“अस्यापि देव वपुषो मदनुग्रहस्थ स्वेच्छामयस्य न तु भूतमयस्य कोऽपि ।
नेशेम हि त्ववसितुं मनसान्तरेण साक्षात् तवैव किमुतात्मसुखानुभूतेः ॥”
टीका- ननु नौमीति प्रतिज्ञाय कि स्वरूपानुवादमात्रं क्रियते, अत आह अस्थापीति । भो देव ! अस्यापि सुलभत्वेन प्रकाशितस्यापि तव वपुषोऽवतारस्य महि-महिमानम्, अवसितु ं ज्ञातु’, कोऽपि, को ब्रह्मा अहमपि नेशे न शक्नोमि । यद्वा, कश्चिदपि नेशे न समर्थ आसीत् । सुलभत्वाय विशेषण द्वयम् । मदनु ग्रहस्य - मम अनुग्रहो यस्मात् तत् मदनुग्रहं तस्य, किश्व, स्वेच्छा मयस्य स्वीयानां भक्तानां यथा यथा इच्छा, तथा तथा भवतः । तर्हि किमिति ज्ञातु
ं न शक्यतेऽतआह-न तु भूतमयस्य, अचिन्त्य शुद्ध सत्त्वात्मकस्य यदा अस्यैव तथा कथं पुनः साक्षात् तव केवलस्य आत्मसुखानुभूतेरेव स्वसुखानुभव मात्रस्यावतारिणोगुणातीतस्य महिमानम् आन्तरेण निरुद्धेनापि मनसा को वा ज्ञात समर्थो भवेत् । अथवा, भूतमयस्य अपित विराट् रूपस्य तव तन्नियम्यस्य वपुष्यं महिमानमेव अवसितुं कोऽपि नेशे, तदा साक्षात् तवैवासाधारणस्य नियम्य नियन्तृ भेद रहितस्योक्त लक्षणस्यास्य महिमानम् अवसितुं कोऽपि नेश इति किमु वक्तव्यमित्यर्थः ।
श्रीकृष्ण, भक्तेच्छा के अनुरूप आविर्भूत होते हैं। इसका कथन प्रस्तुत इलोक में हुआ है । भक्तेच्छा जिस प्रकार आस्वादन हेतु होती है, श्रीभगवान् उस प्रकार ही भक्त के निकट आविर्भूत होते हैं । कभी भक्त की इच्छा के विरुद्ध आचरण नहीं करते हैं । यद्यपि स्वयं भगवान् होने के कारण, परम स्वतन्त्र हैं, तथापि - निज भक्त की इच्छा के ऊपर किसी प्रकार स्वाधीनता प्रकाशित नहीं होती है । अतः भक्त कर्तृक भोजन, पान, स्नपन, एवं वीजादि लक्षण लालन प्राप्ति की इच्छा भी भगवान् में अकृत्रिम भाव से ही प्रकाशित होती है । श्रीगोकुलवासी गण के सम्बन्ध में इस प्रकार श्रीकृष्ण की आकाङ्क्षा स्वाभाविक रूप से रहती है। साधारण भक्ति विद्यमान होने पर ही भगवान् भक्त दत्त वस्तु का आस्वादन आदर पूर्वक करते हैं- इस की घोषणा समस्वर से (गो० ६।२६ एवं श्रीमद् भागवत में है -
“पत्त्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्तचा प्रयच्छति ।
तदहं भक्तुपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः ॥” भा० १०।१८।३
इत्युक्तम् । श्रीशुकदेवेन च तदेतदेवाकाङ्क्षया श्लाघितम् (भा० १०।१५।१७) -
“पादसम्वाहनं चक्र के चित्तस्य महात्मनः ।
अपरे हतपाप्मानो व्यजनैः समवीजयन् ॥” १०४० ॥
[ ६५ε
इत्यादिना । नानेन चैश्वर्य्यस्य हानिः - तदानीमपि तस्यैश्वय्र्यस्यान्यत्र स्फुरद्रूपत्वात् भक्तेच्छामयत्वस्य चेशितरि प्रशंसनीयस्वभावत्वादेव, यथा श्रीव्रजेश्वरीबद्ध एव यमलार्जुन- मोक्षं कृतवान् । तादृशैश्वर्येऽपि तस्मिन् भीव्रजेश्वरीवश्यतैव श्रीशुकदेवेन वन्दिता (भा० १०१६१६) - “एवं सन्दर्शिता ह्यङ्गः” इत्यादिना । तस्माद् ये चाद्यापि तदीयरागानुगा- परास्तेषामपि श्रीव्रजेन्द्र नन्दनत्वादिमात्रधम्मैरुपासना युक्ता, यथा गोवर्द्धनोद्धरणलब्ध- विस्मयान् श्रीगोपान् प्रत्युक्तं स्वयंभगवतैव श्रीविष्णुपुराणे (५।१३।११) -
‘यदि वोऽस्ति मयि प्रीतिः श्लाघ्योऽहं भवतां यदि । तदात्मबन्धुसदृशी बुद्धिर्वः क्रियतां मयि ॥। १०४१ ॥ “ताच्च बन्धुसदृशी बान्धवाः क्रियतां मयि” इति वा पाठः, तथा (वि० पु० ५।१३।१२) -
में अनुरूप श्लोक है । उभय स्थान के बक्ता श्रीकृष्ण हैंः एवं श्रोता सखा है। भक्ति भाव से संग्रह करके भक्ति पूत हृदय से जो मुझ को पत्र पुष्प फल जल समर्पण करता है, मैं फलाकाङ्क्षा रहित उस भक्त प्रदत्त पत्रादि भी भोजन करता हूँ। श्रीशुक देवने भी उस प्रकार भाव प्राप्ति की आकाङ्क्षा करके
भाव की प्रशंसा की है- (भा० १०।१५ः१७)
“पादसम्बाहनं चक्र : केचित्तस्य महात्मनः ।
अपरे हतपाप्मानो व्यजनैः समवीजयन् ॥” १०४०॥
श्रीकृष्ण, सखावृन्द के सहित क्रीड़ा करते करते परिश्रान्त होकर पल्लवशय्या में शयन करने पर कोई कोई महात्मा सखा उनके पाद सम्बाहन किए थे। एवं परम सौभाग्यवान् कतिपय सखा कुसुम युक्त वृक्ष शाखा द्वारा। उन को वीजन किये थे । इस वृत्तान्त वर्णन करते करते उस प्रकार सेवा लाभ क आकाङ्क्षा जो शुक देव की हुई थी - इस से सुस्पष्ट बोध होता है।
इस से श्रोभगवान् की किसी प्रकार ऐश्वर्य्य हानि नहीं होती है । कारण, श्रीभगवान् जब भक्ताधीन होकर निज भगवत्ताविस्मृत होते हैं, तब ही उनका परिपूर्व ऐश्वय्यं प्रकट अन्यत्र होता है । सर्व समर्थ श्रीभगवान् के भक्तेच्छामयत्व स्वभाव - अत्यन्त प्रशंसनीय है। जिस समय श्रीकृष्ण, मा यशोदा कर्तृक रज्जु से आबद्ध थे, उसी समय, – उन्होंने यमलार्जुन को मुक्ति प्रदान की । श्रीभगवान् में तादृश ऐश्वर्य्य होते हुये भी श्रीव्रजेश्वरी वश्यता की ही श्रीशुकदेव ने वन्दना की है (भा०।१०।६।१६ ) एवं सन्दर्शिता हाङ्ग” इत्यादि वाक्य के द्वारा ।
श्रीभगवान् - ऐश्वर्य ज्ञानी भक्त वृन्द को यह दाम बन्धनादि लीला के द्वारा निज भक्तवश्यता को सम्यक् रूप से प्रदर्शन किये हैं । इस प्रकार भक्त वश्यता स्वभाव की श्रीशुक देव ने विविधस्थानों प्रशंसा की है। अतएव अद्यापि जो सब भक्त, व्रजवासी जनगण के रागानुगत होकर भजन करते रहते हैं, उन सब की उपासना, श्रीव्रजेन्द्रनन्दनत्वादि मात्र धर्म के सहित करनी चाहिये । अर्थात् भगवत् बुद्धि से उपासना करना, व्रज रागानुगीय भक्त के पक्ष में विरुद्ध है । जिस प्रकार गोवर्द्धन धारण लीला में विस्मय प्राप्त गोष गण के प्रति स्वयं भगवान् कहे हैं-विष्णु पुराण (५।१३ । ११ ) में
[[६६०]]
“नाहं देवो न गन्धर्ध्वो न यक्षो न च दानवः ।
अहं वो बान्धवो जातो नानश्चिन्त्यमतोऽन्यथा ॥ " १०४२ ॥ इति ।
(भा० १०।३।४५) “युवां मां पुत्रभावेन ब्रह्मभावेन वासकृत्” इत्यत्र तु श्रीवसुदेवादीनामैश्वर्य्य- ज्ञानप्रधानत्वाद्द्द्वयात्मिकैव भगवदनुमतिर्ज्ञेया । प्राग्जन्मन्यपि तयोस्तपआदि–प्रधानैव भक्तिरुक्ता अतः श्रीव्रजेश्वर्याः पुनस्तन्मुखदृष्टवैभवत्वमश्लाघित्वा पुत्रस्नेहमयीं मायाद्यक- पर्य्यायां तत्कृपामेव बहुमन्यमानस्तादृशभाग्यश्च श्रीवसुदेवादिकयोर्नास्तीति विस्पष्यन् तस्याः श्रीव्रजेश्वरस्य च भाग्यं तादृश वाल्यलीलोच्छल्यमान पुत्रभावेन राजमानमतिश्लाघितवान् राजा, (भा० १०१८४६) - " नन्दः किमकरोद्- ब्रह्मन्” इत्यादि-द्वयेन, श्रीमुनिराजश्च तादृश-
“यदि वोऽस्ति मयि प्रीतिः, श्लाघ्योऽहं भवतां यदि
मुझ
तदात्मबन्धु सदृशी बुद्धिर्वः क्रियतां मयि ॥ १०४१ ॥
तदाचच बन्धु सदृशी बान्धवाः क्रियतां मयि ॥” इति वा पाठः तथा विष्णु पुराण में ( ५। १३ । १२)
“नाहं देवो न गन्धर्वो न यक्षो नच दानवः ॥”
अहं वो बान्धवो जातो नातश्चिन्त्यमतोऽन्यथा ॥ " १०४२ ॥
यदि मेरे प्रति तुम्हारी प्रीति हो, तो, और मैं यदि तुम्हारे आदरणीय हूँ, तो, मेरे प्रति निज बन्धु सदृश आचरण करो । कहींपर - “ऐसा होने पर - हे बान्धव वृन्द ! निज बन्धु सदृशी पूजा ही मेरी करें” इस प्रकार अर्थ सूचक पाठ भी दृष्ट होता है। श्रीकृष्ण ने और भी कहा है- “मैं देवता नहीं हूँ । गन्धर्व वहीं हूँ, यक्ष नहीं है, दानव नहीं हूँ, मैं तुम्हारे कुल में उत्पन्न हूँ एवं बान्धव हूँ।, इस को छोड़कर मेरे विषय में अपर कुछ भी चिन्ता मेरे विषय में न करें । भ० १०।३।४५ में कहा है- “युवां मां पुत्र भावेन ब्रह्म भावेन वासकृत् " श्रीवसुदेव देवकी में ऐश्वर्थ्य ज्ञान का प्राधान्य था, - तज्जन्य कहा है- तुम दोनों को पुत्र भाव से अथवा ब्रह्म भाव से स्नेह पूर्ण हृदय में नियत चिन्ता करते करते निज परम अभीष्ट आस्वादन को प्राप्त करोगे” इस में भगवान् की अनुमति द्विविध हैं, पृष्णि, सुतपा, कश्यप, अदिति–पूर्व जन्म में भी तपः प्रभृति प्रधान भक्ति कथा भी कही गई है । अतएव श्रीव्रजेश्वरी का पुनर्वार-अर्थात् एक वार जृम्भा परित्याग करने के समय में अङ्क में शायित श्रीकृष्ण वदन में विश्व दर्शन, द्वितीय वार, मद् भक्षण के समय श्रीकृष्ण मुख में विश्व दर्शन रूप वैभव की प्रशंसा न करके ही पुत्र स्नेह मयी कृपा का ही अपर नाम, माया को ही महत्त्व प्रदान कर, एवं यह श्रीव्रजेश्वरी के समान सौभाग्य श्रीवसुदेव देवकी का नहीं है, सुस्पष्ट रूप से इस का उल्लेख करके श्रीव्रजेश्वरी एवं श्रीव्रजराज के तादृश उच्छलित पुत्रभाव के सहित विराजमान सौभाग्य की प्रशंसा महाराज परीक्षित ने अतिशय रूप से की है । भा० १०१८ ४६-४७ श्लोक द्वय में उस का निदर्शन है ।
“नन्दः किमकरोद् ब्रह्मन् श्रेय एवं महोदयम् । यशोदा वा महाभागा पपौ यस्याः स्तनं हरिः ॥’
पितरौ नान्वविन्देतां पुत्र दारार्भके हितम् । गायन्त्यद्यापि कवयो यत्लोक शमलापहम् ॥”
श्रीपरीक्षित् महाराज श्रीशुक देव को पूछे थे - " हे सर्व वेद तत्त्व ! महाराज नन्द ने ऐसा कौन श्रेयः साधन किया था, जिस से श्रीकृष्ण के प्रति पूर्वोक्त पुत्र स्नेह अतुलनीय उत्कर्ष मण्डित हुआ था ?
भौभक्तिसन्दर्भः
[[६६१]]
तत् प्रेमैव श्लाघितवान्, (भा० १०/६११६) - “एवं सन्दर्शिता ह्यङ्ग हरिणा” इत्यादिना । तदेवं श्रीवसुदेव-देवक्यावुपलक्ष्य श्रीनारदोऽपि साधकान् प्रति ( भा० १११५ ४७) - “दर्शनालिङ्गनालापैः ’ इत्यादिना यदुपदिष्टवान्, तत्र टीका च यथा - “धुनोपलालनेनैव भागवत धर्म सर्व्वस्व निष्पत्तेः” इत्येषा, तथा (भा० ११२५/४६) “भापत्यबुद्धिकृथाः कृष्णे सर्व्वेश्वरेश्वरे” इत्येतदपि तदविरोधेन टोकायामेवमवतारितम्, यथा, - “ननु पुत्रस्नेहश्च मोक्ष हेतुस्तर्हि सर्वेऽपि मुच्येरन् ? तत्राह - मापत्यबुद्धिमिति” इत्येतत् । तस्मिन्नपत्यत्वं प्राप्तऽपि तस्मिन् तादृश– भावन वशं गतेऽप्यस्ति स्वाभाविक पारमैश्वर्य्यमधिकमिति भावः । यद्वा, पूवार्थोऽडागमः, किन्त्वकारो निषेधे, “अभावे न ह्य नो न” इति शब्दकोषात्, तत्तो निषेधद्वयादपत्यबुद्धिमेव कुवित्यर्थः । अतएव ज्ञानाज्ञानयोरनादरेण केवलरागानुगाया एवानुष्ठितिः प्रशस्ता,
श्रीनन्द महाराज से भं श्रीयशोदा का सौभाग्य अत्यधिक है । कारण, श्रीहरि- उनका स्तन्य पान किये थे । लोक शास्त्र विख्यात पिता माता श्रीवसुदेव देवकी भी एतादृश बाल्य चरित्र को अनुभव नहीं किये थे । अद्यादि श्रीकृष्ण द्वपायन प्रमुख महानुभव गण जिस बाल्य लीला सुधा का गान परम आवश से करते रहते हैं। जिस को सुन कर वहिर्मुख जनगण की श्री भगवद् वहिर्मुखता विदूरित होकर श्रीभगवान् में प्रीति का उदय होता है ॥” इस रीति से महाराज परीक्षित् श्रीब्रजराज व्रजेश्वरी के विशुद्ध भाव की प्रशंसा किये थे। निखिल मुनिगण मुकुटमणि श्रीशुकदेव ने भी श्रीव्रजराज - व्रजेश्वरी के ऐश्वर्य्य गन्ध शून्य विशुद्ध वात्सल्य प्रेम की प्रशंसा “एवं सन्दशिताह्यङ्ग” प्रभृति श्लोकों के द्वारा की है । ऐसा होने पर पूर्वोक्त प्रकार से श्रोवसुदेव देवकी को उपलक्ष्य करके श्रीनारद ने भी साधकों के निमित्त (भा० ११।५।४७) “दर्शनालिङ्गनालापैः प्रभृति के द्वारा जो उपदेश किया है- “हे श्रीवसुदेव ! अपर पर भागवत वृन्द, - श्रीभगवान् में सर्व कर्म समर्पण रूप भागवद्धर्म के द्वारा जिस प्रकार चित्त शुद्ध को प्राप्त करते हैं, उस प्रकार भागवद्धर्म अनुष्ठान के द्वारा चित्त शुद्धि सम्पादन की आवश्यकता तुम्हारी नहीं है, कारण, दर्शन, आलिङ्गन, आलाप, शयन, उपवेशन, एवं भोजन प्रभृति के द्वारा अनवरत श्रीकृष्ण में जो पुत्र स्नेह करते रहते हो, उस से ही तुम्हारे देहेन्द्रिय मन, आत्मा का सम्यक् शोधन सम्पादित हुआ है। कारण, श्रीकृष्ण के प्रति यह पुत्र स्नेह ही भागवद् धर्म का सार सर्वस्व है । श्रीधर स्वामिपाद ने भी निज कृत टीका में इस का उल्लेख किया है - “पुत्रोपलालनेनैव भगवद्धर्म सव्वस्व निष्पत्तेः” । अनन्तर श्रीनारद ने भी भा० १०।५।४६ में कहा है- “मापत्य बुद्धिमकृथाः कृष्णे सर्वेश्वरेश्वरे” “सर्वेश्वर श्रीकृष्ण में अपत्य बुद्धि न करो” यहाँपर पूर्व वणित पुत्र स्नेह के अविरोध मे ही टीका में इस प्रकार अवतारणा उन्होंने की है- " ननु पुत्र स्नेहश्चेन्मोक्ष हेतु स्तहिसर्वेऽपि मुच्येरन् ? तत्राह मापत्यबुद्धिमिति” । यदि पुत्र स्नेह हो मोक्ष हेतु होता है तो सभी मुक्त हो जायेंगे ? उस के उत्तर में कहा, श्रीकृष्ण सर्वेश्वरेश्वर हैं । उन को अपत्य रूप में प्राप्त करने पर भी एवं आप स्वयं अपत्य भावना से वशीभूत होने पर भी उनका स्वाभाविक पारमैश्वर्य्य अधिक रूप से ही विद्यमान है । अर्थात् यद्यपि श्रीकृष्ण, को पुत्र रूप में प्राप्त किये हैं । एवं श्रीकृष्ण तुम्हारे पुत्र स्नेह वशीभूत हैं, तथापि अग्नि की स्वाभाविक उष्णता शक्ति के समान श्रीभगवान् में अप्रतिहत ऐश्वर्य सर्वदा विद्यमान है । अतएव सर्वोश्वर श्रीकृष्ण में पुत्रादि स्नेह मोक्ष हेतु है । देहाभिमानी जीव, सर्वथा मायाधीन होने के कारण, पुत्रादि के प्रति पुत्रस्नेह प्रभृति मोक्ष हेतु न होकर मायामय बन्धन ही उस से होता है । अथवा “मापत्य बुद्धिमकृथाः” यहाँ ‘मा’ अव्यय योग से अकृथाः " यह अड़ागम होना असङ्गत
है-
[[६६२]]
(भा० ११।११।३३) “ज्ञात्वाज्ञात्वाथ ये वै माम्” इत्यादिना । तस्मात् श्रीगोकुल एव रागात्मिकायाः शुद्धत्वात्, तदनुगा भक्तिरेव मुख्यतमेति साध्वेवोक्तम् । तदेव मन्य ब्रासम्भवतया रागानुगामाहात्म्यदृष्टया पूर्णभगवत्ता- दृष्ट्या च श्रीकृष्ण भजनस्य माहात्म्यं महदेव सिद्धम्, तत्रापि श्रीगोकुल- लीलात्मकस्य ।
अथ तद्द्भजनमात्रस्य माहात्म्यमुपक्ष मत एव यथा (भा० १ २१५)
“मुनयः साधु पृष्टोऽहं भवद्भिर्लोकमङ्गलम् ।
यत्कृतः कृष्णसंप्रश्नो येनात्मा सुप्रसीदति ।” १०४३ ॥ इति ।
तत्रैतद्वक्तव्यम् - पूर्व मनसः सुप्रसाद हेतुः पृष्टः, अनेन तु श्रीकृष्णप्रश्नमात्रस्य तद्धेतुतोता,
होने पर भी आर्ष अर्थात् ऋषि वाक्य हेतु स्वीकृत है। इस प्रकार उल्लेख पहले भी हुआ है । किन्तु ‘अकृथाः’ में अकार निषेध वाची है ।
कारण, कोषकार के मत में अ, मा, न, नो, ना’ निषेध वाची है । अतएव ‘मा’ पद यहाँ निषेध वाची है । एवं’ ‘अकृताः’ पदस्थित ‘अ’ भी निषेधार्थक है । अतएक “द्वौ नञौ स्वीकृतार्थं द्योतयतः " अर्थात् नञ्द्रय स्वीकृतार्थ का बोधक हैं। अतः यहाँ ‘हे वसुदेव देवकि ! सर्वेश्वर श्रीकृष्ण में तुम सर्वथ पुत्र बुद्धि हो करो” यह कहा गया है । अतएव भगवान् को भगवान् जानकर अथवा भगवान् न जानकर– इस के प्रति आदर न करके केवल रागानुगा भक्ति का अनुहान करना ही प्रशस्त है । भा० ११।११।३३ में कथित है- “ज्ञात्वाज्ञात्वाय ये व माम् ।” इस में उक्तार्थ प्रकाशित है। अतएव श्रीगोकुल में ही रामात्मिका भक्ति का व्यवहार - ऐश्वय्यं ज्ञान शून्य पुत्र, सखा, कान्ता भाव-विशुद्ध रूप में विद्यमान होने के कारण, राणात्मिका की अनुगा भक्ति ही मुख्यतमा है, इस का कथन सुन्दर रूप से हुआ है ।
अतएव पूर्वोक्त रीति से अन्यत्र विशुद्ध रामात्मिका की सम्भावना न होने के कारण, रागानुगा– माहात्म्य दृष्टि से ही, अनन्ता श्रीभगवान् की पूर्ण भगदसा दृष्टि से हो, श्रीकृष्ण भजन का माहात्म्य सर्व श्रेष्ठ है । तन्मध्ये भी श्रीगोकुल लीला विलासी श्रीकृष्ण भजन का माहात्म्य की जिज्ञासा श्रीसूत के समीप में श्रीमद्भागवत के उपक्रम में श्रीशौनकादि ऋषि दृग्द किये थे । (भा० ११२१५ ) में उक्त है-
“मुनयः साधु पृष्टोऽहं भवद्भिर्लोकमङ्गलम् ।
यत्कृतः कृष्णसंप्रश्नो येनात्मा सुप्रसीदति ॥११०४३।
हुआ
उत्तर में श्रीसूत कहे थे - हे मुनिगण ! आप के कर्तृक मैं अति पवित्र विषय में जिज्ञासित हैं। यह जिज्ञासा ही लोक मङ्गलकर है । कारण, आप सबने श्रीकृष्ण विषयक प्रश्न किया है। श्रीकृष्ण विषयक जिस प्रश्न के द्वारा चित्त सुप्रसन्न होता है । यहाँ पर कहना यह है कि - पहले मुनिवृन्द ने श्रीसूत को पूछा था कि - किस उपाय से मनः प्रसन्न होता है ? श्रीतने उत्तर में किन्तु श्रीवृ ष्ण विषयक प्रश्न को ही मनः प्रसन्न होने का एक मात्र कारण कहा था । किन्तु भा० ११२।६ में उक्त “सर्व पुंसां परोधर्मः” वही मानव मात्र के पक्ष में परम धर्म है, जिस से अधोक्षज भगवान् में रुचि लक्षणा भक्ति का उदय होता है । अनन्तर उक्त प्रकरण में उक्त है-अतिशय प्रयत्न पूर्वक कर्मार्पण से आरम्भ कर भक्ति में निष्ठा से आरम्भ कर भावोदय होने से श्रीराम, श्रीनृसिंह, वामन प्रभृति भगवदवतार का भजन के द्वारा चित्त शुद्धि होती है, इस प्रकार कहा गया है। श्रीकृष्ण भजन किन्तु उस प्रकार नहीं है। इस प्रसङ्ग का तात्पर्य्य
श्रीभक्तिसदर्भः
[[६६३]]
न तु (भा० ११२२६) “स वै पु ंसां परो धर्मः” इत्यादिना तदीयानन्तरप्रकरणे यथा महता प्रयत्नेन कर्मर्पणमारभ्य भक्तिनिष्ठापर्य्यन्त एव जाते प्रादुर्भावान्तरभजनस्य तद्धेतुतोक्ता, तथेति । अतएवावतारान्तरकथाया अपि तदभिनिवेश एव फलमित्याह (भा० २८२)
(३२५) “हरे रद्भुतवीर्य्यस्य कथा लोकसुमङ्गलाः ।
कथयस्व महाभाग यथाहमखिलात्मनि
कृष्णे निवेश्य निःसङ्ग मनस्त्यक्ष्ये कलेवरम् ॥” १०४४ ॥ इति ।
हरेस्तदवताररूपस्य, अखिलात्मनि सर्व्वाशिनि कृष्णे श्रीमदर्जुनसखे ॥ राजा ॥