५६७ ३२४
तदेवं भावमार्गसामान्यस्यैव बलवत्वेऽपि कैमुख्येन रागानुगायामेवाभिधेयत्वमाह, ( भा० ११/५/४८ )
(३२३) “वैरेण यं नृपतयः शिशुपाल - शाल्व-
पौण्ड्रादयो गतिविलास-विलोकनाद्यैः ।
ध्यायन्त आकृतिधियः शयनासनादौ
(FFF)
तद्भाव मापुरनुरक्त धियां पुनः किम् ॥” १०३५॥
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आकृतिधियस्तत्तदाकारा धीर्येषाम् । एवमेवोक्तं गारुड़ -
“अज्ञानिनः सुरवरं समधिक्षिपन्तो, यं पापिनोऽपि शिशुपाल–सुयोधन द्याः ।
मुक्ति गताः स्मरणमात्रविधूतपायाः कः सशयः परमभत्ति मतां जनानाम् ॥ " १०३६ ॥ इति । अतः (भा• ७।१।२६) “यथा वैरानुबन्धेन” इत्यत्र वैरानुबन्धस्य सर्वत आधिक्यं न योजनीयम् ।
यच्च, (भा० ३।१६।३१) -
५६८ ३२४
अतएव पूर्वोक्त प्रकार से समस्त भाव मार्ग की बलवत्ता विद्यमान होने पर भी रम्गानुग भक्ति का अभिधेयत्व को श्रीदेवर्षि नारद ने श्रीवसुदेव को भा० ११०५०४८ में कहा है ।
(३२४) “वरेण यं नृपतयः शिशुपाल शाल्व
पौण्ड्रादयो गति विलास विलोकनाद्यः ।
ध्यायन्त आकृति धियः शयनाशनादौ
तद्भावमापुरनुरक्तथियां पुनः किम् ॥ १०३५॥
टोका - एतदेव कंमुत्यन्यायेन स्फुटयति वरेणेति । यं शयनाशनादौ व रेणापि ध्यायन्तस्तस्य गल्ति विलासाद्य राकृति धियस्तत्तदाकाराधीयां ते नतु सारूप्यमाषुः किं पुनर्वक्तव्यम् अनुरक्तधियां तत्साम्बं भवतीति ।
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हे वसुदेव ! शिशुपाल शाहव पौण्ड्र प्रभृति राजन्यवृन्द, - वैरभाव से जिनका ध्यान, गति, विलास, विलोकनादि के सहित करते करते शयन, आसन, पर्यटन प्रभृति अवस्था में श्रीकृष्णाकाराकारित चित्त होकर श्रीकृष्ण सारूप्य मुक्ति को प्राप्त किये थे, उन श्रीकृष्ण में जो लोक अनुरक्त चित्त हैं, वे जो अभीष्टह गति को प्राप्त करेंगे — इस विषय में अधिक कहना ही क्या है ? इस प्रकार उल्लेख गरुड़ पुराण में भी है-
“अज्ञानिनः सुरवरं समधिक्षिपन्तो,
यं पापिनोऽपि शिशुपाल सुयोधनाद्याः ।
मुक्ति गताः स्मरणमात्र विधूतपापाः,
कः संशयः परमभक्तिमतां जनानाम् ॥ १०३६॥
अज्ञानी शिशुपाल दुर्योधन प्रभृति पापीगण भी, देवाराध्य श्रीकृष्ण की निन्दा करते करते स्मरण मात्र प्रभाव से विद्युत पाप होकर मुक्ति को प्राप्त किये थे । उन श्रीकृष्ण में परम भक्ति मान् जन जो अभीष्ट गति को प्राप्त करेंगे - इस विषय में सन्देह है ही कहाँ ? अतएव (भा० ७ ११२६ ) में उक्त है- “यथा व रानुबन्धेन” । इस में समस्त भावों से वैरानुबन्ध को श्रेष्ठतास्थापित नहीं हुई है । अर्थात्
“मयि संरम्भयोगेन निस्तीर्थं ब्रह्महेलनम् ।
प्रत्येष्यतं निकाशं मे कालेनाल्पीयसा पुनः ॥ १०३७ ॥
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इति जय-विजयौ प्रति वैकुण्ठवचनम्, तदपि तदपराधाभास भोगार्थमेव संरम्भयोगाभासं विधते, - तत् प्राप्तेस्तयोः स्वाभाविक सिद्धत्वात्, युद्धलीलार्थमेव तत्प्रपञ्चनात् । अन द्वशेषादावपि केचिद्भक्तित्वं मन्यन्ते, तदसत्, ‘भक्ति-सेवादि’ शब्दानामानुकूल्य एव प्रसिद्धेः, वैरे तद्विरोधित्वेन तदसिद्धेश्च । पाद्मोत्तरखण्डे च भक्ति-द्वेषादीनाञ्च भेदोऽवगम्यते, - “ योगिभिर्ह इयते भक्तया नाभक्तया दृश्यते क्वचित् । द्रष्टुं न शक्यो रोषाञ्च मत्सराच्च जनार्द्दनः ॥ १०३८
इत्यत्र च । ननु, (भा० ३।२।२४) - " मन्येऽसुरान् भागवतान्” इत्यादौ श्रीमदुद्धव- वाक्ये वरानुबन्ध की तीव्रता से मानव जिस प्रकार तन्मयता को प्राप्त करता है, उस प्रकार तन्मयता प्राप्त करना भक्ति योग से सम्भव नहीं है । इस प्रकार उक्ति के सारार्थ से निखिल भक्ति भाव से वैरानुबन्ध की श्रेष्ठता को मानना समीचीन नहीं है । भा० ३।१६।३० में
जय विजय के प्रति श्रीभगवान् जो कहे थे-
“मयि संरम्भयोगेन निस्तीयं ब्रह्महेलनम् ।
प्रत्येष्यतं निकाशं मे कालेनाल्पीयसा पुनः ॥ १०३७॥
हे जय विजय ! मेरे प्रति वरान् बन्ध के आवेश से ब्राह्मण अपराध से उत्तीर्ण होकर अल्काल के मध्य में ही पुनर्वार मेरे निकट में प्रत्यावर्तन करोगे” । यहाँ ब्राह्मण अमर्य्यादा जनित अपराधाभास को भोग कराने के निमित्त हो वैरानुबन्ध का आभास विहित हुआ है । अर्थात् श्रीसनकादि ऋषि वृन्द की अमर्य्यादा करने के कारण जय विजय का जो अपराध सञ्चित हुआ था, वह वस्तुतः अपराध नहीं था । कारण, वे दोनों वकुण्ठ के द्वार पाल थे । ‘नग्न अवस्था में व कुण्ठ धाममें कोई प्रवेश न करे, प्रभु के इस प्रकार आदेशानुवर्ती होकर ही उन्होंने सनकादि को वेत्र के द्वारा द्वार अवरोध किया था। अतएव वह अपराधाभास है । एवं उस अपराधाभास के फल भोग हेतु द्वेषाभास विहित है । अर्थात् वस्तुतः द्वेष नहीं है, किन्तु द्वेषका अनुकरण मात्र है। इस का विशेष विवेचन प्रीति सन्दर्भ में हुआ है । जय विजय, सर्वभक्त सुखद श्रीभगवदभिमत युद्ध कौतुक सम्पादन हेतु वरभावात्मक मायिक देह में स्वाभाविक अणिमादि सिद्धि युक्त शुद्ध सत्त्वात्मक निज विग्रह द्वारा प्रवेश करके निज निज सान्निध्य द्वारा अचेतन को चेतन करके भक्ति वासना विलीन होने पर भी तत् प्रभाव से उस देह में अविष्ट न होकर अर्थात् मायिक देह धर्म में लिप्त न होकर अवस्थान करते थे । अतएव वैरभाव सम्भूत भगवत् स्मरण द्वारा उनका वैरीभाव विदूरित हुआ था । यह दोनों हो वाह्निक हैं। यह ज्ञातव्य यह है कि-वैरभावात्मक माघिक देह सम्बन्ध हेतु उन में वैरभाव व्यक्त हुआ था । श्रीभगवान् का युद्ध कौतुक निर्वाह के बाद वह देह सम्बन्ध विनष्ट हो गया था। वे दोनों नित्य पार्षद होने के कारण - नित्य प्रेमवान् हैं । प्रेम पूर्ण चित्त में वैरभाव का उदय होना असम्भव है । वाह्निक देह सम्बन्ध से वह भावसहकृत स्मरण एवं उस भाव का विलय, एतदुभय ही वालिक हैं, सार कथा यह है कि-श्रीजय विजय का ब्राह्मण अवमानन हेतु जो अपराध हुआ था, उसका ही फल दुःखानुबन्ध रूप वैरानुबन्ध है । अनएव वैरानुबन्ध में अपराधाभास का फल दुःख भोग रूप करके भगवान् में उस का विधान करना कर्म भी समीचीन नहीं हो सकता है। विशेषतः, जय विजय को भगवत् प्राप्ति स्वाभाविक ही है, तज्जन्य युद्ध लीला हेतु तादृश वर भाव का आवेशाकास प्रकाश हुआ था। इस
अ
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तेषामपि भागवतत्वं निर्दिश्यते ? मेवम्, यतः ‘मन्ये’ इत्यनेनोत्प्रेक्षावगमात् न स्वयं भागवतत्वं तत्रास्तीत्येवं सिध्यतीति । सा चोत्प्रेक्षा तेन तच्छोकोत्कण्ठयवता के बलदर्शन- भाग्यांशेनैव रचिता युक्तैव, यथा- हन्त वयमेव तद्बहिर्मुखाः, येषामन्तिमसमये तन्मुखचन्द्रमसो दर्शनसम्भावनापि न विद्यते, येभ्यश्चासुरा अपि भागवताः, ये खलु तदानों तन्मुख- चन्द्रमसो दर्शनसौभाग्य प्रापुरिति, तस्मान्न द्वषादौ कथञ्चिदपि भक्तित्वम् ॥ श्रीनारदः श्रीवसुदेवम् ॥
प्रकार द्वेषादि में भी कतिपय व्यक्ति भक्तित्व स्वीकार करते हैं । वह अतीव असङ्गत होने के कारण अत्यन्त असङ्गत हेतु असत् है । कारण, भक्ति, सेवा, प्रभृति शब्द श्रीभगवान् के आनुकूल्य में सुप्रसिद्ध हैं, किन्तु वरता में सुखानुकूलन की विरोधिता विद्यमान होने के कारण, वह भक्ति, सेवादि शब्द से अभिन्न
वर्णित है। नहीं होती है । पाद्मोत्तर खण्ड में भक्ति के सहिन द्व ेषादि का भेद सुस्पष्ट वर्णित है ।
“योगिभिर्दृश्यते भक्तया नाभक्तचा दृश्यते क्वचित् ।
द्रष्टुं न शक्यो रोषाच्च मत्सराच्च जनार्द्दनः ॥ १०३८ ॥
योगिगण, भक्ति नेत्र से श्रीभगवान् का दर्शन करते हैं। भक्ति हीन नयनों से कभी भी भगवान् दृष्ट नहीं होते हैं । इस प्रकार प्रमाण के द्वारा—भक्ति एवं द्वेष का पारस्परिक विभेद सुस्पष्ट हुआ है :
कतिपय व्यक्ति मानते हैं कि- भा० ३।२।२४ में ‘मन्येऽसुरान् भागवतान् " उक्ति के अनुसार असुर को भी भागवत संज्ञा से अभिहित किया गया है ।
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श्रीउद्धव विदुर को कहे थे-
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“मन्येऽसुरान् भागवतां त्र्यधीशे संरम्भ भार्गाभिनिविष्टचित्तान् । ये संयुगेऽचक्षत त पुत्रमंसे सुनाभायुधमापतन्तम् ॥”
विदुर ! आप मन में कर सकते हैं कि श्रीभगवान् भागवत गण को ही अनुग्रह करते हैं, शास्त्र में इस का प्रसिद्ध उदाहरण है । किन्तु असुरगण की अनुग्रह करते हैं, इस को प्रसिद्धि नहीं है । यह सत्य है, किन्तु मैं मानता हूँ कि - असुरगण भी परमभागवत हैं । कारण, भागवत वृन्द के समान वे भी भगवत् ध्यान के अभिनेवेश से भगवत् साक्षात् दर्शन करते हैं । कारण, वे क्रोधावेश से त्रिगुण मायानियन्ता श्रीभगवान् में अभिनिविष्ट चित्त होने के कारण युद्धस्थल में कश्यप पुत्र गरुड़ के स्कन्ध देश में आविर्भूत चक्रायुध श्रीहरि का साक्षाद् दर्शन किये थे । श्रीउद्धव के वाक्य में भगवत् विद्वेषी असुर वृन्द को भागवत कहा गया है। उस के उत्तर में कहते हैं- “मैवम्” अर्थात् इस प्रकार सिद्धान्त कभी भी युक्ति सङ्गत नहीं हो सकता है । कारण, श्रीउद्धव ने कहा है- ‘मन्ये’ अर्थात् मेरे मन में यह वात उठती है कि-असुर गण भी भागवत हैं। इस प्रकार उक्ति से उत्प्रेक्षा का ही बोध होता है । वस्तुतः उस असुर वृन्द में भागवतत्व नहीं है। यदि होता तो, ‘मन्ये’ मैं मानता हूँ, इस प्रकार उक्ति नहीं होती । वह उत्प्रेक्षा भी, श्रीकृष्ण विरह जनित शोक से भगवद् दर्शन हेतु उत्कण्ठायुक्त होकर भगवद् विद्वेषी वृन्द के केवल भगवद् दर्शन ही मन सौभाग्य अंश में ही भागवतत्व आरोप किया गया है। जिस प्रकार अक्षेप करके श्रीउद्धव मन सोच रहे थे, “हा धिक् ! हम भगवद् वहिर्मुख हैं, अन्तिम समय में भी श्रीकृष्ण के मुख चन्द्रमा की दर्शन सम्भावना भी नहीं है । हमारी अपेक्षा असुर वृन्द भागवत हैं, जिन्होंने अन्तिम समय में श्रीकृष्ण मुख चन्द्रमा का दर्शन सौभाग्य प्राप्त किया है ।” इस प्रकार भाव से ही असुर गण को भागवत रूथ में उन्होंने
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