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यस्मादेवम् (भा० ७।११३१) -

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(३२३) “तस्मात् केनाप्युपायेन मनः कृष्णे निवेशयेत्” इति ।

अत्रापि पूर्ववनिवेशयेदिति सम्मतिमात्रम्, न विधिः । केनापि तेष्वप्युपायेषु युक्तत मे- नैकेनेत्यर्थः, अहो यस्तादृश-बहु प्रयत्नसाध्य- वैधभक्तिमार्गेण चिरात् साध्यते स एवाचिराद्- भावविशेषमात्रेण, तत्र च द्व ेषादिनापि, तस्मादेवम्भूते परमसद्गुणस्वभावे तस्मिन् दूरेऽस्तु पामरजनभावस्य वैरस्य वार्त्ता, को वाधम औदास्यमवलम्ब्य प्रीतिमपि न कुर्य्यादिति रागानुगायामेव तच्च युक्ततमत्वमङ्गीकृतं भवति ॥ श्रीनारदः श्रीयुधिष्ठिरम् ।

है - “ये वै भगवता प्रोक्ताः " भागवत धर्म लक्षण वर्णन प्रसङ्ग में श्रीकवियोगोन्द्र निमिमहाराज को कहे थे - हे राजन् ! भगवान् स्वयं अपने को प्राप्त कराने के निमित्त जो उपाय कहे हैं, वह उपाय भागवत धर्म के स्वरूप लक्षण है । एवं भगवत् प्राप्ति उस भागवद् धर्म का असाधारण फल वा तटस्थ लक्षण है । इत्यादि वाक्य की अलक्ष्य लक्षण गमन रूप अतिव्याप्ति नहीं होती है। कारण - भगवान् का अनभिप्रेत होने के कारण, ‘मुझ को द्वेष करने पर भी मुझ को प्राप्त कर सकता है’- इस प्रकार उन्होंने नहीं कहा है ॥७२२ ॥

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कारण पूर्वोक्त प्रकार से ही श्रीभगवान् में आवेश होता है । एवं उस आवेश के फल से ही अभीष्टा गति मिलती है। सुतरां कहते हैं-भा० ७।१।३१

(३२३) “तस्मात् केनाप्युपायेन मनः कृष्णे निवेशयेत्”

अतएव जिस किसी उपाय से श्रीकृष्ण में मन का अभिनिवेश करना चाहिये । यहाँ पर भी पूर्ववत् ‘निवेशयेत्’ पद के द्वारा सम्मति प्रकट हुई है। किन्तु यह विधान नहीं किया गया है। कारण, मनोनिवेश के प्रति विधि नहीं हो सकती है । कारण, अभिनिवेश हृदय धर्म है, उस में कर्त्तव्यता का उपदेश हो ही नहीं सकता है. तब जो ‘केनापि’ अर्थात् किसी भी उपायों से मनो निवेश करे, कहा गया है, उस से समझना होगा कि- पूर्वोक्त उपाय समूह के मध्य में युक्त तम किसी एक उपाय के द्वारा मनोनिवेश करे । इस प्रकार अर्थ ही समीचीन है, अहो ! चिरकाल यावत् बहु प्रयत्न साध्य वैधी भक्ति मार्गानुष्ठान के द्वारा जो आवेश लाभ नहीं हो सकता है, वह भाव विशेष भाव से ही अचिरकाल में ही प्राप्त हो जाता है । तन्मध्ये द्वेषादि के द्वारा भी वह आवेश लाभ हो सकता है । अतएव एवम्भूत परमसद् गुण स्वभाव उन श्रीभगवान् में पामर जन भाव्य वैरभाव को कथा तो दूर है, ऐसा कौन अधर्म व्यक्ति होगा कि उन श्रीभगवान् में औदास्य अवलम्बन कर प्रीति न करके भी रह सकता है ? इस रीति से श्रीभगवान् में रागानुगा भक्ति का ही युक्त तमाव स्वीकृत हुआ है । अर्थात् श्रीभगवान् इस प्रकार परम कल्याण मय स्वभाव विशिष्ट हैं कि उन में भक्ति करना ही युक्ति युक्त है, उस में भी रागानुगा भक्ति ही युक्ततम हैं । इस प्रकार अभिप्राय को हो “तस्मात् केनाप्युपायेन” श्लोक के द्वारा प्रकाश किया गया है ।

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श्रीनारद श्रीयुधिष्ठिर को कहे थे ॥ ३२३ ॥

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श्रीभक्ति सन्दर्भः