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यदि द्वेषेणापि सिद्धिस्तहि वेणः किमिति नरके पातित इत्याशक्तचाह, (भा० ७ ११३१)
(३२२) “कतमोऽपि न वेणः स्यात् पश्चानां पुरुषं प्रति” इति ।
पुरुषं भगवन्तं प्रति लक्षीकृत्य पञ्चानां वैरानुबन्धादीनां मध्ये वेणः कतमोऽपि न स्यात् । तस्य तं प्रति प्रासङ्गिक- निन्दामात्रात्मकं वंरम्, न तु वैरानुबन्धः । ततस्तीव्रध्याना-
प्रभृति यादव वृन्द को पाण्डव शब्द से श्रीयुधिष्ठर महाशय प्रभृति को लक्ष्य करके कहा गया है । कारण, वे सब नित्य सिद्ध परिकर रूप में ही है। जो सब यादव एवं पाण्डव वृन्द के भाव के आनुगत्य से भजन करके उन के सम्बन्धान्वित परिजन रूप में जन्म ग्रहण किये हैं, उनकी ही जानना होगा । अतएव
उनके के सम्बन्ध जनित स्नेह एवं उस सम्बन्ध विशेष में अभिरुचि को समझना होगा । “भक्तद्यावयम्” अर्थात् हम सब भक्ति से सिद्धि प्राप्त किये हैं । यहाँ भक्ति शब्द से विहिता अर्थात् वैधीभक्ति को जानना होगा । कारण, इस वैधी भक्ति का ही प्रतिलब्ध रूप में भावमार्ग निर्देश करने के निमित्त उपक्रम किया गया है । अर्थात् शास्त्र शासनाधीन होकर भजन करते करते जब तक निज अभीष्ट देव में दास्यादि भाव का उदय नहीं होता है, तब तक ही कर्त्तव्य का अनुष्ठान एवं अकर्त्तव्य का वर्जनानुसन्धान से भजन करना पड़ता है । जिस समय निज अभीष्ट देव में भाव का आविर्भाव होता है । उस समय शास्त्राधीन होकर कर्त्तव्या कर्त्तव्य अनुसन्धान के द्वारा भजन नहीं करना पड़ता है । कारण, उस समय भाव ही कर्त्ता होकर कर्त्तव्य का अनुष्ठान एवं अकर्त्तव्य वर्जन स्वाभाविक रूप से करा देता है । सार कथा यह है कि - विधि अधीन होकर भजन का मुख्य लाभ है । निज अभीष्ट में भावोदय होना है । इस अभिप्राय से ही शवमार्ग के प्रकार भेद का निर्देश करने के निमित्त श्रीनारद उपक्रम किये हैं ॥ ३२१॥
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यहाँ प्रश्न हो सकता है कि-यदि द्वेष के द्वारा ही सिद्धि होती है तो, महाराज वेण को ब्राह्मण वृन्द ने नरक में निपातित क्यों किया ? इस आशङ्का परिहार हेतु भा० ७ ११३० में कहते हैं-
(३२२) “कतमोऽपि न वेणः स्यात् पञ्चानां पुरुषं प्रति'
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अर्थात् पुरुष - श्रीभगवान् को लक्ष्य करके प्रवृत्त वैरानुबन्ध प्रभृति पाँच के मध्य में महाराज वेण में किसी भी प्रकार नहीं था । कारण, उसका श्रीभगवान् के प्रति प्रसङ्ग क्रम से निन्दा मात्र स्वभाव वैरभाव था, किन्तु वैरानुबन्ध नहीं था। अतएव तीव्र ध्यानाभाव के कारण भगवन्निन्दा का प्रतिफल रूप पाप ही हुआ था । अतएव श्रीकृष्ण की आराधना करने के अभिलाषी देव तुल्य स्वभावाक्रान्त मानव वन्द के पक्ष में– मोक्षलाभेच्छु होकर भी श्रीभगवान् के प्रति वैरभावानुरूप अनुष्ठान करने का साहस करना सर्वथा असमीचीन है । यहाँ ततोऽसुरतुल्यस्वभावैरपि तस्मिन् स्वमोक्षार्थं वैरभावानुष्ठान साहस्रं न कर्त्तव्यमित्यभिप्रेतम्” अतएव असुर सदृश स्वभाव के द्वारा निज मोक्षलाभ हेतु भगवान् में वैरभाव करने का साहस कभी भी न करे । अर्थात् शिशुपाल प्रभृति का आशु मोक्ष भगवद् विद्वेष से हुआ था, यह सुन कर देव स्वभाव श्रीकृष्णाराधनेच्छ व्यक्ति की धारणा हो सकती कि - भक्ति भाव से श्रीकृष्ण में चित्त का आवेश कठिनता से होता है, किन्तु शत्रु भाव से चित्त का आदेश सत्वर हो जाता है, सुतरां शत्रु भाव आशु मोक्ष लाभ करेंगे- इस प्रकार साहस करना समीचीन नहीं है । अतएव भा० ११।२।३४ में कथित
से
श्रीभक्तिसन्दभः
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भावात् पापमेव तत्र प्रतिफलितमिति भावः । ततोऽसुर तुल्यत्वभावैरपि तस्मिन् स्वमोक्षार्थं वैरभावानुष्ठानसाहसं न कर्त्तव्यमित्यभिप्रेतम् । अतएव (भा० ११ ।२। ३४) - “ये वै भगवता
११.२।३४) प्रोक्ताः” इत्यादेरप्यतिव्याप्तिर्व्याहन्यते - अनभिप्रेतत्वेनाप्रोक्तत्वात् ॥