५६१ ३२१
अथो ‘बहवस्तद्गति गताः’ इत्यत्र निदर्शनमाह, (भा० ७११।३०)-
(३२१) “गोप्यः कामाद्भयात् कंसो द्वशेषाच्चैद्यादयो नृपाः ।
सम्बन्धाद्वृष्णयः स्नेहाद्यूयं भक्तघा वयं विभो ॥ " १०३३ ॥
योप्य इति साधक चरीणां गोपीविशेषाणां पूर्वावस्थामेवावलम्व्योच्यते - वयमिति । यथा श्रीनारदस्य हि (भा० ११६२६) “प्रयुज्यमाने - मयि तां शुद्धां भागवतीं तनुम्” इत्याद्य क्त- रीत्या पार्षद देहत्वे सिद्धे तेन स्वयं वयमिति पूर्वावस्था मेवावलम्व्योच्यते । तत्रैव वैधी भक्तिः । अधुना लब्धरायस्य तस्य ( भा० ११/२०/३६) - न मय्येकान्तभक्तानां गुणदोषोद्भवा गुणाः, "
श्रीभगवान् को भय एवं द्वेष करने से जो पाप होता है, वही आवेश सामर्थ्य से विनष्ट होता है ॥ ३२०॥
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अनन्तर अनेक व्यक्ति अभीष्ट गति को प्राप्त किये हैं- इस प्रकार पूर्वोल्लिखित विषय का दृष्टान्त उपस्थित करत हैं-
(३२१) “गोप्यः कामाद्भयात् कंसो द्वेषाच्चैद्यादयो नृपाः ।
सम्बन्धाद्वृष्णयः स्नेहाद्यूय भक्तधा वयं विभो ।” १०३३॥
काम भाव से गोपी गण, भय से कंस, द्वेष से चैद्यादि नृपतिवृन्द, सम्बन्ध से वृष्णि गण–यादव गण, स्नेह से युधिष्ठिर प्रभृति, एवं भक्ति से नारद प्रभृति अभीष्ट लाभ किये हैं । यहाँ गोपी शब्द से - जो सब व्यक्ति साधन करके गोपी देह लाभ किये थे । उन सब को जानना होगा । अतएव साधन सिद्ध व्यक्तियों की पूर्वावस्था को लक्ष्य करके उस प्रकार कहा गया है । जिस प्रकार भा० ११६ २६ में लिखित है-
“प्रयुज्यमाने मयि त्वां शुद्धां भागवतीं तनुम् ।” पूर्व जन्म में श्रीनारद दासी पुत्र थे, पश्चात् “प्रयुज्यमाने मयि त्वां’ उक्ति के अनुसार— देवर्षि नारद की श्रीभगवान् मायः गुण अस्पृष्ट विशुद्ध सत्त्वात्मक पार्षद देह में प्रवेश कराने से प्रारब्ध कर्म की परि समाप्ति जिस देह में हुई है-उस पाञ्च भौतिक देह का पतन हुआ था । अर्थात् पाञ्च भौतिक देह त्याग हुआ था। इस अभिप्राय से ही उक्त श्लोक में ‘वयं’ का प्रयोग हुआ है । इस प्रकार पूर्वावस्था को लक्ष्य करके ही उस प्रकार कहा गया है । देवर्षि नारद की दासी ‘पुत्र अवस्था में ही वैधी भक्ति थी, अधुना पार्षद देह लाभ के पश्चात् राग भक्ति हुई । कारण, ११.२० ३६ में उक्त है - “न मय्येकान्त भक्तानां गुण दोषोद् भवागुणः " श्रीभगवान् उद्धव को कहे थे - हे उद्धव ! मेरा एकान्त भक्तों के गुण अर्थात् शास्त्र विहित आचरण, दोष- अर्थात् शास्त्र निषिद्ध आचरण, गुण- पुण्य वा दोष-पापोत्पन्न नहीं होता है । कारण-किसी वस्तु विशेष में राग, द्वेष वा अभिनिवेश उनका नहीं है । अतएव वे समचित्त हैं, कारण, वे प्रकृत्यतीत परमेश्वर को प्राप्त किये हैं । जब तक विहित अनुष्ठान रूप गुण में एवं अविहित अनुष्ठान, रूप दोष में दृष्टि रहती है, तब तक ही दोष है । गुण किन्तु उभय वज्जित है । अर्थात् कर्तव्याकर्त्तव्य बुद्धि शून्य होकर स्वाभावाविक श्रीभगवदावेश है । इस रीति से ही देवर्षि नारद की पार्षद देह प्राप्ति के पश्चात् विधि को अधीनता शून्य रागात्मिका भक्ति हुई थी । इस अभिप्राय से ही “तद् गत गताः” इस प्रकार उक्ति के द्वारा, अर्थात् साधक चरी गोपी, कंस, शिशु पाल प्रभृति का फल - अर्थात् अभीष्टा गति रूप फल प्राप्ति में अतीत काल का प्रयोग हुआ है । इस रागानुगा प्रकार में उक्त साधक चरी गोपिका गण के समान आधुनिकी साधक चरी गण भी प्राप्त गोपी देह गोपी गण के गुणादि श्रवण के द्वारा ही गोपी भाव को प्राप्त कर सकते हैं । यही समझाया गया है । जिस प्रकार भा० १०ः६०।२६ में श्रीशुक मुनि ने कहा है-
श्रीभक्ति सन्दर्भः
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(भा० ११११६।४५) “गुणदोष-दृशिर्दोषो गुणस्तूभय वर्जितः” " इति न्यायेन विध्यनधीना रागात्मिकैव विराजत इति । अतएव ‘तद्गतिं गताः’ इति तेषां फलप्राप्तेरप्यतीतत्व निद्दशः । अत्र ता गोप्य इवाधुनिक्यश्च तद्गुणादि-श्रवणेनैव तद्द्भावा भवेयुः । यथोक्तम् (भा० १०/६०।२६)
“श्रुतमात्रोऽपि यः स्त्रीणां प्रसह्याकर्षते मनः ।
(or)
उरुगायोरुगीतो वा पश्यन्तीनां कुतः पुनः ॥ " १०३४॥ इति ।
सम्बन्ध–
अथवा पार्षदचरस्यापि चैद्यस्यागन्तुकोपद्रवाभास-नाशदर्शनेनैव साधकत्व - निद्दशः । सम्बन्धादयः स्नेहो रागस्तस्माद्वृष्णयो यूयञ्चेत्येकम् (भा० ७।१।२५) “तस्याद्वैरानुबन्धेन’ इत्यादी, (भा० ७१११३१) - " पश्चानाम्” इति वक्ष्यमाणानुरोधात् उभयत्रापि स्नेहको योरपि विद्यमानत्वाच्च सम्बन्धग्रहणं रागस्यैव विशेषत्व ज्ञापनार्थम् । गोपीवदत्रापि
“श्रुतमात्रोऽपि यः स्त्रीणां प्रसह्याकर्षते मनः ।
उरुगायोरुगीतो वा पश्यन्तीनां कुतः पुनः ॥ १०३४॥
महिषी वृन्द का भाव श्रीकृष्ण के प्रति होना कुछ भी आश्चर्य्यकर नहीं है। कारण, श्रीकृष्ण के नाम रूप गुणादि की कथा श्रवण मात्र से ही स्त्री गणों का मनः बल पूर्वक आकृष्ट होता है । अथवा, अनेक प्रकार से श्रीकृष्ण कीर्तन करने से जिस श्रीकृष्ण में चित्त आकृष्ट होता है, उन श्रीकृष्ण को उन्होंने साक्षात् देखा है, उन सब में एतादृश अर्थात् प्रेम वैचित्त्याख्यभावोदय होना- आश्चर्य कर नहीं है ।” अथवा पूर्व काल में शिशुपाल वैकुण्ठ के पार्षद थे, उन में आगन्तुक उपद्रवाभास का नाश दर्शन के द्वारा ही साधकत्व निर्देश हुआ है । श्रीकृष्ण का सम्बन्धाभास विद्यमान हेतु स्नेह से अर्थात् राग से यादव- गण एवं तुम सब युधिष्ठिर प्रभृति - श्री कृष्ण को प्राप्त किये हों, यहाँ यादव गण एवं युधिष्ठिर प्रभृति को समान भाव से कहा है । “तस्माद्वैरानुबन्धेन” इत्यादि का उल्लेख भा० ७।१।२५ में है एवं भा० ७ ११३६ में उक्त है “कामाद् क्रोधाद् भयात्” इन दोनों श्लोकों का उदाहरण वाक्य - " गोप्यः कामाद् भयात् कंशः” है । अतएव दोनों का एकरूप अर्थ करना ही कर्त्तव्य है । एवं इस के वाद भा० ७।१।३१ में कहा गया है- “कतमोऽपि न वेणः स्यात् पञ्चानां पुरुषं प्रति” अर्थात् पूर्व वर्णित भाव पञ्चक के मध्य में वेण राजका भाव अन्तर्भुक्त नहीं था । अर्थात् उक्त पञ्चविध भावों के मध्य में किसी में भी वेण राज का आवेश नहीं था । पञ्चविध भाव के द्वारा अभीष्ट लाभ कारी का उदाहरण इस प्रकार है-
(१) काम भाव से गोपो गण, (२) भय भाव से कंस, (३) द्वेष भाव से शिशुपाल, प्रभृति (४) सम्बन्ध से यादवगण (५) स्नेह से पाण्डव गण प्राप्त किये थे । एवं विधि भक्ति के द्वारा नारद प्रभृति की इष्ट सिद्धि हुई। यह (६) प्रकार है । किन्तु यहाँ पर “पञ्चानां पुरुषं प्रति” उल्लेख है । पाँच प्रकार का ही
। उल्लेख हुआ है । उक्त विरुद्ध उभय वाक्य की सामञ्जस्य रक्षा हेतु मूल श्लोक की व्याख्या इस प्रकार करनी होगी । श्रीकृष्ण के सहित सम्बन्ध से जो स्नेह है, अर्थात् राग है, उस से ही यादवगण एवं पाण्डव गण श्रीकृष्ण को प्राप्त किये थे। विशेषतः यादव एवं पाण्डव- उभय वंश का ही श्रीकृष्ण के सहित सम्बन्ध है । एवं तदुभय का ही श्रीकृष्ण में स्नेह भी है । अतएव भाषा पृथक होने पर भी उभय को एक मानकर निर्देश करना होगा । सम्बन्ध शब्द ग्रहण करने का उद्देश्य है- राग का विशेषत्व ज्ञापन करना । यहाँ गोपी वृन्द के समान साधकचर वृष्णि विशेष एवं पाण्डव सम्बन्धि विशेष की ही पूर्वावस्था का अवलम्बन करके साधकत्व रूप में निर्देश किया गया है । अर्थात् यहाँ यादव शब्द से नित्य सिद्ध उद्धव
श्री भक्तिसन्दर्भः
[[६५२]] साधकचरा वृष्णिविशेषाः पाण्डवसम्बन्धिविशेषाश्च पूर्वावस्थामवलम्ब्य साधकत्वेन निद्दिष्टाः । अतः सम्बन्धजस्नेहोऽपि तदभिरुचिमात्रं ज्ञेयम् । भक्तया विहितया, अस्या एव प्रतिलब्धत्वेन भावमार्ग निर्द्देष्टुमुपक्रान्तत्वात् ॥