३२०

५५९ ३२०

न च शास्त्रविहितेनैव भगवद्धर्मेण सिद्धिः स्यात्, न तदविहितेन कामादिनेति बाच्यम् । यतः (भा० ७ ११२६) -

ि

(३२०) “कामाद्वषाद्भयात् स्नेहाद्यथा भक्तेश्वरे मनः ।

आवेश्य तदघं हित्वा बहवस्तद्गत गताः ॥” १०२३॥

(३१६) “कोटः पेशस्कृतारुद्धः कुडचायां तमनुस्मरन् ।

संरम्भ भययोगेन विन्दते तत्स्वरूपतान् ॥ १०२१॥

एवं कृष्णे भगवति मायामनुज ईश्वरे ।

खरेण पूतपाप्मानस्तमापुर नुचिन्तया ॥ " १०२२ ॥

एक कोट दूसरे कीट के द्वारा आनीत एवं निज गर्ल में आबन्ध होकर द्वेष एवं भय से उत्थित आनयन कारी कीट में जो आवेश होता है, अर्थात् द्व ेष एवं भय से निरन्तर चिन्तन के द्वारा आनीत कीट आनयन काशी के समान रूप को प्राप्त कर लेता है । इस प्रकार ही जो मायिक मनुष्य के समान प्रतिभात होते हैं, वस्तुतः अप्राकृत पर ब्रह्म स्वरूप हैं-उन में आविष्ट हं ने से आविष्ट व्यक्ति की मुक्ति हो जाती है। *“मायामनुज” शब्द में प्रयुक्त माया शब्द का अर्थ है - दया। अर्थात् विभु चंतम्य होकर भी भक्त के प्रति कृपा करके जो प्राकृत मनुष्यवत् प्रतिभात होते हैं । कारण, परिच्छिन्न भक्तिमान् जीव के निकट में अपरिच्छिन्न रूप में आविर्भूत होने से भक्त ग्रहण कर नहीं सकते हैं, अतः परिच्छिन्न रूप में ही आभिभूत होते है । इस अभिप्राय से ही “मायामनुष्य” शब्द का उल्लेख हुआ । यहाँ प्रश्न हो सकता हैं कि- एक कीट जो अपर कीट के प्रति विद्वेष करता है, उस से उसका पाप नहीं होता है । किन्तु श्रीकृष्ण को द्वेष करने से पाप होता है ? इस के उत्तर में कहते हैं—’“वरेण पूतपाप्मानं” वैरभाव से जो अनवरत श्रीकृष्ण चिन्ता है-अर्थात् श्रीकृष्ण में आवेश है । उस आवेश के प्रभाव से विधौत पाप हो जाता है । कारण, श्रीभगवद् ध्यान को सामर्थ्य ही इस प्रकार है ॥३१॥

५६० ३२०

इस प्रकार कहना भी समीचीन नहीं है-कि- शास्त्रीय विधि प्राप्त भगवद्धर्म के द्वारा सिद्धि होती है । किन्तु शास्त्रीय विधि शून्य कामादि के द्वारा सिद्धि नहीं हो सकती है। कारण, भा० ७ १२६

[[६४०]]

[[1]]

यथा विहितया भक्तया ईश्वरे मन आवेश्य तद्गति गच्छन्ति, तथैवाविहितेनापि कामादिना बहवो गता इत्यर्थः । तदघं तेषु कामादिषु मध्ये यद्व ेषः भययोरघं भवति, तद्धित्वंव । भयस्यापि द्वेष-सम्बलितत्वादद्योत्पादकत्वं ज्ञेयम् । अत्र केचित् काममप्यद्यं मन्यन्ते । तत्रेदं विचार्य्यते, - भगवति काम एव केवलः पापावहः, किंवा पतिभावयुक्तः, अथवा उपपतिभावयुक्त इति । स एव केवल इति चेत्, स किं द्वेषादिगणपातित्वात् तद्वत् स्वरूपेणैव वा, परमशुद्धे भगवति यदधरपानादिकम्, यच्च कामुकत्वाद्यारोपणं तेनातिक्रमेण वा पापश्रवणेन वा । नायेन (भा० १०/२६११३) -

“उक्तं पुरस्तादेतत्ते चंद्यः सिद्धि यथा गतः ।

द्विषन्नपि हृषीकेशं किमुताधोक्षज प्रियाः ॥ " १०२४ ॥

इत्यत्र द्व ेषादेर्न्यक्कृतत्वात् तस्य तु स्तुतत्वात् । अतश्च ‘प्रियाः’ इति स्नेहवत् कामस्यापि

में उक्त है—

(३२०) “कामाद् द्वेषाद् भयात् स्नेहादूर या भवत्येश्वरे मनः । आवेश्य तदघं हित्वा बहवस्तद्गतिं गताः । " १०२३॥

ग) क

जिस प्रकार शास्त्रविधि प्रेरित होकर अनुष्ठित भक्ति के द्वारा परमेश्वर में मानसिक आवेश होने पर भावोचित सिद्धि लाभ होती है, उस प्रकार शास्त्र विधि के द्वारा अप्रेरित कामादि द्वारा भी अनेक व्यक्ति सिद्धि लाभ किये हैं, उक्त कामादि के मध्य में श्रीभगवान् को द्वेष करने से उन को भय करने से जो पाप होता है, भगवदावेश के फल से वह पाप विनष्ट हो जाता है । अतएव उक्त रीति से शिशुपाल पाप शून्य होकर मुक्त होकर पार्षद देह की प्राप्त किया था । यहाँ सन्देह हो सकता हैं कि- भगवान् को द्वेष करने से पाप होता है, किन्तु उन से भीत होने से पाप क्यों होगा ? उत्तर में कहते हैं - भय के अभ्यन्तर में निगूढ़ भाव से विद्वेष रहता है । जिस प्रकार कंस-श्रीकृष्ण को भय करता था । किन्तु भय कारण, श्रीकृष्ण को वह कैसे विनष्ट करेगा - उस विषय में अनेक प्रयत्न भी उस ने निरन्तर किया था। यदि भय के अभ्यन्तर में द्वेष की सत्ता न हो तो भय पाप नहीं हो सकता है । कतिपय व्यक्ति—भगवान् के प्रति काम भाव को भी पाप मानते हैं। इस विषय में विचार करते हैं- श्रीभगवान् में केवल काम हो पापा वह है ? अथवा पतिभाव युक्त काम पापावह है ? किंवा उपपति भाव युक्त काम ही पाप वह है ?

यदि कहा जाय कि भगवान् में काम भाव हो पापावह हैं, ऐसा होने पर वह काम भाव क्या द्वैषादि के समान ही पापावह है ? किंवा पाप स्वरूप में ही परम विशुद्ध श्रीभगवान् में जो अधर पानादि हैं, एवं श्रीभगवान् में कामुकत्व प्रभृति का आरोप है, अर्थात् पति भाव युक्त अथवा उपषति भावयुक्त आरोप है, एवं उक्त आरोप जन्य श्रीभगवान् में जो मर्यादालङ्घन होता है, अथवा, श्रीभगवान् में काम- भाव पापावह है, इस प्रकार जो शास्त्र संवाद है, तज्जन्य हो क्या वह पापावह है ? उस के मध्य में द्वेषादि गण के लिखित होने के कारण, वह पापा वह है - इस प्रकार सिद्धान्त नहीं किया जा सकता है । कारण, भा० १०।२६।१३ में श्रीशुकदेवने कहा है-

“उक्त पुरस्तादेतत्ते चैद्यः सिद्धि यथा गतः ।

द्विषन्नपि हृषीकेशं किमुताधोक्षजप्रियाः । १०२४ ॥

[[६४१]]

प्रीत्यात्मकत्वेन तद्वदेव न दोषः । तादृशीनां कामो हि प्रेमंकरूपः, (भा० १०।३१।१६) - “यत्ते सुजात चरणाम्बुरुहं स्तनेषु, भीताः शनैः प्रिय दधीमहि कर्कशेषु” इत्यादावतिक्रम्यापि स्वसुखं तदानुकूल्य एव तात्पर्य्य-दर्शनात् संरिन्ध्रयास्तु भावो रिरंसाप्रायत्वेन श्रीगोपीनामिव केवल तत्तात्पर्य्याभावात्तदपेक्षयैव निन्दद्यते, न तु स्वरूपतः, - ( भा० १० ४८७) “सानङ्ग तप्त- कुचयोः” इत्यादौ “अनन्तचरणेन रुचो मृजन्ती” इति, “परिरभ्य कान्तमानन्द मूर्तिम्” इति

हे राजन् ! तुम्हारे जिज्ञासित विषयका उत्तर मैंने सप्तम स्कन्ध के शिशु पाल प्रसङ्ग में दिया है, अर्थात् शिशुपाल यदि श्रीकृष्ण को विद्वेष कर सिद्धि प्राप्त कर सकता है तो अधोक्षज श्रीकृष्ण की प्रियतमा वृन्द प्रीति प्राप्त कर सिद्धि लाभ करेंगी - इस में संशय का अवसर कहाँ है ? इस श्लोक के द्वारा द्वेष भाव को धिक्कारा गया है, एवं श्रीकृष्ण में काम भाव का स्तव किया गया है । तज्जन्य स्नेह के समान भगवत् विषयक काम भी प्रीत्यात्मक होने के कारण स्नेह के समान काम भी दोषावह नहीं है । श्रीव्रजसुन्दरी वृन्द के काम एवं प्रेम में किञ्चिन्मात्र भी भेद नहीं है । एतज्जन्य कथित है-

“प्रेमेव गोपरामाणां काम इत्यगमत् प्रथाम् । इत्युद्धवादयोप्येतं वाञ्छन्ति भगवत् प्रियाः ॥”

श्रीव्रजसुन्दरी वृन्द के प्रेम ही काम के

समान प्रतिभात होता है। आलिङ्गन चुम्बनादि विद्यमान होने के कारण काम शब्द का प्रयोग होता है । तज्जन्य ही श्रीगोविन्द के अतिप्रिय श्रीउद्धव प्रभृति श्रीगोपी प्रेम की प्रार्थना करते रहते हैं । भा० १०।३१ १६ में उक्त है-

“यत्ते सुजातचरणाम्बुरुहं स्तनेषु, भीताः शनैः प्रियदधीमहि कर्कशेषु” इत्यादावतिक्रम्यापि स्वसुखं तवानुकूल्य एव तात्पर्य दर्शनात् ॥

श्रीव्रजललनावृन्द की उक्ति है- हे प्रिय ! तुम्हारे जिस चरण कमल को कठिन वक्षःस्थमे में धारण करते समय चरणतल में कितनी व्यथा होती होगी, इस भय से अति धीरे धीरे धारण करतीं हूँ, तुम तो उसी चरणों के द्वारा कठिन व्रज भूमि में विचरण कर रहे हो, क्षेत्र में निपतित वन्यधान्य शृङ्ग एवं तृणाङ्कुर के द्वारा तुम्हारे चरण व्यथित नहीं हो रहे हैं ? तद् गत जीवना हमारे हृदय तुम्हारे चरणों की वेदना सम्भावना से अत्यन्त कातर है । इस उक्ति से सुस्पष्ट हुआ है कि-

श्रीव्रजदेवी वृन्द के कान्ता भाव के अभ्यन्तर में किसी भी अंश में स्वसुख तात् पर्य्यात्मक काम की सत्त्वा नहीं है। कारण, यदि काम की सत्त्वा होती तो, वक्षोपरि श्रीकृष्ण चरणाम्बुज धारण समय में परम सुख के परिवर्त में श्रीकृष्ण दुःख सम्भावना से भीता नहीं होती । अतएव सम्भोग अवस्था में भी व्रज देवीवृन्द का कृष्णसुखैक तात्पर्य है, स्व सुख तात्पर्य नहीं है । यह प्रदर्शित हुआ है। सैरिन्ध्री का भाव अर्थात् कुब्जा का भाव रमणेच्छा प्रधान है। अतः उस में श्रीकृष्ण सुखैक तात्पर्य्यता नहीं है, इस से ही वह निन्दित है । किन्तु स्वरूपतः वह निन्दित नहीं है । अर्थात् श्रीगोपीवृन्द के प्रेम की अपेक्षा से ही सैरिन्ध्री का भाव निन्दित है । जिस प्रकार सूर्य्यालोक प्रकाशित होने पर अपर आलोक अनाहत होता है, उस प्रकार ही जानना होगा । अर्थात् श्रीगोपी वृन्द के निर्मल प्रेम भास्कर के निकट कुब्जा का भाव- सम्भोगेच्छायुक्त होने के कारण क्षुद्र दीप के समान अनावृत है, किन्तु स्वरूपतः पूजित ही है । कारण, भा० १०।४८।७ में श्रीशुकदेव ने कहा है-

“सानङ्गतप्त कुचयोः” “अनन्तचरणेन रुजो मृजन्ती”

“परिरभ्य कान्तमानन्दमूत्तिम्” जो अपरिच्छिन्न माधुर्य्य के कारण, अनन्तनाम से विख्यात है,

m

p

[[६४२]]

शिक

कार्य्यद्वारा तत्स्तुतेःः तत्रापि (भा० १०१४८६६) “आहोष्यतामिह प्रेष्ठ” इत्यत्र प्रीत्यभिव्यक्तेश्च ।

अतएव (भा० १०/४८८)

(भा० १०।४८।११) -

“सैवं कैवल्यनाथं तं प्राप्य दुष्प्रापमीश्वरम् ।

अङ्गरामार्पणेनाहो दुर्भगेदमयाचत ॥ १०२५ ॥ इति,

“दुराराध्यं समाराध्य विष्णु सर्व्वेश्वरेश्वरम् ।

यो वृणीते मनोग्राह्यमसत्त्वात् कुमनीष्यसी ॥” १०२६॥

इति चैवं योजयन्ति, कैवल्यमेकान्तित्वं तेन यो नाथः सेवनीयस्तं पुरा तादृश-त्रिवक्रत्वादि- लक्षण - दौर्भाग्यवत्यपि । अहो आश्चर्ये, अङ्गरागार्पणलक्षणेन भगवद्धम्र्म्माशेन कारणेन सम्प्रतीदं ( भा० १०।४८।६) “आहोष्यतामिह प्रेष्ठ दिनानि कतिचिन्मया । रमस्व” इत्यादि- लक्षणं वक्ष्यमाणं सौभाग्यमयाचतेति । अतः (भा० १०/८०/२५) -

“किमनेन कृतं पुण्यमवधूतेन भिक्षुणा ।

श्रिया होनेन लोकेऽस्मिन् गहितेनाधमेन च ॥ १०२७॥

उन श्रीकृष्ण के चरण युगल स्पर्श के द्वारा सैरिन्ध्रीने अनङ्ग तप्त कुच युगल का वक्षः स्थल का एवं नयन युगल का सन्ताप को विदूरित करके निज बाहु द्वय के द्वारा स्तनान्तर्गत आनन्द मूर्ति कान्त श्रीकृष्ण को आलिङ्गन करके दीर्घकाल श्रीकृष्ण अप्राप्ति जनित सन्ताप को सद्यः दूर किया। इस श्लोक में कार्य के द्वारा अर्थात् अखण्ड माधुर्य्यधाम आनन्द मूर्ति श्रीकृष्ण को आलिङ्गन रूप कार्य के द्वारा सैरिन्ध्री का भाव की प्रशंसा की गई है। उस के मध्य में भी भा० १०।४८।६ में उक्त है-

“सहोष्यतामिह प्रेष्ठ दिनानि कतिचिन्मया ।

रमस्य नोत्सहेत्यक्तु सङ्ग तेऽम्बुरुहेक्षण ॥

[[5]]

हे प्रिय ! कतिपय दिवस तुम मेरे साथ रहो, मेरे साथ रमण करो, हे कमल लोचन ! मैं तुम्हारे सङ्ग छोड़ने में अक्षम हूँ, इस श्लोक में श्रीकृष्ण के प्रति कुब्जा का प्रेम प्रकाशित हुआ है। अतएव भा० १०।४८।८ में उक्त है-

भा० १०३४८।१२-

“सैवं कैवल्यनाथं तं प्राप्य दुष्प्रापमीश्वरम् ।

अङ्गरागार्पणेनाहो दुर्भगेदमयाचत ।” १०२५॥

“दुराराध्यं समाराध्य विष्णु सव्र्व्वेश्वरेश्वरम्

यो वृणीते मनोग्राह्यमसत्त्वात् कुमनीष्यसौ ।” १०२६ ॥

अनन्तर कुब्जा, ऐकान्तिक भक्त कर्तृक सेवित दुष्प्राप्य परमेश्वर श्रीकृष्ण को भगवत्

धर्मांश अङ्ग

राग अर्पण रूप कारण द्वारा प्राप्त कर यद्यपि वह त्रिवन रूप से दौर्भाग्यवती थी, तथापि सम्प्रति उस ने

कुछ

दिन मेरे साथ मेरे घर में वास करो, रमण करो, इस प्रकार सौभाग्य की आकाङ्क्षा की थी। वह अतीव आश्चर्य कर है । अतएव भा० १०।८०।२५ में श्रीदाम विप्र को लक्ष्य करके पुरस्त्रीवृन्द ने कही थी–

[[६४३]]

इति श्रीदामविप्रमुद्दिश्यान्तः पुरजन-वचनवदेव तथोक्तिः । ननु कामुकी सा किमिति श्लाध्यते ? तत्राह - दुराराध्यमिति । यो मनोग्राह्यं प्राकृतमेव विषयं वृणीते कामयते, असावेव कुमनीषी, सा तु भगवन्तमेव कामयत इति परमसुमनीषिण्येवेति भावः । तदेवं तस्य कामस्य द्वेषादिगणान्तः पातित्वं परिहृत्य तेन पापावहत्वं परिहृतम् । अथ कामुकत्वाद्या- रोपणाद्यधरपानादि रूपस्तत्र व्यवहारोऽपि नातिक्रमहेतुः, यतो ( ब्र० सु० २।१।३३) “लोकवत्तु लोला- कैवल्यम्” इति न्यायेन लीला तब स्वभावत एव सिद्धा । तत्र च श्री भु-

किमनेन कृतं पुण्यमवधूतेन भिक्षुणा ।

श्रिया होनेन लोकेऽस्मिन् गहितेनाधमेन च ।” १०२७॥

यह भिक्षु अवधूत, श्रीहीन, व्यवहारिक दृष्टि से अति गहित एवं अधम ब्राह्मण ने पहले किस प्रकार पुष्पार्जन किया था, जिस से श्रीलक्ष्मी सेव्य पदार विन्द श्रीकृष्ण भी इस को आदर कर रहे हैं । यहाँपर जिस प्रकार स्वरूपतः श्रीदाम विप्र परम भागवतोत्तम हैं, किन्तु व्यवहारिक लोक दृष्टि से उनकी निन्दा की गई है, सैरिन्ध्री के पक्ष में भी उस प्रकार जानना होगा। यहाँ इस प्रकार मान सकते - कि - कामुकी सैरिन्ध्री की प्रशंसा उतनी क्यों की गई है ? उत्तर में श्रीशुक कहते हैं- " दुराराध्यं” जो दुराराध्य एवं सर्वेश्वरेश्वर श्रीविष्णु की आराधना करके मनोग्राह्य प्राकृत विषय की कामना करता है, वही कुमनीषी है, अर्थात् कुबुद्धि है, वह सैरिन्ध्री ने किन्तु श्रीभगवान् की कामना ही की थी, तज्जन्य वह परम सुमनीषिणी है । ऐसा होने पर सैरिन्ध्री का जो काम श्रीकृष्ण के प्रति है-वह द्वेषान्तः पाती नहीं है, एवं पापावह भी नहीं है । यह सुस्पष्ट रूप से दर्शाया गया है । कारण, यदि वह काम, पापावह होता एवं द्वेषादि के समान निन्दित होता तो सैरिन्ध्री आनन्दमूर्ति श्रीकृष्ण को आलिङ्गनादि करने की सौभाग्य वत्ती नहीं हो सकती । भा० १०२४८७ की टीका में श्रीधरस्वामि पादने कहा है- “कर्ममेव प्राकृतदृष्टचा अयाचित । न च गोप्य हव सा तन्निष्ठे ति दुर्भगेत्युक्तम् ।

कृतार्थत्वे तु तस्या न सन्देहः । अर्थात् वह सैरिन्ध्री ने प्राकृत दृष्टि से ही काम की प्रार्थना की थी, तत्त्व दृष्टि से वह काम अप्राकृत है, गोपी वृन्द के समान सैरिन्ध्री श्रीकृष्ण सुखैक तात्पर्य्यवती नहीं थी, इस अभिप्राय से ही सैरिन्ध्री को दुर्भगा कही गई है, वस्तुतः सैरिन्ध्री, परम कृतार्था है, इस विषय में कोई सन्देह नहीं है।

अनन्तर श्रीभगवान् में कामुकत्व प्रभृति का आरोप, एवं अधर पानादि व्यवहार भी श्रीभगवान् की मर्यादा का लङ्घन के कारण नहीं हो सकते हैं । कारण, – “लोकवस्तु लीला कैवल्यम्” ( ब्र० सू० २१११ ३३ ) इस न्याय से श्रीभगवान् की विशुद्ध लीला, अलौकिक होकर भी लौकिकवत् प्रतिभात होती है । उक्त सूत्र का श्रीहरिदास शास्त्रीकृत भागवत भाष्य-

“ब्रह्मन् कथं भगवतश्चिन्मात्रस्याविकारिणः

लीलया वापि युज्येरन् निर्गुणस्य गुणाः क्रियाः ॥ क्रीडायामुद्यमोऽर्भस्य कामश्र्चिक्रीडिषान्यतः ।

स्वतस्तृप्तस्य च कथं निवृत्तस्य सदान्यतः ॥” भा० ३।७।२-३ को वेत्ति भूमन् भगवन् परात्मन्

योगेश्वरोती भवतस्त्रिलोक्याम् ।

म.

J ६४४ ]

हु लीलादिभिस्तस्य तादृशलीलायाः श्रीवैकुण्ठादिषु नित्यसिद्धत्वेन स्वतन्त्रलीला - विनोदस्य तस्याभिरुचितत्वावगमात् तादृशलीलारसमोह-स्वाभाविक

तादृशलीलारसमोह - स्वाभाविकं भगवत्ताद्यननुसन्धानमपि कामुकत्वादि- मननमपि च तदभिरुचिनत्वेनैवावगम्यते । तथा तत् प्रेयसीजनानामपि तत्वरूप शक्तिविग्रहत्वेन परमशुद्धरूपत्वात्ततो न्यूनत्वाभावाच्च तदधरपानादिकमपि नाननुरूपम्, पूर्वयुक्तया तदभिरुचितमेव च । न च प्राकृतवामराजने दोषः प्रसञ्जनीयः - तद्योग्यं तादृशं भावं स्वरूपशक्ति विग्रहत्वञ्च प्राप्यैव तदिच्छयैव तत्प्राप्तः । अथ पायश्रवणेन च न पापावहो- ऽसौ कामः, तदश्रवगादेव । अतः पतिभावयुक्ते च तत्र सुतरां न दोषः, प्रत्युत स्तुतिः श्रूयते,

( भा० १०/६०।२७) -

“याः सम्प्रर्थ्यचरन् प्रेम्णा - पादसम्बाहना दिभिः ।

क्विवा कथं वा कति वा कदेति

विस्तारयन् क्रीड़सि योग मायाम् ॥” भा० १०।१४।२१

श्रीभगवान् में यह सब लीला स्वभावसिद्धरूप में ही हैं। यह सब आगन्तुकी नहीं है। दाहिकाशक्ति के द्वारा जिस प्रकार अग्निका परिचय होता है, उस प्रकार ही अलौकिक लीलाके द्वारा ही श्रीभगवान् परिचित होते हैं। जल में उष्णता के समान यह आगन्तुक नहीं है। श्रीवैकुण्ठ प्रभृति में श्री, भू, लीला, प्रभृति शक्ति के सहित उस प्रकार श्रीभगवान् की अधर पानादि लीला सुप्रसिद्ध है, वह सब लीला में स्वतन्त्र लीलाविनोद श्रीभगवान् की अभिरुचि की कथा भी शास्त्र में वर्णित है । एवं उस अधर पानादि लीलारस में श्रीभगवान् का स्वाभाविक मोह एवं निज भगवत्तादि का अननुसन्धान, एवं कामुकत्व प्रभृति श्रीभगवान् की अभिरुचि सम्मत हैं, शास्त्र में इस प्रकार हो वर्णित है ।

श्रीभगवान् की प्रेयसी गण की श्रीमति भी उनकी स्वरूप शक्ति की अधिष्ठात्री स्वरूप होने के कारण परम शुद्ध स्वरूप हैं, एवं श्रीभगवान् किसी भी अंश में न्यून नहीं हैं, अतएव उनके अधर पानादि भी अननुरूप नहीं हो सकते हैं। पूर्व युक्ति के अनुसार तादृश प्रेयसी वृन्द के अधर पानादि श्रीभगवान् की अभिरुचि सम्मत ही है । यह भी समझना होगा कि - श्री, भू, लीला प्रभृति के सहित श्रीभगवान् का विहार दोषावह नहीं हो सकता है, कारण, वे उनकी स्वरूप शक्ति की मूर्ति हैं। किन्तु प्राकृत जगत् की रामावृन्द के सहित विहार दोषावह एवं निन्दित है - इस प्रकार कहना समीचीन नहीं है । कारण, प्राकृत रामावृन्द में जब तक तादृश कान्ताभाव एवं स्वरूप शक्ति की मूर्ति प्रसक्ति नहीं होती है, तब तक, उस प्रकार प्राकृत गुण देह के सहित श्रीभगवान् का विहार नहीं हो सकता है । श्रीभगवदिच्छा से जब सच्चिदनन्दामय देह प्राप्ति होती है, तब ही श्रीभगवदिच्छासे सच्चिदानन्दमय देह - एवं योग्य कान्ताभाव प्राप्त होता है, एवं श्रीभगवान् भी विहार करते हैं, अतएव प्राकृत रामावृन्द के पक्ष में उस प्रकार काम भाव दोषावह नहीं है ।

[[7112]]

शास्त्र में वर्णित - जो श्रीभगवान् में काम भाव पापावह है, अतएव वह काम भाव दोषावह इस प्रकार कथन भी समीचीन नहीं है । कारण, शास्त्र के किसी भी स्थान में ‘श्रीभगवान् में काम भाव पापावह है, इस प्रकार उल्लेख नहीं है । अतएव श्रीभगवान् में पति भाव युक्त काम जो दोषावह नहीं है, उस विषय में सुतरां कहना निष्प्रयोजन है । प्रत्युत श्रीभगवान् में पति भाव युक्त काम की स्तुति सुनने में आती है । भा० १०६० २७ में उक्त है-

बीभक्तिसदर्भः

[[६४५]]

जगद्गुरु भर्तृ बुद्ध्या तासां कि वर्ण्यते तपः ॥ १०२८ ॥ इति । महानुभावमुनीनामपि तद्भावः श्रूयते, यथा श्रीमध्वाचार्य्यधृतं कौर्म्मवचनम् -

“अग्निपुत्रा महात्मानस्तपसा स्त्रीत्वमापिरे । भर्त्तारश्च जगद्योनिं वासुदेवमजं विभुम् ॥” १०२६ ॥ इति ।

अतएव वन्दितं (नारायणव्यूहस्तवे ) - ‘पतिपुत्र सुहृद्भ्रातृ-“इत्यादिना । अथोपपतिभावेन च न पापावहो ऽसौ (भा० १० २६२३२) “यत् पत्यपत्यसुहृदामनुवृत्तिरङ्ग” इत्यादिना

“थाः सम्प्रय्यंचरन् प्रेम्णा - पादसम्बाहनादिभिः ।

जगद्गुरु भर्तृ बुद्ध्या तासां कि वर्ण्यते तपः ॥ " १०२८ ॥

श्रीशुक देव कहे हैं-महिषीवृन्द ने जगद् गुरु श्रीकृष्ण को परिचर्या, प्रीति पूर्वक पाद सम्बाहन प्रभृति के द्वारा पति भाव से की है, उन सब के सौभाग्य की कथा क्या वाक्य से वणित हो सकती है ? महामुक्त मुनीन्द्रवृन्व की श्रीकृष्ण में प्रति भाव की कथा का वर्णन शास्त्र में है । श्रीमध्वाचार्य्यं घृत कूम्मं पुराण के बचन में लिखत है-

“अग्नि पुत्रा महात्मानस्तपसास्त्रीत्वमापरे ।

भर्तारञ्च जगद्योनि वासुदेवमजं विभुम् । " १०२६॥

महात्मा अग्निपुत्र गण, अनुरागमय तपस्या के द्वारा स्त्रीत्व की प्राप्त किये थे, एवं जगत् योनि अज, विभु, श्रीभगवान को भर्त्तारूप में प्राप्त किये थे । अतएब नारायण व्यूहस्तव में लिखित है- “पतिपुत्र सुहृद् भ्रातृ” अर्थात् जो लोक श्रीकृष्ण में पति भाव पोषण करते हैं, वे बन्दनीय हैं । अतएव उपपति भाव से श्रीभगवान् में काम भाव पापावह है, इस प्रकार कहना नितरां असमीचीन है । कारण, भा० १०/२६१३२ में उक्त है—

“यत् पत्यपत्यसुहृदा मनुवृत्ति रङ्ग

स्त्रीणां स्वधर्म इति धर्मविदात्वयोक्तम्

अस्त्वेव मेतदुपदेश पदे त्वथीशे

प्रेष्ठो भवस्तनुभृतां किलबन्धुरात्मा ॥”

टीका-अपि च यदुक्तं पत्यपत्येत्यादि त्वया धर्म विदेति सोपहासम् एवमेतदुपदेशानां पदे विषये स्वय्येवास्तु । उपदेश पदत्वे हेतुः ईश इति । विविदिषा वाक्येन सर्वोपदेशानामीश परस्वावगमादिति भावः । ईशत्वे हेतुः, आत्मा किल भवानिति । भोग्यस्य हि सर्वस्य भोक्ता आत्मैवेश इत्यतः, प्रेष्ठो बन्धुश्च भवानेवेति सर्व बन्धुषु करणीयं त्वय्येवास्त्वित्यर्थः । अथवा धर्मोपदेशानां पदे स्थाने धर्मोपदेष्टरित्ययिसति अस्मासु च धर्म जिज्ञासमानासु सतीषु त्वया धर्मविदा यदुक्तम्-एवमेतदस्तु नतु त्वं धर्मोपदेष्टा किन्तु भवानात्मेति । अथवा - यदुत्तमेतदुपदेश पदे पदे गोचरे पुरुषऽस्तु नाम त्वयि तु ईशे स्वामिनि सत्येवम् । काक्वा नैवमित्यर्थः । यतस्तनुभृतां त्वमात्मा फल रूप इति । यद्वा, यदुक्तं पत्यादि शुश्रूषणं धर्म इति एव मेतत् त्वय्येवास्तु । कुत उपदेशपदे शुश्रूषणीयस्वेन उपदिश्य मानानां पत्यादीनां पदे अधिष्ठाने । कुतः ईशे । न हीश्वरमधिष्ठानं विना कोऽपि पति पुत्रादिर्नामेति । अन्यत् समानम् । अलमति विस्तरेण ।

श्रीव्रजदेवीयों ने उक्त वाक्य द्वारा उत्तर प्रदान किया है-कथन का अभिप्राय यह है-

पति, पुत्र, प्रभृति तब तक मेव्य हैं जब तक उस आभिमानिक देह में आत्मा अधिष्ठित है । आत्मा का सम्बन्ध के विना पति पुत्रादि की स्थिति नहीं है, अर्थात् उस उस शब्द का प्रयोग नहीं होता है-

[[६४६]]

ताभिरेवोत्तरितत्वात्, (भा० १०।३३।३५) - “गोपीनां तत्पतीनाश्च” इत्यादिना श्रीशुकदेवेन च, (भा० १०।३२।२२) “न पारयेऽहं निरवद्यसंयुजां, स्वसाधुकृत्यं विबुधायुषापि वः” इत्यत्र ‘निरवद्य

आत्मसम्बन्ध होन होने से उस की ‘शव’ संज्ञा होती है । अतएव मुख्य सेव्य आत्मा है, देह नहीं । आत्मा प्रति देह में भिन्न है, किन्तु आप, निखिल देह धारियों का आत्मा अर्थात् परमात्म हैं। अतएव आप ही सेव्य हैं, एवं आप को सेवा से पति पुत्र प्रभृति की सेवा होगी । जब तक आत्म दर्शन नहीं होता है, तब तक आत्म संवलित जड़ीय देह की सेवा विहित है, किन्तु परमात्म स्वरूप आप का साक्षात् कार होने के पश्चात् अपर की सेवा कया करनी चाहिये ? इत रीति से श्रीव्रजदेवियों ने श्रीकृष्ण एवं अन्य पतिम्मन्य को मूलपति कहा है । भा० १०।३३।३५ में श्रीशुकदेवने भी कहा है-

‘गोपीनां तत् पतीनाञ्च सर्वेषामेव देहिनाम् ।

योऽन्तश्चरति सोऽध्यक्षः क्रीडनेनेह देहभाक ॥ "

को मूल पति

कहा है,

टीका-परदारत्वं गोपीनामङ्गीकृत्य परिहृतम् । इदानों भगवतः सम्बन्तिर्यामिनः परबारसेवा नाम न काचिदित्याह गोपीनामिति । योऽन्तश्चरति अध्यक्षो बुद्धधादि साक्षी स एव क्रीड़नेन देह भाक अस्मदादितुल्यो येन दोषः स्यादिति ।

नतु

जो, गोपी एवं उनके पतियों के एवं निखिल व्रज वासियों के सहित मायिक दृष्टि के अन्तराल में नित्य विहार करते हैं, वह कर्म भक्त वृन्द को सुखी करने के निमित मानवों के नयन गोचर होकर प्रकट विहार करते हैं। इस श्लोक में “अन्तश्चरति” पद प्रयोग के द्वारा अप्रकट लीला में नित्य बिहार सूचित हुआ है, एवं ‘अध्यक्षः ‘पद प्रयोग से प्रकट लीला भी सूचित हुईं हैं। तात्पर्य यह है कि - अप्रकट लीला में श्रीलक्ष्मी नारायणवत् नित्य दाम्पत्य सम्बन्ध में विराजित हैं, अतः उपपतित्व होने की सम्भावना ही कहाँ है । अर्थात् श्रीकृष्ण, श्रीव्रजसुन्दरीबृन्द के अधर्म सम्बन्ध से उपपत्ति नहीं हैं, धर्म सम्बन्ध से पति भी नहीं हैं, केवल मात्र प्रबलतर अनुराग के सम्बन्ध से प्राणबन्धु, प्राणपति हैं । जहाँ प्रेम में धर्म सम्बन्ध अर्थात् लौकिक समर्थन मूलक आनुष्ठानिक सम्बन्ध है, एवं अधर्म - इद्रिय तृप्ति हेतु शास्त्रीय एवं लौकिक मर्यादालङ्घन पूर्वक स्वेच्छाचार सम्बन्ध है, वह प्रेम अनुरोध मय होने के कारण अतीव दुर्बल है । रसिक शेखर श्रीकृष्ण ने भी भा० १०।३२।३२ में कहा है-

“न पारयेऽहं निरवद्य संयुजां स्वसाधुकृत्यं विबुधायुषापि वः ।

यामाभजन् दुर्ज्जरगेह शृङ्खलाः संवृश्च तद्वः प्रतियातु साधुना ॥ "

टीका - आस्तामिदं परमार्थन्तु श्रृणुतेत्याह । नेति । निरवद्या संयुक् संयोगो यासां तासां वौ विबुधानामायुषापि, चिरकालेनादि स्वीयं साधुवृत्थं प्रत्युपकारं कसुन पारये न शक्नोमि । कथम्भूतान या भवत्यो दुर्जरा अजराया गेह श्रृङ्खला स्ताः संवृश्च्य निःशेषं च्छित्वा मा मात्, अभजंस्तासाम् मच्चित्तन्तु बहुषु प्रेमयुक्ततथा नैकनिष्ठम् । तस्माद्वो युष्माकमेव साधुना साधुकृत्येन तत् युष्मत् साधुकृत्यं प्रतियातु, प्रतिकृतं भवतु । युष्मत् सौशील्येनैव ममानृष्यं, न तु मत् कृत प्रत्युपकारेणेत्यर्थः ॥

हे प्रियतमा वृन्द ! मैं ब्रह्मा की आयुः के तुल्य आयुः प्राप्त करने पर भी तुम्हारे प्रेम के अनुरूप भजन करने में सर्वथा अक्षम हूँ । कारण, तुम सबने जिस देह से मेरे समीप में उपस्थित हुआ है, वह देह अति विशुद्ध है, कारण, अपर की दृष्टि उस में नहीं पड़ी है, न तो अपर का स्पर्श ही हुआ है । मन भी अति- विशुद्ध है । कारण मेरा सुख तात्पर्य में ही वह समर्पित है । वहि दृष्टि से यह संयोग काममय रूपसे प्रतीत होने पर भी वस्तुतः यह संयोग अनुराग मय ही है। सूर्थ्य एवं उस की ज्योतिः को जिस प्रकार अन्धकार

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संयुजाम्’ इत्यनेन स्वयं श्रीभगवता च । तादृशानामन्येषामपि तद्भावो दृश्यते, यथा पाद्मोत्तर

खण्डवचनम्-

“पुरा महर्षयः सर्वे दण्डकारण्यवासिनः । दृष्ट्वा रामं हरि तत्र भोक्तुमैच्छन् सुविग्रहम् ॥१०३० ॥

ते सर्वे स्त्रीत्वमापन्नाः समुद्भूताश्च गोकुले ।

हरि संप्राप्य कामेन ततो मुक्ता भवार्णवात् ॥ १०३१॥

अतः पुरुषेष्वपि स्त्रीभावेनोद्भवाद्भगवद्विषयत्वान्न प्राकृत- कामदेवोद्भावितः प्राकृतः कामोऽसौ, किन्तु (भा० १०। ३२१२) “साक्षान्मन्मथ- मन्मथः” इति श्रवणादागमादौ तस्य कामत्वेनोपासनाच्च भगवदेकोद्भावितोऽप्राकृत एवासौ काम इति ज्ञेयम् । श्रीमदुद्धवादीनां परमभक्तानामपि च तच्श्लाघा श्रूयते (भा० १०।४७/५८ ) - “एताः परं तनुभृतो भुवि गोपबध्वः " स्पर्श करने में अक्षम है, उस प्रकार काम कभी भी तुम्हारे अनुराग भास्कर को स्पर्श कर नहीं सकता है । आप सब के इस अनुराग का आभास भी जिस के हृदय में उदित होगा, उस हृदय को कामरूप अन्धकार स्पर्श नहीं करेगा । इत्यादि रीति से स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण ने भी श्रीव्रजसुन्दरी वृन्द के उपपति भाव की प्रशंसा का है ।

उक गोपीवृन्द के अनुगति भावाक्रान्त अन्य साधक वृन्द का भी श्रीकृष्ण में उपपति भाव का वर्णन शास्त्र में है । अतएव बहु साधन एवं भगवत् कृपालब्ध भाव-कभी दोषावह नहीं होता है । पद्म पुराण के उत्तर खण्ड में लिखित है-

“रामहर्षयः सर्वे दण्डकारण्यवासिनः

दृष्ट वा रामं हरि तत्र भोक्तमैच्छन् सुविग्रहम् ॥१०३०॥

ते सर्वे स्त्रीत्व मापनाः समुद् सुताश्च गोकुले ।

हरि सं प्राप्य कामेन ततोमुक्ता भवार्णवात् ॥” १०३१॥

  • प्राचीन काल में दण्डकारण्य वासी महषिवृन्द, निज आश्रम में समागत दाशरथि राम को देखकर निज उपास्य श्रीमदन गोपाल हरि के सादृश्य अवलोकन करके मनोहारी श्रीमदन गोपाल देव को उपभोग करने के निमित्त बलवती आकाङ्क्षा पोषण किये थे । अनन्तर यह सब ऋषिगण स्त्रीत्व लाभ किये थे । अर्थात् गोकुल में गोपीदेह एवं गोपी भाव प्राप्त कर जन्म ग्रहण किये थे। एवं अभीष्ट संकल्प के अनुसार श्रीहरि को प्राप्त कर भवार्णव से मुक्त हुये थे । अतएब पुरुष वृन्द के मध्य में भी यह उपपति भावात्मक कामोद्गम होने के कारण, एवं उक्त काम का विषय श्रीकृष्ण होने के कारण, यह काम लोक जगत् में सुविख्यात प्राकृत कामदेव द्वारा उद्भावित काम नहीं हो सकता है। किन्तु भा० १०।३२।२ में उक्त है- " साक्षान्मन्मथ मन्मथ” शब्द से अप्राकृत काम स्वरूप श्रीकृष्ण ही हैं । विशेषतः तन्त्रादि शास्त्र में काम गायत्री एवं कामबीज के द्वारा उपासित होने के कारण यह काम भगवान् श्रीकृष्ण के द्वारा ही उद्भावित है, अतएव यह सर्वथा अप्राकृत काम है। इस विषय में किसी प्रकार संशयावकाश नहीं है ।

श्रीमान् उद्धव प्रभृति परम भक्त वृन्द भी इस उपपत्ति भावमय काम की प्रशंसा किये हैं। उसका वर्णन भा० १०।४७।५८ में है-

“एताः परं तनुभृतो भुवि गोपबध्वो

गोविन्द एव निखिलात्मनि रूढ़ भावाः ।

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इत्यादौ । किं बहुना ? श्रुतीनामपि तद्भावो बृहद्वामने प्रसिद्धः, यतस्तत्र श्रुतयोऽपि नित्य- सिद्धगोपिका - भावाभिलाषिण्यरतद्र पेणैव तद्गणान्तःपातिन्यो बभ्रुवुरिति प्रसिद्धः । एतत् प्रसिद्धिसूचकमेवैतदुक्तं ताभिरेव, (भा० १० ८७१२३) -

“निभृतमरुन्मनोऽक्षदृढ़योगयुजो हृदि य-

न्मुनय उपासते तदरयोऽपि ययुः स्मरणात् ।

स्त्रिय उरगेन्द्रभोगभुजदण्डविषक्त धियो

ि

वयमपि ते समाः समदृशोऽङ्घ्रिसरोजसुधाः ॥ १०३२॥ इति ।

[[4]]

विस्पष्टश्चायमर्थः । यद्ब्रह्माख्यं तत्त्वं शास्त्रदृष्ट्या प्रयास - वाहुल्येन मुनय उपासते, तदरयोऽपि यस्य स्मरणात् तदुपासनां विनैव ययः । तथा स्त्रियः श्रीगोपसुभ्रवस्ते त्व

बाञ्छन्ति यद् भवभियो मुनयो वयञ्च

कि ब्रह्म जन्मभिरनन्त कथा रसस्य ॥

कि

एताः इति । एताः परं केवलं तनुभृतः सफल जन्मानः । रूढ़ भावाः परमं प्रेमवत्यः । यदित्यव्ययम् ॥ यं रूढं भावं भवभियो मुमुक्षवो मुनयो मुक्ता अपि वाञ्छन्ति, वयञ्च भक्ता अपि । अतोऽनन्तस्य कथासु रसो रात्रो यस्य तस्य ब्रह्म जन्मभि विप्रसम्बन्धिभिः शौक़ सावित्र य. शिकै स्त्रिभिजन्मभिः किं कोऽतिशयः । यत्र तत्र जातः, स एव सर्वोत्तम इत्यर्थः । यद्वा, अनन्त कथासु रसोयस्य तस्य ब्रह्म जन्मभिश्चतुर्मुख जन्मभिरपि किमित्यर्थः ।

में

अर्थात् अजातरति, जातरति एवं प्राप्त भगवत् पार्षद देह रूव भक्त भूषणों से विभूषित भूमण्डल श्रीव्रजदेवी वृन्द ही उत्तम देह धारिणी हैं । कारण, व्रजाङ्गना गण के देह महाभाव तोजोमय है, एवं महाभाव प्रकाशे के आकर स्वरूप है । अपर किसी भक्त देह एवं मुकुन्द महिषीव न्द के देह भी इस महा भाव को धारण करने में सक्षम नहीं है । जिस गोपी भाव का प्रगाढ़ अ वेश की वाञ्छा, मुमुक्षु, मुक्त पुरुष, एवं दास भक्त हम सब भी सर्वदा करते रहते हैं । किन्तु किसी की प्राप्त करने की योग्यता है ही नहीं । इत्यादि रूप से गोपी भाव की प्रशंसा का वर्णन है। अधिक कहना ही क्या है- निखिल प्रमाण शिरोमणि श्रुति वन्द की अधिष्ठात्री देवी वृन्द का श्रीकृष्ण में उपपतिमय काम भाव का वर्णन

व हद् वामन पुराण में सुप्रसिद्ध है । कारण, उस प्रकार उपपति भाव से ही श्रुति गण भी नित्यसिद्ध गोपिका गण के भाव की अभिलाषिणी होकर गोपी रूप में ही गोपीगण के अन्तः पातिनी हुईं थीं । श्रुतिगणों ने जो गोपी भाव की अभिलाषिणी होकर गोपी देह लाभ किया था, उस का वर्णन भा० १०१६७/२३ में श्रुतियों के द्वारा हुआ है-:

“निभृतमरुन्मनोऽक्षदृढ़योगयुजो हृदि य–

d

न्मुनय उपासते तदरयोऽपि ययुः स्मरणात् ।

स्त्रिय उरगेन्द्रभोगभुजदण्डविषक्तधियो

क्यमपि ते समा समदृशोऽङ् घ्रिसरोजसुधाः ।” १०३२॥

श्रुति गण बोली थीं “है नाथ ! प्राण वायु, मन एवं इन्द्रिय वर्ग को निरुद्ध करके सुदृढ़ योग साधक मुनिगण - तत्त्व दृष्टि से अतीव प्रयत्न के द्वारा हृदय में ब्रह्माख्य तस्व की उपासना करते हैं, अरिगण भी

P

] ६४ε श्रीनन्दनन्दनरूपस्योरगेन्द्र-दे हतुत्यौ यौ भुजदण्डौ तत्र विषक्तधियः सत्यस्त वैवाङ्घ्रिसरोज- सुधास्तदीयस्पर्शविशेष जातप्रेम-माधुर्य्याणि ययः वयं श्रुतयोऽपि समदृशरतत्तुल्य भावाः सत्यः समास्तादृशगोपिकात्वप्राप्तया तत्साम्यमाप्तास्त एवाङ्घ्रिसरोजसुधा ययिम यातवत्य इत्यर्थः । अर्थवशाद्विभक्तिविपरिणामः । अङ्घ्रीति सादरोक्तिः । अत्र तदरयोऽपि ययः स्मरणादित्यनेन भावमार्गस्य झटित्यर्थसाधनत्वं दर्शितम् । ‘समदृशः’ इत्यनेन रागानुगाया एव तत्र साधकतमत्वं व्यञ्जितम् । अन्यथा सर्व्वसाधन साध्य विदुष्यः श्रुतयोऽन्यथैव प्रवर्त्तेरन् । तथा स्मरणपरय ुग्मद्वयेऽस्मिन् स्वस्व-युग्मे प्रथमस्य मुख्यत्वं द्वितीयस्य गौणत्वं दर्शितम्, – उभयत्राप्यपि शब्द-साहित्येनोत्तरत्र पाठादेकार्थताप्राप्तेः । अतः स्त्रिय इति नित्याः श्रीगोपिका एव ता ज्ञेयाः । तथैव श्रुतिभिरिति श्रीकृष्णनित्यधाम्नि ता दृष्टा इति बृहद्वामन एव प्रसिद्धम् । तदेवं साधु व्याख्यातम् (भा० ७ ११२६) - ‘कामाद्वेषात्’ इत्यादी ‘तदधं हित्वा’ इत्यत्र तेषु मध्ये द्वेष-भययोर्य दद्यमित्यादि ॥

स्मरण प्रभाव से तादृश उपासना के विना ही उस तत्त्व वस्तु को प्राप्त करते हैं । उसी प्रकार श्रीगोप सीमन्तिनी गण भी तुम्हारे श्रीनन्दनन्दन रूपके सर्प देह तुल्य भुजदण्ड में विशेष आसक्त चित्त होकर तुम्हारी अङ्घ्रिसरोधसुधा अर्थात् श्रीचरण कमल स्पर्श विशेष जात प्रेम माधुर्य्य लाभ किया। हम सब श्रुतिगण भी समदृक् अर्थात् गोपी समभावापन्न होकर समा अर्थात् तादृश गोपीत्व प्राप्ति के कारण ताश साम्य प्राप्त किये हैं । अर्थात् गोपी गण, नन्दनन्दन स्वरूप के चरण कमल स्पर्श विशेष जात प्रेम माधुर्य्य लाभ किये हैं, हम सब भी उस माधुर्य्य को काय व्यूह रूप से प्राप्त किये हैं । यहाँपर सुष्ठु अर्थ के कारण, विभक्ति का विपरिणाम हुआ है, अर्थात् श्लोकस्थ” ययु” स्थल में ययिम” प्रयोग करके व्याख्या करनी चाहिये । अङ् घ्रि शब्द हृद्गत आदर भाव का सूचक है। यहाँ अरिगण भी स्मरण प्रभाव से उस तत्त्व वस्तु को प्राप्त किये हैं, इस प्रकार उक्ति के द्वारा विधि मार्ग से भाव मार्ग का अ.शु प्रयोजन साधकत्व प्रदर्शित हुआ है । अर्थात् कर्त्तव्यता बोध से उपासना के द्वारा सत्वर अभीष्ट कार्य में मन का आवेश नहीं होता है, किन्तु भाव मार्ग में निज अभीष्ट वस्तु में अति सत्वर गाढ़ आवेश होता है, ऐसा न होने पर सर्व साधन एवं साध्य विषय में अभिज्ञ श्रुति गणों की प्रवृत्ति अन्य विषय में होती । जानना होगा कि - मुनि गण भी स्मरण निष्ट हैं, और अरिगण भी स्मरण निष्ठ हैं । उस के मध्य में मुनि वृन्द का मुख्यत्व है, अरिगण का गौणत्व है । और स्त्री अर्थात् व्रजाङ्गता वृन्द का मुख्यत्व है, और श्रुति वृन्द का गौणत्व है। कारण उभय स्थल में अपि शब्द का प्रयोग होने कारण उत्तर अर्थात् परवर्ती श्लोकके चरण में अपि शब्द का प्रयोग न होने से एकार्थता का ही बोध होता है । अर्थात् मुनिगण एवं अरिगण की प्राप्ति की समता है, एवं व्रजाङ्गना गण की तथा श्रुति गण की प्राप्ति में तुल्यता है । अतएव यहाँ स्त्री शब्द से नित्य सिद्धा गोपी सूचित हुई है । उस प्रकार ही श्रुतियों ने भी श्रीकृष्ण नित्य धाम में गोपियों को देखा है। बृहद्वामन पुराण में उक्त वृत्तान्त सु प्रसिद्ध है । अतएव पूर्वोक्त प्रकार की व्याख्या सु सङ्गत हुई है । भा० ७।१।२६ में उक्त है – “कामाद् द्वेषात् " यहाँ " अवश्य तदद्यं हित्वा” प्रयोग है । यहाँ “अघ शब्द से–श्रीभगवान् को द्वेष करने से एवं भय करने से जो पाप होता है, उस की जानना होगा। उस प्रकार पाप शून्य होकर अभीष्टा गति को प्राप्त किये थे । इस प्रकार व्याख्या समीचीन है । अर्थात् कोई कोई कहते हैं- ‘श्रीभगवान् में काम भाव पोषण करना पापावह है।’ उनकी इस प्रकार कुव्याख्या को खण्डन करके कहा है, कि

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