३१८

५५५ ३१८

तदेवं सर्वेषां तदावेश एव फलमिति स्थिते झटिति तदावेशसिद्धये तेषु भाव- मयमार्गेषु निन्दितेनापि वैरेण विधिमय्या भक्तेनं साम्यमित्याह (भा० ७११।२६)—

(३१८) “क्या वैरानुबन्धेन मर्त्यस्तन्मयतामियात् ।

न तथा भक्तियोगेन इति मे निश्चिता मतिः ॥ " १०२० ॥

वैरानुबन्धेनेति भयस्याप्युपलक्षणम् । यथा शंघ्रघण तन्मयतां तदाविष्टताम्, भक्तियोगेन विहितत्व मात्रबुद्धया क्रियमाणेन तु न तथा ॥

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५५६ ३१६

आस्तां तादृशवस्तुशक्तियुक्तस्य तेषु प्रकाशमानस्य भगवतो भगवद्विग्रहाभासस्य वा वार्ता प्राकृतेऽपि तद्भावमात्रस्य भाव्यावेशफलं महद्द्दृश्यत इति सदृष्टान्तं तदेव

प्रभृति के द्वारा ध्यान करने से भगवद् भिन्न वस्तु में चित्त आविष्ट न होकर भगवान् में ही चित्त आविष्ट होता है । वैरानुबन्ध शब्द का अर्थ है, अविच्छिन्न वैरभाव । निर्वैर शब्द का अर्थ है-वैरभाव का अभाव । अर्थात् उदासीन भाव’ इस से स्नेह कामादि राहित्य सूचित हुआ है । अर्थात् वैरभाव से हो, अर्थात् वंरादि भाव राहित्य से ही हो, ध्यान करना कर्त्तव्य है । यहाँ ध्यान शब्द से भक्ति योग को जानना चाहिये ।

यहाँ ‘स्नेह शब्द से काम भिन्न परस्पर अकृत्रिम पारस्परिक प्रेम विशेष को जानना होगा। उक्त ‘प्रेम विशेष शब्द से साधक की प्रेम में अभिरुचि को जानना होगा ॥३१७॥

५५७ ३१८

अतएव, समस्त भावों का मुख्य फल श्रीकृष्ण में आवेश ही मुख्य फल है । यदि उस प्रकार आवेश ही मुख्य फल होता है तो, सत्वर उस प्रकार आवेश सिद्धि हेतु पूर्वोक्त भावमय मार्ग के मध्य में निन्दित वैरभाव के सहित विधिमयी भक्ति की कुछ समता नहीं है । उसका परिज्ञान कराने के निमित्त भा० ७७१।२६ में देवष ने कहा है-

(३१८) “यथा वैरानुबन्धेन मर्यस्तन्मयतामियात् ।

न तथा भक्तियोगेन इति मे निश्चिता मतिः ॥ १०२०

अर्थात् है राजन् ! जिस प्रकार वैरानुबन्ध से मानव तन्मयता को प्राप्त करता है, भक्ति योग से उस प्रकार तन्मयता को प्राप्त नहीं करता है। यही मेरी सुनिश्चित धारणा है । यहाँ वैरानुबन्ध शब्द से उपलक्षण द्वारा भय को ग्रहण करना चाहिये । अर्थात् वैरानुबन्ध एवं मयानुबन्ध से जिस प्रकार आशु तन्मयता श्रीभगवान् में होती है - तर्तव्य मात्र बुद्धि से अनुष्ठित भक्ति योग के द्वारा उस प्रकार भगवदा- विष्टता नहीं होती है । ॥३१८