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तदेवं यस्माद्भगवतो निन्दादिकृतं वैषम्यं नास्ति, तस्माद्येन केनाप्युपायेन ( भा० १०।१२।३६ ) “ सकृद्यदङ्ग प्रतिमान्तराहिता" इत्यादिवत् तदाभासमपि ध्यायतस्तदा- वेशात्तत्र वैरेणापि ध्यायतस्तदावेशेनैव निन्दादिकृतपापस्यापि नाशात सायुज्यादिकं युक्त- मित्याशयेनाह - तस्मादित्यादिभिः । तथाहि (भा० । ११२५)-

(३११) “तस्ना द्वैरानुबन्धेन निर्वैरेण भयेन वा ।

स्नेहात् कामेन वा युज्यात् कथचिन्नेक्षते पृथक् ॥ १०१६ ॥

युज्ज्यादिति स्नेह - कामादीनां विधातुमशक्यत्वात् सम्भावनायामेव लिङ्–वैरानुबन्धा- दोनामेकतरेणापि युञ्ज्याद्ध्यायेच्चेत्, तदा भगवतः पृथङ् नेक्षते, तदाविष्टो भवतीत्यर्थः ।

श्रीकृष्ण, योगमाया रूप स्वरूप शक्त घावृत होने के कारण सब के नयन गोचरी भूत नहीं होते हैं । उस को “तथा न यस्य कैवल्यादभिमानोऽखलात्मनः " यहाँ उनको अखिला मा कहा गया है । अर्थात् श्रीकृष्ण सब के आत्मा परमात्मा हैं, परमात्मा के शरीरदि प्राकृत नहीं होते हैं, यह शास्त्र प्रसिद्ध है । उस के बाद उस श्लोक में उक्त है – “परस्य दमकर्तृहि हिंसा केनास्य कल्पते” परमात्मा जो प्राकृत देहेन्द्रियादि के अविषय हैं, इस का कथन ‘परस्य’ शब्द से हुआ है । अर्थात् श्रीकृष्ण, प्रकृति वैभव सङ्ग शून्य हैं। अतएव श्रीकृष्ण - हिंसा के अविषय हैं. उक्तार्थ हेतु विशेषण है - " दमक : " अर्थात् श्रीकृष्ण, परमाश्चर्य अनन्त शक्ति समन्वित होने के कारण, सब को शिक्षा प्रदाता हैं । अतएव जो सब को शिक्षा प्रदान करते हैं, उनकी हिंसा कौन कर सकता है ॥ ३१६ ॥

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पूर्वोक्त हेतु के कारण जब श्रीकृष्ण में निन्दादि कृत्त वैषम्य नहीं है, तब जिस किसी प्रकार से श्रीकृष्ण में मानसिक आवेश होने जीव का परम कल्यान साधित होगा। इस विषय में भा० १०।१२।३१ में उक्त है - “सकृद्यदङ्ग प्रतिमान्तर हिता” मनोमयी भागवतों ददौ गतिम” अर्थात् जो व्यक्ति एकवार मात्र श्रीकृष्ण की मनोमयो में मनसा आविष्ट होता है, उस को श्रीकृष्ण भागवती गति प्रदान करते हैं, अतएव वैरभाव से भी श्रीकृष्ण का ध्यान करके चित्त आविष्ट होने से भगवत् निन्दादि कृत पाप विनष्ट हो जाता है, फलतः उस से सायुज्या मुक्ति लाभ आश्चर्य जनक नहीं है । इस अभिप्राय से ही कहते हैं-

(३१७) “तस्माद्वैरानुबन्धन निर्वैरेण भयेन वा ।

स्नेहात् कामेन वा युञ्जयात् कथचित्रेक्ष्यते पथक् ॥”

देवष कहे थे - राजन् ! अत्तएव वैरानुबन्ध से हो अथवा निर्वैर से ही हो, भय से हो, किंवा स्नेह से हो, अथवा काम से हो, श्रीकृष्ण में मानसिक आवेश स्थापन हो क्ल्य ण कर है, वह मनोयोग, जिस किसी प्रकार से श्रीभगवान् में होना चाहिये, तद्वयतीत वस्तु में मानसिक आवेश दोषावह है । यहाँ युञ्ज्यात्” यह क्रिया सम्भ वनार्थ में लिङ् है । कारण, स्नेह वा काम प्रभृति का विधान नहीं हो सकता है । अर्थात् स्नेह करो. काम करो, इस प्रकार नियोग से स्नेह काम नहीं होता है, कारण, स्नेह एवं काम हार्दिक वस्तु हैं, अर्थात् स्वाभाविक हैं। सुतरां उस में उपदेश की अपेक्षा नहीं है । पूर्वोक्तव’ रानुबन्ध

६३८ ] वैरानुबन्धो वैरभावाविच्छेदः, निर्वैरं वराभावमात्र मौदासीन्यमुच्यते, तेन कामादिराहित्य सध्या याति-वैरादिभावराहित्यमित्यर्थः । तेन वा बैरादिभाव राहित्येन युज्यात्, बिहितत्व मात्रबुद्धया ध्यायेत्, ध्यानोपलक्षितं भक्तियोगं कुर्य्यादित्यर्थः । स्नेहः कामातिरिक्तः परस्परम- कृत्रिमः प्रेमविशेषः, स तु साधके तदभिरुचिरेव ॥