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ततश्च (भा० ७।१।२३-२४) -

(३१६) “हिंसा तदभिमानेन दण्डपारुष्ययोर्यथा ।

वैषम्यमिह भूतानां ममाहमिति पार्थिव ॥ १०१७ । यन्निबद्धोऽभिमानोऽयं तद्बधात् प्राणिनां बधः । तथा न यस्य कैवल्यादभिमानोऽखिलात्मनः ।

परस्य दमकर्त्ता हि हिंसा केनास्य कल्त्यते ॥ " १०१८ ॥

होता है, इस प्रकार कहने का अभिप्राय आपका क्या है ? भगवान् की निन्दा करने से भगवान्

की मनः पीड़ा होती है, अतः निन्दाकारी का नरक पात होता है, अथवा श्रीभगवान् की मनः पीड़ा न होने पर भी मद्य पानादि के समान वेद निषिद्ध भगवत् निन्दा श्रवण अथवा कीर्त्तन करने के निमित्त नरक पात होगा । एतदुभय के मध्य में मायामूढ़ व्यक्तिगण, प्राकृत तमः प्रभृति गुण को उद्देश्य करके ही निन्दा वा स्तुति प्रभृति करते रहते हैं । अतएव प्रकृति पय्र्यन्त सर्वाश्रय श्रीभगवान् के प्राकृत तमः प्रभृति गुण के अवलम्बन से आचरित निन्दादि की प्रवृत्ति अप्राकृतगुण विग्रह में नहीं हो सकती है । अर्थात् प्राकृत गुणमय निन्दा वा स्तुति, प्राकृत गुणातीत श्रीभगवान् की सच्चिदानन्दमयमूर्ति में प्रवृत्त नहीं हो सकती है । विशेषतः जीव के समान प्राकृत एवं प्रकृति कार्य्यं स्वरूप किसी भी वस्तु में श्रीभगवान् का अभिमान नहीं है । अतएव प्राकृत गुणावलम्बी निन्दा द्वारा प्राकृत गुणातीत श्रीकृष्ण की पीड़ा भी नहीं है । इस विवरण को भा० ७ हा २२ से आरम्भ कर ७।६।२३-२४- सार्द्ध तीन श्लोकों के द्वारा कहते हैं-

(३१५) “निन्दनस्तव सत्कारन्यक्कारार्थं कलेवरम् ।

प्रधान परयो राजन्नविवेकेन कल्पितम् । १०१६॥

निन्दन शब्द का अर्थ है-दोष, कीर्तन, न्यक्कार का अर्थ है- तिरस्कार, स्तव - प्रशंसावाक्य, सत्कार-सम्मान, इन सब को समझने के निमित्त–प्रकृति पुरुष के अविवेक के द्वारा जीव शरीर समूह की रचना हुई है ॥३१५॥

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तदनन्तर भा० ७११।२३-२४ में उक्त है-

(३१६) “हिंसा तदभिमानेन दण्डपारुष्ययोर्यथा ।

वैषम्यमिह भूतानां ममाहमिति पार्थिव ॥ १०१७॥

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श्री भक्तिसन्दर्भः इह प्राकृते लोके यथा तत्कलेवराभिमानेन भूतानां ममाहमिति वैषम्यं भवति, यथा तत्कृताभ्यां दण्ड- पारुष्याभ्यां ताड़न-निन्दाभ्यां निमित्तभूताभ्यां हिंसा च भवति, यथा यस्मिन्निबद्धो ऽभिमानस्तस्य देहस्य बधात् प्राणिनां बधश्च भवति, तथा यस्याभिमानो नास्तीत्यर्थः । अस्य परमेश्वरस्य हिंसा केन हेतुना कल्प्यते, अपि तु न केनापीत्यर्थः । तथाभिमानाभावे हेतुः – कैवल्यात्, (भा० ७ ११३४) “बेहेन्द्रियासु हीनानां वैकुण्ठपुरवासिनाम्’ इति कैमुत्यादिप्राप्तशुद्धत्वात्तादृश निन्दाद्य गम्य शुद्ध-सच्चिदानन्दविग्रहत्वादित्यर्थः । तरय तदगम्यत्वञ्च (७।२५ ) " नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः” इति श्रीभगवद्गीतातः ।

यन्निबद्धोऽभिमानोऽयं तद्बधात् प्राणिनां बधः ।

तथा न यस्य कैवल्यादभिमानोऽखिलात्मनः ।

परस्य दमकतु हि हिंसा केनास्य कल्प्यते ॥ " १०१८ ॥

(PPE)

जिस प्रकार प्रश्कृत देह में अभिमान के कारण, प्राणिवृन्द के मध्य निज एवं पर यह वैषम्य उपस्थित होता है, एवं उस देह कृत ताड़न एवं निन्दा द्वारा हिंसा भी होती है । और जिस प्रकार शरीर में ममत्व होने के कारण, शरीर को बध करने से प्राणी वृन्द का बध भी सम्पन्न होता है । किन्तु जिस का उस देह में अभिमान नहीं है, उस प्रकार श्रीभगवान् की हिंसा किस अवलम्बन से हो सकती है ? तात्पर्य यह है कि- इस जगत् में निन्दास्तुति, देह को लक्ष्य करके हो होती है। अर्थात् यह व्यक्ति सुन्दर है, यह कुत्सित है, इस प्रकार स्तव, निन्दा, ऐवं देह को ताड़न, एवं देहाभिमानी को भर्तसना की जाती है। शरीर में जिस का जितना अभिमान, ममत्व, वा आवेश है, उतनी परिमाण में मेरी निन्दा की प्रशंस की, द्वेष किया, सम्मान किया, इस प्रकार अभिमान उत्पन्न होता है । जिस का गुण मयदेह में अभिमान नहीं है, देह दृष्टि से कृतस्तव, ताड़न, अपमान प्रभृति से उस में सुख दुःखोत्पस नहीं होता है। कारण, आत्म दृष्टि से किसी प्रकार निन्दास्तुति नहीं की जाती है। यदि प्राकृत देहाभिमान शून्य जीवन्मुक्त पुरुष में निन्दास्तुति प्रभृति जन्य सुख दुःखोत्पन्न नहीं होता है, तब सब प्रकारसे प्रकृति सम्बन्ध रहित सच्चिदानन्द स्वरूप श्रीभगवान् की निन्दा करने से उन में तो सुख दुःखोत्पन्न सुतरां हो ही नहीं सकता है। यद्यपि श्रीभगवान् सविग्रह हैं, तथापि श्रीविग्रह एवं श्रीभगवान् भिन्न वस्तु नहीं हैं। जीव के समान देह देही भेद श्रीभगवान में नहीं है । श्रीविग्रह हो श्रीभगवान् एवं श्रीभगवान् हो श्रीविग्रह हैं। श्रीभगवान् के श्रीविग्रह जो प्रकृति स्पर्श शून्य है भा० ७।१।३४ में श्रीयुधिष्ठिर महाराज ने कहा भी है-

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“देहेन्द्रिया सुहीनानां वैकुण्ठपुरवासिनाम्” वेह, इन्द्रिय एवं प्राण होन सम्बन्ध होन बैकुण्ठ के द्वार पाल वृन्द में प्राकृत सम्बन्ध कैसे हो सकता है ? सारार्थ यह है कि-श्रीजय विजय प्रभृति के देह, इन्द्रिय, प्राणादि नहीं हैं, अथच वैकुण्ठ पुर के द्वार पाल हैं । देहेन्द्रिय प्राण शून्य व्यक्ति के पक्ष में द्वार पाल होना सर्वथा असम्भव है । अतएव अर्थापत्ति प्रमाण से उन में अप्राकृत देहेन्द्रियदि स्थापित हुए हैं। विष्णु के द्वारपालों के शरीरादि यदि अप्राकृत होते हैं तो, सुतरां हो श्रीविष्णु के देहेन्द्रियादि अप्राकृत हैं । अतएव तादृश निन्दादि व्यवहार के अगम्य शुद्ध सच्चिदानन्द विग्रह होने के कारण, श्रीकृष्ण की निन्दा करने से श्रीकृष्ण की मनः पीड़ा नहीं हो सकती है । श्रीकृष्ण-जो निन्दादि के अगम्य हैं, उसका कथन भगवद् गीता के ६।२५ में सुस्पष्ट रूप से है है-

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“नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमाया समावृतः ।!

श्रीभक्तिसन्दभः

[[६३७]]

तादृशवैलक्षण्ये हेतुः - अखिलानामात्मभूतस्य तत्र हेतुः - परस्य प्रकृतिवैभवसङ्ग-रहितस्य, हिमाया अविषयत्वे हेत्वन्तरम्-दमकतु, परमाश्चर्यानन्तशक्तित्वात् सर्वेषामेव शिक्षाकर्तुरिति ॥