५४७ ३१५
तत्रोत्तरं श्रीनारद उवाच यथा-अहो भगवन्निन्दकस्य नरकपातेन भाव्यमिति वदतस्तव कोऽभिप्रायः ? – भगवत्पीड़ाकरत्वाद्वा, तदभावेऽपि सुरापानादिव निषिद्ध निन्दा-
वासुदेवे परे तत्त्वे प्राप्ति श्चैद्यस्य विद्विषः ॥ ”१०१३॥
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श्रीकृष्ण द्वेषी शिशुपाल का वासुदेवाख्य परतत्त्व में लीन होना अत्यन्त विस्मयकर है। कारण, ऐकान्तिक परम ज्ञानी गण के पक्ष में भी वासुदेव त्तत्त्व में लीन होना अत्यन्त असम्भव है, कारण वे सब निर्विशेष ब्रह्म स्वरूप में ही लीन होते हैं । यहाँ ऐकान्ती शब्द का अर्थ- परम ज्ञानी है ।
५४८ ३१३
भा० ७।१।१६ में श्रीयुधिष्ठिर देवर्षि नारद को कहे थे-
(३१३) “एतद्वेदितुमिच्छामः सर्व एव वयं मुने ।
भगवन्निन्दया वेणो द्विजैस्तमसि पातितः ॥ १०१४॥
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श्रीकृष्ण द्वेषी शिशु पालका वासुदेवाख्य परतत्त्व में लीन होना अतीव आश्वय्र्थ्य है। कारण, ऐकान्तिक परम ज्ञानी वृन्द के पक्ष में भी वासुदेव तत्त्व में लीन होना अत्यन्त असम्भव होता है। उन्होंने और भी कहा- हे मुनिवर ! हम सब जानना चाहते हैं कि- भगवान् की निन्दा करने के अपराध से ब्राह्मणों ने वेणराज को निविड़ तमसाच्छन्न नरक में निपातित किया था । कारण, अनेक नरक भोग के अनन्तर देह मन्थन से आविर्भूत पृथु महाराज के जन्मोदय प्रभाव से उस की सद्गति हुई थी, यह वृत्तान्त सुनने में आता है ॥३१३॥
५४९ ३१४
भा० १।१।१७ में उन्होंने और भी कहा-
(३१४) “दमघोषसुतः पाप आरभ्य कलभाषणात् ।
सम्प्रत्यमर्षी गोविन्दे दन्तवक्रश्च दुर्मतिः ॥ " १०१५॥
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पापमूत्ति दमघोष पुत्र शिशुपाल कलभाषण से आरम्भ कर श्रीगोविन्द द्वेषी थे । सम्प्रति उस के भ्राता दुर्मति दन्तवक्र भी श्रीगोविन्द को विद्वेष कर रहा है ॥३१४ ॥
५५० ३१५
प्रश्नोत्तर में श्रीनारद कहे थे - श्रीभगवान् की निन्दा करने से अवश्यम्भावी नरकपात
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श्रवणाद्वा । तत्र तावद्विमूढ़ - जननिन्दादिकं प्राकृतान् तमआदिगुणानुद्दिश्यैव प्रवर्त्यते । ततः प्रकृतिपर्यन्ताश्रयस्य तत्कृतनिन्दादेरप्राकृतगुणविग्रहादौ तस्मिन् प्रवृत्तिर्नास्त्येव न च जीववत् प्रकृतिपर्य्यन्ते वस्तुजाते भगवदभिमानोऽस्ति, ततश्च तेन तस्य पीड़ापि नास्त्येव । तदेतदाह सार्द्धस्त्रिभिः (भा० ७ ११२२) -
(३१५) “निन्दन-स्तव सत्कार - न्यक्कारार्थं कलेवरम् ।
प्रधान-परयो राजन्नविवेकेन कल्पितम् ॥ " १०१६ ॥
का निन्दनं दोषकीर्त्तनम्, न्यक्कारस्तिरस्कारः, निन्दनस्तुत्यादि – ज्ञानार्थं प्रधानपुरुषयोर- विवेकेन जीवानां कलेवरं कल्पितं रचितम् ॥