५४३ ३१२
एवं प्रेयसीत्वाभिमानमयी दर्शिता । एषा ब्रह्मवैवर्त्ते कामकलायामपि दृष्टा, सेवकत्वाद्यभिमानमय्यां रुचिभक्तिश्चान्यत्र ज्ञेया, (भा० ७।७।२४) “तस्मादमूस्तनुभृताम्” इत्यादौ “उपनय मां निजभृत्यपार्श्वम्” इति श्रीमह्लाद - वचनवत्, यथा श्रीनारदपत्र रात्रादौ- “कदा गम्भीरया वाचा श्रिया युक्तो जगत्पते । चामरव्यग्रहस्तं मामेवं कुर्विति वक्ष्यसि ॥” १००१। इति
३११) “सन्तुष्टो श्रद्दधत्येतद्यथालाभेन जीवती
विहराम्य मुनैवाहमात्मना रमणेन वै ॥ " १०००
का कॉम्
अनन्तर पिङ्गलाने वेह यात्रा निर्वाह हेतु जिस प्रकार सङ्कल्प किया था, उस का चित्रण उक्त श्लोक में है - मैं यथा लाभ से सन्तुष्ट होकर श्रीनारायण में दृढ़ विश्वास स्थापन पूर्वक देह यात्रा निर्वाह करतः भाव गर्भ रमण के सहित मन के द्वारा विहार करूँगी । अर्थात् प्राकृत देह के द्वारा श्रीनारायण के सहित रमण सर्वथा असम्भव है। कारण, श्रीनारायण नित्य ज्ञान एवं सुख स्वरूप हैं, मेरा शरीर अनित्य एवं अज्ञान, दुःख स्वरूप है, अतएव इस देह के द्वारा उन के सहित विहार सर्वथा असम्भव है, केवल मात्र भावात्मक मन के द्वारा उन के सहित भावमय रमण सम्भव है । रुचि प्रधान रागानुगा भक्ति पथ में मन का ही प्राधान्य हैं । उस का कारण यह है कि - पिङ्गला ने उस समय प्रेयसी रूप में सिद्धि प्राप्त नहीं किया था। सुतरां कान्ता भाव से रागानुगा भजन मन के द्वारा ही युक्ति युक्त है। इस से प्रतिपादित हुआ कि पिङ्गला यद्यपि स्वैरिणी रही, तथापि श्रीप्रतिमा प्रभृति में आलिङ्गन चुम्बनादि औद्धत्य का प्रकाश उसने नहीं किया है। इस प्रकार रीति का अनुसरण पितृत्व प्रभृति भाव में भी करना आवश्यक है ।
श्रीपिङ्गला कही थी । ३११
५४४ ३१२
उक्त रीति से प्रेयसीत्व अभिमानमयी रागानुगा भक्ति का वर्णन हुआ। ब्रह्म वैवर्त पुराण में काम कला नाम्नी कुमारी में यह भक्ति प्रदर्शित हुई है। सेवकत्वादि अभिमानमयी रागात्मिका में रुचि लक्षणा भक्ति को अन्यत्र जान लेना चाहिये । भा० ७।६।२४ में कथित है -
“तस्मादभूस्तनुमृताम्” “उपनय मां निज नृत्य पार्श्वम्”
भक्त प्रवर श्रीप्रह्लाद, श्रीनृसिंह को कहे थे - हे नाथ! मैं निखिल भोगों का परिणाम को सम्यक जानता हूँ । जो काल से विलुलित होता है, इस प्रकार इन्द्रिय के द्वारा भोग्य ब्रह्म लोक के भोग को भी मैं नहीं चाहता हूँ । मुझ को निज भृत्य के समीप में ले चलो, श्रीप्रह्लाद के इस वाक्य के द्वारा श्रीनृसिंह देव के नित्य सिद्ध पार्षद के भाव में रुचि का विवरण सुस्पष्ट रूप से मिलता है। श्रीनारदपञ्चरात्रादि में भी उक्त है-
“कदा गम्भीरया वाचा श्रिया युक्तो जगत्पते ।
चामरव्यग्रहस्तं मामेवं कुविति वक्ष्यसि : ।” १००१ ॥
हे नाथ ! कब मेरा ऐसा सौभाग्य होगा, जिस दिन तुम लक्ष्मी के सहित एकासन में उपवेशन करके चामर सेवा में व्यग्रहस्त मुझ को गम्भीरस्वर से आह्वान कर आदेश करोगे, - हे किङ्कर ! तुम इस प्रकार
[[६२६]]
यथा स्कान्दे सनत्कुमारप्रोक्त-संहितायां प्रभाकर- राजोपाख्याने-
श्रीभक्तिसन्दर्भ
“अपुत्रोऽपि स वै नैच्छत् पुत्रं कर्मानुचिन्तयन् । वासुदेवं जगन्नाथं सर्व्वात्मानं सनातनम् ॥ १००२॥
न पुत्रमययितवान् साक्षाद्भुताज्जनाई नात् ॥ १००४॥
अशेषोपनिषद्वद्य पुत्रीकृत्य विधानतः । अभिषेचयितु ं राजा स्वराज्य उपचक्रमे ॥१००३ ॥ अग्र े भगवद्दत्तवरश्च - “अहन्ते भविता पुत्रः” इत्यादि । अतएवोक्तं नारायणव्यूहस्त दे-
“पति-पुत्र सुहृद्भ्र तृपितृवन्मातृवद्धरिम् । ये ध्यायन्ति सदोद्युक्तास्तेभ्योऽपीह नमो नमः ॥ " १००५ ॥
अत्र पत्यादिवदिति ध्येयस्य पितृवदिति ध्यातुविशेषणं ज्ञ ेयम् । तथा मातृवदिति वति प्रत्ययेन प्रसिद्ध- तन्मातृजनाभेदभावना नैवाङ्गी क्रियते, किन्तु तदनुगतभावनैव । एवं पितृ- भावादावपि ज्ञेयम् । अन्यथा भगवत्य हंग्रहोपासनावत्तेष्वपि दोषः स्यात् । तथा ध्यायन्तीति पूर्वोक्तं मनः प्रधानत्वमेवोरीकृतम् । ‘अपि’ शब्देन तत्तद्ागसिद्धानां कैमुत्यमाक्षिप्यते ।
।
व्यजन सेवा करो । जिस प्रकार स्कन्द पुराण की सनत् कुमार संहिता के नृपति प्रभाकर उपाख्यान में लिखित है-
“अपुत्रोऽपि सर्व नेच्छत् पुत्त्रं कर्मानु चिन्तयन् ।
के
वासुदेव जगन्नाथं सर्वात्मानं सनातनम् ॥ १००२ ॥ अशेषोपनिषद्वेद्य पुत्रीकृत्य विधानतः ।
अभिषेचयितुं राजा स्वराज्य उपचक्रमे ॥ १००३॥
न पुत्रमथितवान् साक्षाद्भूताज्जन हूं नात् ॥ ११००४ ॥
प्रभाकर महाराज अपुत्रक होकर भी निज कर्म फल की चिन्ता करके पुत्र कामना न्हों किये थे । अशेष उपनिषद् वेद्य सनातन जगन्नाथ सर्वात्मा व सुदेव को पुत्र मानकर विधि पूर्वक निज राज्य में अभिषेक करने के निमित्त उद्योगी हुये थे । श्रीभगवान् उनको भक्तिवश होकर साक्षात् दर्शन दान करने पर भी उनके निकट से पुत्र प्रार्थना नहीं किये । अनन्तर श्रीभगवान् भी वरदान किये थे- “अहन्ते पुत्रोभविता” अर्थात् मैं ही तुम्हारे पुत्र बनूँगा ।
अतऐव नारायण व्यूहस्तव में लिखित है
पति पुत्र सुहृद् भ्रातृ पितृ बन्मातृबद्धरिम् ।
ये ध्यायन्ति सदोद् युक्तास्तेभ्योऽपीह नमोनमः ॥ ” १००५ ॥
जो, पति, पुत्र सुहृद् भ्रातृ, पितृ, एवं मित्र के समान श्रीहरि का ध्यान उत्कण्ठित चित्त से करते हैं, उनको प्रणाम । इस श्लोक में पति, पुत्र, सुहृद्, भ्राता यह चार ध्येय श्रीहरि के विशेषण हैं । जो, हरि की भावना, पति, पुत्र, सुहृद्, भ्रातृ, पिता, एवं माता के भाव में करते हैं, उन सब को कोटिशः प्रणाम । यहाँपर पितृवत्, मातृवत् सदृशार्थ में वतुप प्रत्यय है । अतएव समझना होगा कि - यहाँ पर श्रीहरि के प्रसिद्ध पिता माता के सहित अभेद चिन्तन नहीं हुआ है। किन्तु श्रीहरि के प्रसिद्ध पिता माता के आनुगत्य की भावना ही स्वीकृत है । तात्पर्य यह है कि- जिस प्रकार श्रीराम चन्द्र के पिता दशरथ, माता, कौशल्या है, शास्त्र में प्रसिद्ध हैं। साधक- “म्हाराज दशरथ मैं हूँ, कौशल्या में हूँ। इस प्रकार चिन्तन न करे, किन्तु दशरथ वा कौशल्या का अनुगत वा अनुगत हूँ, इस प्रकार भावना ही करे । अन्यथा अर्थात् इस प्रकार चिन्तन करने से में श्रीकृष्ण वा राम हूँ- इस प्रकार भावना जिस प्रकार अहंग्रह उपासना होने
क-
[[६२७]]
ननु " चोदना - लक्षणोऽर्थो धर्म्मः” इत्यनेन पूर्व्वमीमांसायां विधिनैः पूर्व्वं जायत इति श्रूयते, तथा “श्रुति स्मृति-पुराणोक्त- पञ्चरात्रविधि दिना” इत्यादिना यामले
Bete
श्रुत्यादेरेकतरोक्त–क्रम नियमं विना दोषः श्रूयते, तथा-
“श्रुति स्मृति ममैवाज्ञो यस्त उल्लङ्घय वर्त्तते । आज्ञाच्छेदी मम द्वेषी मद्भक्तोऽपि न वैष्णवः ॥ " १९०६ ॥
।
इत्यत्र श्रुत्याद्य
क्तावश्यक क्रिया - निषेधयोरुल्लङ्घनं वैष्णवत्व- व्याघातकं श्रूयते, कथं तहि विधिनिरपेक्षया तथा सिद्धिः ? उच्यते- श्रीभगवन्नाम-गुणादिषु वस्तुशक्तेः सिद्धत्वान्न धर्मवद्भकेश्चोदना-सापेक्षत्वम्, अतो ज्ञानादिकं विनापि फललाभो बहुत्र श्रुतोऽस्ति । चोदना तु यस्य स्वतः प्रवृत्तिनास्ति, तद्विषयेव, तथा क्रमविधिश्च तद्विषयः । तस्मिन्नेव नानाविक्षेपवति नानाविक्षेपवति रुच्यभावेन रागात्मिक-भक्तिशैली-मनभिजानति, सत्यामपि (भा० ११/२/३६) “धावन्निमील्य वा नेत्रे” इत्यादि-न्यायेन यथाकथञ्चिदनुष्ठानतः सिद्धौ सुष्ठु वर्त्मप्रवेशाय
के कारण, दोषावह है, उस प्रकार ही श्रीभगवान् के नित्य सिद्ध परिकर के सहित अभेद भावना भी दोषावह है। और भी विशेष ज्ञातव्य है कि- “ध्यायन्ति ‘क्रिया पद का उल्लेख होने के कारण, रागानुगा मार्ग में ‘मन’ का ही प्र धान्य है । “तेभ्योऽपीह” यहाँ ‘अपि’ शब्द का उल्लेख है, उस से कैमुत्यिक भाक से-जो पति प्रभृति भाव से राग सिद्ध हैं-उनको प्रणाम, यह आक्षिप्त हुआ है । अर्थात् उस उस भाव से जो साधन रत हैं, वे यदि कोटि कोटि प्रणाम के योग्य होते हैं, तो जो उस उस राग सिद्ध हैं, वे सुतरां असमोर्ध्वं प्रणामहं हैं ।
यहाँ प्रश्न हो सकता है कि पूर्व मीमांसा शास्त्र में उल्लिखित है “चोदनालक्षणोऽर्थोधर्मः ॥ इस उक्ति से प्रतिपन्न होता है कि-विधि बोधित क्रिया के द्वारा ही - अपूर्व - अर्थात् अदृष्ट उत्पन्न होता है । यामल ग्रन्थ में भी लिखित है- “श्रुति स्मृति पुराणादि पञ्चरात्र विधि दिना” श्रुति प्रभृति के मध्य में किसी एक प्रमाण के द्वारा उपक्रम एवं विषय के विना अनुष्ठान करने से दोषावह होता है । और भी श्रुत है-
“श्रुति स्मृतीममेवाज्ञो यस्त उल्लङ्घय वर्त्तते ।
आज्ञाच्छेदी मम द्वेषी मद्भक्तोऽपि न बैष्णवः ॥ " २००६ ॥
श्रुत्यादि उक्त अवश्य कर्त्तव्य एवं निषेध का उल्लङ्घन करने से वैष्णवत्व की हानि होती है। ऐसा होने पर विधि निरपेक्षा रागानुगा के द्वारा कैसे साधक की सिद्धि होगी ? उत्तर में कहते हैं - श्रीभगवान् के नाम गुणादि में वस्तु शक्ति होने के कारण, त्रिगुण मय धर्म के समान भक्ति की चोदना की अपेक्षा नहीं है । अतएव ज्ञानादि के विनाभी बहु स्थान में ही भक्ति के द्वारा फल लाभ की कथा वर्णित है । “चोदना " किन्तु वहाँ होती है, जहाँ स्वाभाविक प्रवृत्ति नहीं है । उस को लक्ष्य करके ही प्रवृत्ति होती है । उसी प्रकार क्रम विधि भी स्वतः प्रवृत्ति शून्य व्यक्ति को विषय करके ही प्रवृत्त है । यद्यपि विशुद्ध भक्ति पथ में (भा० ११।२।३५) “धावन्निमील्य वा नेत्रे” इत्यादि नीति के अनुसार अर्थात् श्रुति स्मृति ज्ञान शून्य होकर क्रम लङ्घन करके भी भजनानुष्ठान करने पर भी फल लाभ होता है । तथापि इस प्रकार विशुद्ध भागवत धर्म में रुचि का अभाव होने पर विभिन्न प्रकार चित्त विक्षेप होता है, उस से रागात्मक भक्ति शैली का परिज्ञान नहीं होता है । उस प्रकार नीति अनभिज्ञ व्यक्ति को उत्तम रूप से धर्म पथ में प्रविष्ट कराने के
।
[[६२८]] क्रमशश्वित्ताभिनिवेशाय च मर्यादारूपः स निर्मीयते । अन्यथा सन्तत-तद्भक्त्युन्मुखताकर- तादृशरुच्यभावान्मर्य्यादानभिपत्तेश्चाध्यात्मिका दिभिरुत्पातविहन्यते च स इति, न तु स्वयं प्रवृत्तिमत्यपि मर्य्यादा- निर्माणम्, -तस्य रुच्यैव भगवन्मनोरम - रागात्मका क्रमविशेषाभि- निवेशात् । तदुक्तं स्वयमेव ( भा० ११ । ११ । ३३) “ज्ञात्वाज्ञात्वाथ ये वं माम्” इत्यादिना रागात्मिक-भक्तिमतां दुरभिसन्धिनाप्यनुकरणमात्रेण तादृशत्वप्राप्तिः श्रयते, यथा धात्रीत्वानुकरणेन पूतनायाः, तदुक्तम् (भा० १०।१४ ३५) ‘सद्वषादिव पूतनापि सकुला” इति,
१०.१४।३५) किमुत तदीयरुचिमद्भिस्तादृशनिरन्तरसम्यग्भक्तचनुष्ठानेन, तदुक्तम् (भा० १०।६।३५-६६ ) -
" पूतना लोकबालघ्नी राक्षसी रुधिराशना ।
जिघांसयापि हरये स्तनं दत्त्वाप सद्गतिम् ॥१००७॥
किं पुनः श्रद्धया भक्तया कृष्णाय परमात्मने ।
G
यच्छन् प्रियतरं किं नु रक्तास्तन्मातरो यथा ॥ " १००८ ॥ इति ।
निमित्त एवं क्रमशः चित्त का अभिनिवेश धर्म विषय में कराने के निमित्त उक्त विधि निषेध का प्रवर्तन हुआ है । ऐसा न होने से जिस रुचि का उदय होने पर सतत श्रीकृष्ण चरणों की सेवा में चित्त उन्मुख होकर रहता है। जब तक उस प्रकार रुचि का उदय नहीं होता है, तब तक, विधि निषेध की अधीनता स्वीकार न करने से भजन नियम की रक्षा नहीं हो सकती है, एवं आध्यात्मिक प्रभृति उपद्रों के द्वारा भजन मार्ग व्याहत हो जाता है । किन्तु जिस की स्वाभाविकी भजन प्रवृत्ति है, उस के प्रति विधि निषेध मर्यादा रक्षा की व्यवस्था नहीं की गई है । कारण, रुचि के द्वारा ही श्रीभगवान् के मनोमुग्ध कर रागात्मिका के क्रम विशेष में उस का अभिनिवेश है, इस अभिप्राय से श्रीभगवान् स्वयं ही कहे हैं- भा० ११।११।३३ “ज्ञात्वाज्ञात्वाथ ये वं
माम्
जो मुझ को जानकर अथवा न जानकर मेरा भजन करते हैं, वे दोनों ही भक्त्ततम हैं । उन दोनों के मध्य में जो भगवत् स्वरूपादि का विचार न करके रुचि प्रेरित होकर भजन करते हैं, वे ही श्रेष्ठ हैं । दुरभि सन्धि से भी रागात्मक भक्तिमान् जन के वेषादि का अनुकरण करके भी धर्म फल लाभ होता है- इस का वर्णन श्रीमद् भागवत में है। जिस प्रकार भा० १०।१४।२५ में उक्त है – “सद्वेषादिव पूतनादि रसकुला” धात्रीत्व मात्र का अनुकरण करके पूतनाने धात्री गति प्राप्त की । उक्त श्लोक में सुस्पष्ट वर्णित है– पूतना राक्षसी - जिघांसा वृत्ति से भी धात्रीवेश अनुकरण के फल से धात्री गति को प्रप्त किया । ऐसा होने पर जो रागात्मक भक्तिमान् जन की प्रेम परिपाटी में रुचि शील होकर निरन्तर सम्यक् रूप से भक्ति का अनुष्ठान करते हैं, वे सब तो सुतरां ही सिद्धि लाभ करेंगे । इस अभिप्राय से ही भा० १०।६।३५- ३६ में उक्त है-
“पूतना लोकबालघ्नो राक्षसी रुधिराशना । जिघांसयापि हरये स्तनं दस्वाप सद्गतिम् ॥१००७॥
कि पुनः श्रद्धया भक्तचा कृष्णाय परमात्मने ।
यच्छन् प्रियतरं कि नु रक्तास्तन्मातरो यथा ॥“१००८॥
नाम से पूतना, पवित्र नहीं है। जाति में- राक्षसी, व्यवसाय में, लोक बालघ्नी, जीविका में–तर[ ६२ε
अत उक्तम् (भा० ११।२०।३६) - “न मध्येकान्तभक्तानां गुणदोषोद्भवा गुणाः” इति । एकान्तित्वं खलु भक्तिनिष्ठा, सा रुच्यैव वा शास्त्रविध्यादरेणेव वा जायते । ततो रुचे- विरलत्वादुत्तराभावेनापि यदं कान्तिकत्वम्, तत्तस्यैकान्तिमानिनो दम्भमात्रमित्यर्थः । ततस्तदनुद्येव निन्दा - “श्रुतिस्मृतिपुराण” इत्यादिना, न तु रुवि-भावेऽपि तन्निन्दा युक्ता, - ‘पूतना’ इत्यादेः । तथा चोक्तं पाद्मोत्तरखण्डे-
“स्वातन्त्र्यात् क्रियते कर्म न च वेोदितं महत् । विनैव भगवत्प्रीत्या ते वै पाषण्डिनः स्मृताः ॥ १०० ॥
इति प्रीतिरत्र तादृशरुचिः । तदेवमत्र शास्त्रानादरस्यैव निन्दा, न तु तदज्ञानस्य, - “धावन्निमील्य वा” इत्यादेः, गौतमीयतःत्रे त्विदमप्युक्तम्-
शोणितपानी होकर भी, जिघांसा बुद्धि हृदय में लेकर भी, कालकूट विष द्वारा स्तन को लिप्त करके भी स्तन दानकर पूतनाने धात्री गति प्राप्त की है। उक्त श्लोक का अभिप्राय यह है कि - कर्तृगत, कर्मगत, करणगत, गुरुतर दोष विद्यमान होने पर भी एक मात्र सम्प्रदान गत असामान्य गुण से, अर्थात् जिन को स्तनार्पण किया, वह सर्व दोषः पहारी श्रीहरि हैं, और ज्ञान क्रिया शक्तिप्रद परमात्मा हैं, पक्षान्तर में सर्वा कर्षक स्वयं भगवान श्रीकृष्ण हैं । पूतनाने धात्री गति प्राप्त की । अर्थात् उक्त असाधारण सम्प्रदानगत गुण ही धात्री गति का प्रापक हुआ । ऐसा होने पर, भक्त यदि श्रद्धा पूर्वक श्रीकृष्ण के प्रिय पदार्थ श्रीकृष्ण को प्रदान करता है तो वह भक्त जो सद् गति को प्राप्त करेगा, इस में कुछ भी सन्देहावकाश नहीं है। पक्षान्तर में बात्सल्य भाव से श्रीकृष्ण की अनुरागिणी जननी वृन्द जिस भाव से श्रीकृष्ण को प्रिय पदार्थ अर्पण करती हैं, उस भाव से अर्पण करने से जो सद्गति का लाभ होगा, इस में सन्देद क्या ? इस अभिप्राय से ही भा० ११।२०।३६ में श्रीभगवान् श्रीकृष्ण- उद्धव को कहे हैं-
“न मय्येकान्त भक्तानां, गुण दोषोद्भवाः गुणाः”
अर्थात् एकान्त भक्त वृन्द के गुग समूह - व्यवहारिक गुण दोष से उत्थित नहीं हैं। एकान्ती शब्द का अर्थ है-भक्ति निष्ठा । वह भक्ति निष्ठा रुचि से अथवा शास्त्रीय विधि प्रति पालन से ही होती है । रुचि - अत्यन्त विरल है, अर्थात् दुर्लभ है । अतएव यदि शास्त्रीय विधि का आदर विद्यमान नहीं होता है, तो, वह एकान्ती ही हो नहीं सकता है । यदि एकान्ती अभिमान साधक कर लेता है, तो वह दम्भ छल- कापटच मात्र ही है । अतएव रुचि हीन व्यक्ति को लक्ष्य करके ही “श्रुति स्मृति पुराणादि " वचन
वचन के द्वारा एकान्ती की निन्दा की गई है । किन्तु रुचि विद्यमान होने से एकाक्तित्व की निन्दा युक्ति युक्त नहीं है । कारण, पूतना लोक बालघ्नी कि पुनः श्रद्धया भक्तधा कृष्णाय परमात्मने यच्छन् प्रियतरं किं नु रक्तास्तन्मातरोयथा” इस श्लोक के द्वारा रुचिमान् जन के द्वारा अनुष्ठित भजन की प्रशंसा ही की गई है । इस अभिप्राय से हो पाद्मोत्तर खण्ड में उक्त है-
"
“स्वातन्त्र्यात् कियते कर्म न च वेदोदितं महत् ।
विनैव भगवत् प्रोत्या ते वं पाषण्डिनो स्मृताः ॥ १०० ॥
जो लोक भगवद् भजन में रुचि होन हैं, वे यदि शास्त्र शासनाधीन न होकर स्वतन्त्र रूप से महत् कर्म एवं अनुष्ठान भी करते हैं, तो उन सब को पाषण्डो जानना चाहिये । प्रीति शब्द का अर्थ, यहाँपर उस प्रकार रुचि है । अतएव जो लोक शास्त्र को अनादर करते हैं वे ही निन्दनीय हैं, ‘श्रुति स्मृति पुराणादि” श्लोक के द्वारा उस की निन्दा की गई है । किन्तु जो व्यक्ति – शास्त्र ज्ञान होन है, उस की निन्दा नहीं की
[[६३०]]
‘न जपो नार्चनं नैव ध्यानं नापि विधिक्रमः । केवलं सन्ततं कृष्णचरणाम्भोजभाविनाम् ॥ १०१० ॥
अजाततादृशरुचिना तु सद्विशेषादरमानादृता रागानुगापि वंधी संवलितैवानुष्ठेया, तथा लोकसंग्रहार्थं प्रतिष्ठितेन जात-तः दृशरुचिना च । अत्र मिश्रत्वे च यथायोग्यं रागानुगयँकी- कृत्यैव वैधी कर्त्तव्या । केचिदष्टादशाक्षरध्यानं गोदोहनसमय- वंशीवाद्यसमा कृष्-तत्तत्सर्व– मयत्वेन भावयन्ति, यथा चैके तादृशमुपासनं साक्षाद्व्रजजन - विशेषायेव मह्य ं श्रीगुरुचरणे- मंदभीष्टविशेष सिद्धयर्थमुपदिष्टं भावयामि, साक्षात्तु श्रीव्रजेन्द्रनन्दनं सेवमान एवास इति भावयन्ति । अथ “श्रुतिस्मृती ममैवाज्ञ” इत्यादि-निन्दित मात्रस्यावश्यक क्रिया-निषेधयो-
गई है । कारण भा० १११२ में उक्त है - “धाव निमील्य वा नेवे न स्खलेल पते दिह” श्रुति स्मृति ज्ञान होन व्यक्ति यदि शास्त्र विधि क्रम लङ्घन करके भी भजन करता है, तथापि उस का स्खलन पतन नहीं है । गौतमीय तन्त्र में उक्त है-
।
" न जपो नार्चनं नैवनैवध्यानं नापि विधिक्रमः ।
केवलं सन्ततं कृष्णचरणाम्भोज भाविनाम् ॥ १०१०॥
।
जो निरन्तर श्रीकृष्ण चरण कमल की चिन्ता करता रहता है, उसको जप, ध्यान, अर्चन, एवं विधिक्रम की अपेक्षा नहीं है । यद्यपि जो लोक श्रीकृष्ण में रागात्मिका भक्ति करते रहते हैं, उन के प्रति आदर विशेष होने से रागानुगा भक्ति आवृता होती है। तथापि जिनकी रुचि पूर्व वर्णित प्रकार से नहीं हुई है, अर्थात् भक्ति भिन्न अन्यत्र अनभिरुचित्व उत्पन्न नहीं हुई है, उन के पक्ष में रागानुगा भक्ति का अनुष्ठान भी वैधी सम्बलित ही करना कर्त्तव्य है । एवं जो लब्ध प्रतिष्ठ हैं, अर्थात् जिन का आचरण का अनुसरण अपर व्यक्ति करते रहते हैं, इस प्रकार अधिकारी व्यक्ति यदि पूर्व वर्णित जात रुचि सम्पन्न भी होते हैं, तथापि लोक शिक्षा हेतु वैधी संवलित रूप से ही रागानुगा का अनुष्ठान करना कर्तव्य है । उक्त उभय विध अधिकारी में यद्यपि रगानुगा भक्ति भी वैधी मिश्रिता है, तथापि उन के पक्ष में यथा सम्भव रागानुगा के सहित मिल करके ही वैधी का अनुष्ठान करना कर्त्तव्य है । कोई कोई व्यक्ति, अष्टादशाक्षर मन्त्र जप के समय, सप्तावरण के सहित श्रीकृष्ण का ध्यान करते हैं। एक ही समय में जहाँ पर श्रीराधह प्रभृति श्री कृष्ण प्रियवर्ग हैं, वहाँपर श्रीनन्द, श्रीबलदेव प्रभृति गुरु वर्ग की स्थिति कैसे हो सकती है ? कारण, वह तो भाव विरुद्ध है । उत्तर में समाधन इस प्रकार करते हैं-
श्रीकृष्ण, वंशी ध्वनि करते हैं, उस वंशी ध्वनि से आकृष्ट होकर समस्त व्यक्ति एकत्र मिलित होते हैं। इस प्रकार भावना करते हैं । किन्तु कतिपय रागानुना साधक, श्रीमन्त्र स्मरण समय में - यद्यपि मैं साक्षात् व्रजवासी जन विशेष हूँ, तथापि किसी दुर्देव के कारण मायामय जगत् में निथतित हूँ । परम कारुणिक श्रीगुरुदेव, मदीय अभीष्ट सिद्धि हेतु इस मन्त्र उपदेश किये हैं, इस रीति से जवादि करते हैं । साक्षात् रूप में किन्तु मैं श्रीव्रजेन्द्रनन्दन की सेवा ही कर रहा हूँ। इस प्रकार भावना करते हैं ।
'
“श्रुति स्मृति” इत्यादि श्लोकोक्त अवश्य कर्तव्य एवं निषिद्ध उल्लङ्घन भी द्विविध हैं। उक्त विधि निषेध - धर्मशास्त्र कथित एक प्रकार है, अपर प्रकार भक्ति शास्त्र कथित विधि निषेध उल्लङ्घन है । उस के मध्य में भगवद् भक्ति में दृढ़ विश्वास के कारण, अथवा दुःशीलता निबन्धन धर्म शास्त्रोक्त विधि निषेध अकरण वा करण से वैष्णव भाव से स्खलिल होना नहीं पड़ता है । कारण, भा० १११५ः४१ में उक्त है - “देवष भूताप्त नृणां पितृ णाम” जो सर्वान्तकरण से श्रीकृष्ण चरणों में शरण ग्रहण किया है, वह,
[[६३१]]रुल्लङ्घनं द्विविधम्, – तौ हि धर्मशास्त्रोक्तौ भक्तिशास्त्रोक्तौ चेति । तत्र भगवद्भक्तिविश्वासेन दौः शील्येन वा पूर्वयोरकरण-करणप्रत्यासत्तौ न वैष्णवभावाद् भ्रंशः, (भा० ११/५/४१) - “देवषिभूताप्तनृणाम्” इत्याद्युक्तेः, ( गी० ६।३०) ‘अपि चेत् सुदुराचारः” इत्याद्य क्तेश्च । तादृशरुचिमति तु तथैव रुच्या द्विष्टत्वादपुनर्भवाद्यानन्दस्यापि वाञ्छा नास्ति, किमुत परम- घृणास्पदस्य विकर्मानन्दस्य, अतस्तत्र स्वत एव न प्रवृत्तिः । प्रमादादिना कदाचिज्जातं चेद्विकर्म तत्क्षणादेव नश्यत्यपि, उक्तश्च (भा० ११।५।४२) - “चिकर्म यच्चोत्पतितं कथञ्चिद्-, धुनोति सर्वं हृदि सन्निविष्टः” इति । अथ यदि वैष्णवशास्त्रोक्तौ तौ तर्हि विष्णु सन्तोषैक- प्रयोजनावेव भवतः । तयोश्च तादृशत्वे श्रुते सति तदीयराग रुचिमतः स्वत एव प्रवृत्यप्रवृत्ती स्वाताम्, - तत् सन्तोषैकजीवनत्वात् प्रीतिजातेः अतएव न तत्र स्वानुगम्यमान रागात्मक सिद्ध- भक्तविशेषेण कृतत्वा कृतत्वयोरनुसन्धानञ्चापेक्ष्यं स्यात्, किन्तु तत्कृतत्वे सति विशेषेण ग्रहो
देव, ऋषि, पितृ, भूत एवं आत्मीय स्वजन के निकट ऋणी नहीं है, एवं किङ्कर भी नहीं है । अतएव उक्त प्रमाणानुसार जो, भक्ति मैं दृढ़ विश्वास हेतु धर्म शास्त्रोक्त विधि को लङ्ङ्घन करता है, उस को प्रत्यवाय भागी नहीं होना पड़ता है । जो व्यक्ति दुःशीलता हेतु शास्त्र निषिद्ध, परस्त्री गमन अथवा परद्रव्यादि अपहरण करता है, अथच अन्य देवता का भजन नहीं करता है, एकमात्र श्रीकृष्ण का ही भजन करता है, वह सुदुराचारी होने पर भी साधु शब्द से अभिहित होता है । कारण, श्रीमद् भगवद् गीता में उक्त है- ‘अविचेत् सुदुराचारः” अर्थात् श्रीकृष्ण स्वयं कहे हैं - यदि अन्य देवता का भजन न करके केवल मेरा भजन ही करता है, तो, वह सुदुराचार होने पर भी साधु है । इस प्रमाण से ज्ञात होता है कि-धर्म शास्त्रोक्त निषेध लङखन करके अन्य देवता की उपासना वर्जन पूर्वक श्रीकृष्ण भजन करने पर वैष्णव भाव विदूरित नहीं होता है । पूवोक्त लक्षणाक्रान्त रुचिमान भक्त के पक्ष में रचि के कारण, धर्म शास्त्रोक्त निषिद्ध आचरण के प्रति विद्व ेष बुद्धि होना स्वाभाविक है। कारण, श्रीकृष्ण भजन में रुचिमान् भक्त की इच्छा मोक्ष में ही नहीं रहती है, अनएव घृणित मायिक विषयों के प्रति विद्वेष स्वाभाविक रूप से ही होगा । यदि देवात् अनवधानता दशतः विकर्मं उपस्थित भी होता तो-वह तत् क्षणात विनष्ट हो जाता है । भा० १९१५०४२ में उक्ताभिप्राय को सुस्पष्ट रूप से कहा ।
।
“विकर्म यच्चोत्पतितं कथञ्चित् धूनोति सवं हृदि सन्निविष्टः ॥
अर्थात् श्रद्धालु भक्त के हृदय में यदि किसी प्रकार विक उपस्थित होता है तो, भक्त प्रिय श्रीहरि तत् क्षणात् उस को विदूरित कर देते हैं । अनन्तर वैष्णव शास्त्रोक्त विधि निषेध का विचार उपस्थित करते हैं। वैष्णव शास्त्रोक्त विधि निषेध का तात् पर्य श्रीविष्णु सन्तोष पर ही है. इस को सुनकर श्रीविष्णु सन्तोषक भजन में रुचिमान् व्यक्ति की स्वाभाविकी प्रवृत्ति एवं अप्रवृत्ति होती है । अर्थात् जो कार्य करने से विष्णु सन्तुष्ट होते हैं, उस में प्रवृत्ति होती है, एवं जिस प्रकार कार्य करने से श्रीविष्णु असन्तुष्ट होते हैं, उस से निवृत्ति बुद्धि स्वाभाविक रूप से होती है । कारण, प्रीति जाती का एकमात्र जीवन श्रीकृष्ण सन्तोष ही है । अतएव जिस प्रकार आचरण करने से श्रीकृष्ण सन्तोष होता है, रागानुगीय साधक - उस विवरण को सुनकर जो रागात्मक सिद्ध भक्त के आनुगत्य भजन करता रहता है, उस के द्वारा अपर कर्त्तव्याकर्त्तव्य अनुष्ठित हुआ है, अथवा नहीं इस विषय का अनुसन्धान करने की अपेक्षा उस साधक को नहीं रहता है। किन्तु जिस भक्तयङ्ग का अनुष्ठान करने से श्रीकृष्ण सन्तोष होता है, उस में भी
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भवतीत्येव विशेषः । अत्र क्वचिच्छास्त्रोक्त क्रमविध्यपेक्षा च रागरुच्येव प्रवत्तितेति रागानुगान्तःपात एव । ये च श्रीगोकुलादिविराजि-रागात्मिकानुगास्तत्परारते तु श्रीकृष्ण क्षेम- तत्संसर्गान्तरायाभावादिकाम्यात्मक तदभिप्राय-रीत्यैव वैष्णवलौकिक धग्र्मानुष्ठानं कुर्वन्ति । अतएव रागानुगायां रुचेरेव सद्धर्म्म प्रवर्त्तकत्वात् “श्रुतिस्मृती ममैवाज्ञ” इत्येतद्वाक्यस्य न तद्वर्त्मभक्तिविषयत्वम्, (गो० ६१३०) “अपि चेत् सुदुराचारः” इत्यादि-विरोधान्न च विधि- वर्त्मभक्तिविषयत्वम्, किन्तु वाह्यशास्त्रनिर्मित बुद्धर्षभ-दत्तात्रेयादि-भजन वर्त्मविषयत्वमेव । तथोक्तम्-
“वेदधर्मविरुद्धात्मा यदि देवं प्रपूजयेत् । स याति नरकं घोरं यावदाहूत संप्लवम् ॥ १०११॥ इति ।
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ラ
रागानुगायां विध्यत्तितायामपि न वेदवाह्यत्वम्, वेदवेदिक प्रसिद्धंव सा, -तत्र तत्र
सिद्ध रागात्मक भक्त की प्रेम परिपाटी में रुचि का उदय हुआ है। वह रागात्मक भक्त, उस भक्तयङ्ग का अनुष्ठान अति आदर के सहित करता है। इस प्रकार सुनने से विशेष आग्रह भक्तघङ्ग अनुष्ठान में होता । किसी किसी भक्तघङ्ग साधन में शास्त्र कथित क्रम विधि को अपेक्षा भी राग रुचिके द्वारा। ही प्रवत्तित होती है। अतएव शास्त्रोक्त क्रमविधि भी रामानुमा की ही अन्तर्वर्त्ती होती है। सार कथा यह है कि- रागरुचि के द्वारा जो जो भक्तचङ्ग अथवा विधि क्रम अनुष्ठित होता है, वह रागानुमा का ही अन्तर्भुक्त है ।
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जो साधक, श्रीगोकुलादि में विराजमान रागात्मिका अनुगत होने के कारण, श्रीगोकुल वासी के आचरण तत् पर हैं, वे - श्रीकृष्ण के मङ्गल हेतु एवं श्रीकृष्ण के सङ्ग लाभ के अन्तराय निवृत्ति हेतु कामनायुक्त होकर व्रज वासी जन गण के अभिप्रायानुसार ही लौकिक धर्मानुष्ठान करते हैं । अर्थात् कोई कोई रागानुगोय भक्त - श्रीशिवपूजा, सूर्य्य पूजा, सत्यनारायण पूजा, प्रभृति लौकिक धर्मानुष्ठान समूह श्रीकृष्ण के कल्याणार्थ करते हैं, एवं निज श्रीकृष्ण प्राप्ति अन्तराय दूरी करणार्थ अनुष्ठान भी करते हैं। अतएव रागानुगा में रुचि ही सद्धर्म का प्रवत्तक है । अतएव “श्रुति स्मृनीममैवाज्ञे” इत्यादि वाक्य रागानुगीय भक्त के पक्ष में प्रयोज्य नहीं है । “अपिचेत् सुदुराचारः” इत्यादि वाक्य के सहित विरोध उपस्थित होने के कारण, उक्त वाक्य विधि मार्ग के साधक के पक्ष में भी प्रयोज्य नहीं है । किन्तु वेद वाह्य शास्त्र निम्मित बुद्ध ऋषभ, दत्तात्रेय प्रभृति प्रदर्शित भजन मार्ग विषयक ही उस वाक्य को जानना होगा, अर्थात् श्रुति स्मृति पुराणोक्त विधि को बिना ऐकान्तिको श्रीहरि भक्ति, उत्पात के निमित्त होती है, अर्थात् श्रीहरि बहिर्मुखता सम्पादक होती हैं, यह कथा वैधी वा रागानुगा भक्ति में प्रयोज्य नहीं है, अर्थात् वैधी वा रागानुगीय साधक को लक्ष्य करके नहीं कहा गया है। किन्तु वेद वाह्य शास्त्र निर्मित बुद्ध, ऋषभ, एवं दत्तात्रेय प्रभृति के द्वारा प्रदर्शित भजन पथिक को लक्ष्य करक े ही कहा गया है । उस अभिप्राय से ही कहा गया है
कि
“वेदधर्मविरुद्धात्मा यदि देवं प्रपूजयेत्
स याति नरकं घोरं यावदाहूतसंप्लवम् ॥” १०११॥
अर्थात् यदि कोई वेद विरुद्ध आचरण परायण होकर एकान्तिक भाव से देव पूजा करता है तो, वह प्रलय काल पर्यन्त घोरतर नरक वासो होता है ।
रागानुगा भक्ति में विधि की अपेक्षा न होने पर भी रागानुगा भक्ति वेद वाह्य नहीं है, किन्तु वेद एवं वैदिक प्रसिद्धा है । कारण, वेद एवं वैदिक विधि में रागानुगीय भक्ति को रुचि है। वेद में यद्यपि बुद्ध,
श्रीभक्ति सन्दर्भः
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रुचित्वात् । वेदेषु बुद्धादीनान्तु वर्णनं वेदवाह्य विरुद्धत्वेनैव यथा भ(To १।३।२४ ) -
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“ततः कलौ संप्रवृत्ते सम्मोहाय सुरद्विषाम् ।
बुद्धो नाम्नाजिनसुतः कीकटेषु भविष्यति ॥ १०१२॥ इत्यादि ।
PE
तस्माद्भवत्येव रागानुगा समीचीना, तथा वैधीतोऽप्यतिशयवती च सा । मर्यादा वचनं ह्या वेशार्थमेवेति दर्शितम् । स पुनरावेशो यथा रुचिविशेषलक्षण मानस भावेन स्यात्, न तथा विधिप्रेरणया, स्वारसिक मनोधर्म्मत्वात्तस्य । तत्र चास्तां तावदनुकूलभावः, परमनिषिद्धेन प्रतिकूल भावेनाप्यावेशो झटिति स्थात्, तदावेश-सामर्थ्येन प्रातिकूल्य दोषहानिः स्यात्, सर्वानर्थनिवृत्तिश्च स्यादिति । भावमार्गस्य बलवत्त्वे दृष्टान्तोऽपि दृश्यते । तत्र यद्यनुकूल- भावः स्यात्तदा परमैकान्तिसाध्य एवासौ ।
अथ भावमार्गसामान्यस्य बलवत्त्वं दर्शयितुं प्रकरणमुत्थाप्यते, “श्रीयुधिष्ठिर उवाच (भा० ७११/१५)
(३१२) अहो अत्यद्भुतं ह्य ेतदुर्लभकान्तिनामपि ।
वासुदेवे परे तत्त्वे प्राप्तिश्चैद्यस्य विद्विषः ॥ ” १०१३॥
ऋषभ, एवं दत्तात्रेय का नामोल्लेख है, तथापि वह वर्णन वेद विरुद्धाचरण कारी रूप में ही हुआ है । अर्थात् उन सब का आचरण जो वेद विरुद्ध है, उसका वर्णन वेद एवं वेदानुगत शास्त्र में ही है । जिस प्रकार - श्रीभागवत ११३ २४ में उक्त है, –
“ततः कलौ संप्रवृत्ते सम्मोहाय सुरद्विषाम् ।
बुद्धो नाम्नाजिनसुतः कीकटेषु भविष्यति ॥ १०१२
अनन्तर कलियुग प्रवृत्त होने पर असुर वृन्द को मुग्ध करने के निमित्त गया प्रदेश में बुद्ध नामक अञ्जन पुत्र आविर्भूत होंगे । यह उक्ति सुस्पष्ट है । अतएव रागानुगा भक्ति हो समस्त भक्ति से समीचीना है - इस विषय में सन्देहावकाश नहीं है । वैधी भक्ति से भी रागानुगा भक्ति अतिशय महती है । शास्त्रीय जो मर्यादा है - अर्थात् विधि निशेश है-उस का उद्देश्य है- साधक मन को निज अभीष्ट देव में आविष्ट कराना । रुचि विशय लक्षण मानस भाव में जिस प्रकार मानस आवेश होता है, उस प्रकार आवेश, विधि प्रेरणा से नहीं होता है । कारण, रुचि - स्वारसिकी है, अर्थात् स्वाभाविक मनोधर्म है । उस के मध्य में अनुकूल भाव - और भी अधिकतर स्वाभाविक है । परम निषिद्ध प्रतिकूल भाव से भी अधिकतर अति सत्वर आवेश होता है । उस प्रकार आवेश से प्रतिकूल दोष विदूरित होता है, एवं सर्वानर्थ निवृत्ति भी होती है। जिस किसी प्रकार से हो, श्रीकृष्ण में आवेश होने से ही जीव का परम कल्याण साधित होता है । मानसिक भाव मार्ग की बलवत्ता के विषय मैं अनेक दृष्टान्त भी है। उस के मध्य में भाव मार्ग यदि अनुकूल भावात्मक होता है। तो ऐकान्तिक भक्त वृन्द के पक्ष में भी परमसाध्य होता है । अनन्तर साधारण भावमार्ग की बलवत्ता को प्रतिपादन करने के निमित्त प्रकरण उपस्थित करते हैं- भा० ७ १।१५ में श्रीयुधिष्ठिर महाराज देवर्षि नारद को कहे थे-
(३१२) “अहो अत्यद्भुतं ह्य ेतद् दुर्लभंकान्तिनामपि ।
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एकान्तिनां परमज्ञानिनामपि ॥