५४१ ३११
रागानुगायां प्रवृत्तिरपीदृशी (भा० १११८४०) -
(३११) “सन्तुष्टा श्रद्दधत्येतद्यथालाभेन जीवती ।
विहराम्यमुनैवाहमात्मना रमणेन वै ।” १०००
रागात्मिका भक्ति में उक्त क्रम की अपेक्षा है । अर्थात् रागात्मक भक्त का जो आनुगत्य स्वीकार किया हैं, उस के पक्ष में रागात्मक भक्त की परिपाटी का जो क्रम है, उस क्रम का अनुशीलन करना अवश्य कर्तव्य होता हैं । रागात्मिका की रुचि का वर्णन भा० १११- ३५ में इस प्रकार है-
(३१०) “सुहृत् प्रेष्ठतमो नाथ आत्मा च यं शरीरिणाम् ।
तं विक्रयात्मनैवाहं रमेऽनेन यथा रमा ॥ ६६६
पिङ्गला निर्विण्णा होकर कही थी, अनन्तर मैं सुहृत प्रियतम एवं निखिल शरीरो का आत्मा श्रीनारायण को आत्म समर्पण रूप मूल्य द्वारा क्रय करके लक्ष्मी जैसे रमण करती है, वसे रमण करूँगी । श्लोक का तात् पर्य्य यह है कि- श्रीनारायण के स्वाभाविक सौहृद्यादि धर्म के द्वारा स्वाभाविक पतित्व स्थापन कर श्रीनारायण भिन्न अन्य सब का औपाधिक पतित्व समझाया गया है। कारण, छन्दोग्य परिशिष्ट के अनुसार “पतावेकत्वं सा गता यस्माच्चरुमन्त्राहुति व्रता” वह रमणी निज पति के सहित चरुमन्त्र आहुति एवं मन्त्रादि के द्वारा एकात्मता को प्राप्त करती है । यहाँ पर सुस्पष्ट हुआ है कि - देहाभि मानी मानव के सहित यथार्थत, स्त्री की एकता नहीं है, किन्तु चरुमन्त्र आहुति प्रभृति के द्वारा ही एकात्मता आरोपित होती है। परमात्मा में किन्तु स्वभावतः ही एकात्मता विद्यमान है । अतः सुहृद् प्रेष्ठ- तम श्लोक में आत्म पद का प्रयोग हुआ है । इस प्रकार यद्यपि उन परमात्मा श्रीनारायण में पतित्व, आरोपित नहीं है, तथापि आत्म दान रूप मूल्य के द्वारा उन परमात्मा श्रीनारायण को विशेष रूप से क्रय करके जिस प्रकार कन्या विवाहात्मक आत्म समर्पण के द्वारा किसी पुरुष को पति रूप में ग्रहण कर के उस के सहित रमण करती है, उस प्रकार मैं भी श्रीनारायण के सहित रमण करूंगी। साक्षात् स्फूर्ति प्राप्त मनोहर रूप श्रीनारायण के सहित लक्ष्मी जिस प्रकार रमण करती है, मैं भी उस प्रकार रमण करूँगी । यहाँपर लक्ष्मी का राग में पिङ्गला को रुचि प्रदर्शित हुई है ॥३१०॥
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रागानुगा भक्ति में पिङ्गला की प्रवृत्ति भी अर्थात् कायिक वाचिक मानसिक वृत्ति की निम्नोक्त रूप से जानना होगा भा० ११।८।४०
श्रीभक्तिसदर्भः
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अमुनेति भावगर्भरमणेन सह, आत्मना मनसेव तावद्विह। मि-रुचि-प्रधानस्य मार्गस्यास्य मनः प्रधानत्वात् तत् प्रेयसीरूपेणासिद्धाया स्तादृशभजने प्रायो मनसैव युक्तत्वात् । अनेन श्रीमत्प्रतिमादौ तादृशीनामप्यौद्धत्यं परिहृतम् । एवं पितृत्वादि-भावेष्वप्यनुसन्धेयम् ॥ श्री पिङ्गला ॥
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