३१०

५३९ ३१०

तदेवं बंधी भक्तिर्दशिता अस्याश्वोक्तानामङ्गानामनुक्तानाञ्च कुरु चित् कस्याप्यङ्गस्यान्यत्र तु तदितरस्य यन्महिमाधिक्य वर्ण्यते, तत्तच्छुद्धा भेदेन तत्तत्-

कीर्तन से अर्चन का कुछ भी पार्थक्य नहीं होता है । यह आत्म समर्पण अङ्ग में साधक की स्नान, दन्त साधन प्रभृति क्रिया भी भगवत् सेवा के उपयोगी होने के कारण, आत्मसमर्पण रूपा भक्ति की हानि उस से नहीं होती है । यहाँ प्रश्न हो सकता है कि - यदि साधक, देह इन्द्रिय अत्मा प्रभृति सब कुछ भगवान्

। को अर्पण करता है, तो चिन्तां न कुर्य्यात् रक्षायै’ इस वचन के अनुसार उसकी स्नान शौचादि करने की जो चेष्टा होती है, वह कैसे सम्भव हैं ? उत्तर में कहते हैं- साधक के यह सब कृत्य, भगवत् सेवोपयोगी हैं, सुतरां यह सब आत्मसमर्पण रूपा भक्ति के बाधक नहीं हैं । अत्म समर्पण रूपा भक्ति का दृष्टान्त

श्रीबलि- महाराज में सुस्पष्ट रूप से है । भा० ७।६।२६ इस का वर्णन है । श्रीप्रह्लाद ने भी आत्म समर्पण का वर्णन यथार्थ रूप से किया है । “हे भ्रातृ गण ! तुम सब कह सकते हो, कि-धर्मार्थ काम यह त्रिवर्ग यदि पुरुषार्थ नहीं होते हैं, अर्थात् पुरुष प्रयोजन वस्तु नहीं हैं तो, आचाय्यं षण्ड अमर्क ने वेदोक्त रूप में उपदेश क्यों किया ? उस के उत्तर में कहता हूँ–सुनो। ‘धर्मार्थ कामः” धर्मार्थ काम यह त्रिवर्ग एवं उक्त त्रिवर्ग लाभ हेतु ईक्षा (आत्मविद्या) त्रयी (कर्म विद्या) नव (तर्क) दन ( दण्डनीति) निज जीविका प्रभृति वेदोक्त उपदेश समूह तब ही सत्य होते हैं, जब मानव, भगवच्चरणार विद में आत्म समर्पण करता है । भगवच्चरणों में आत्म समर्पण के बिना वेदोक्त समस्त साधन हो प्राण हीन देह को दूषित करने के समान व्यर्थ प्रयास होता है। यह है श्रीप्रह्लाद का अभिमत । श्रोभगवान् के मत में आत्म समर्पण प्रसङ्ग भा० ११।११।३४ में है - " मत्त्र्थ्यो यदा व्यक्त समस्त कर्मा निवेदितात्मा" श्रीकृष्ण, उद्धव को कहे थे - मरण धर्मा मनुष्य जिस समय समस्त काम्य कर्म त्याग कर मुझ को आत्म समर्पण करता है, उस समय उस भक्त के निमित्त कुछ करणीय मेरा है - इस प्रकार सङ्कल्प का उदय मुझ में होता है । उस समय वह भक्त, मेरा पार्षद देह प्राप्त कर मदीय समानैश्वर्य प्राप्त करने का योग्य होता है। यह आत्म निवेदन द्विविध हैं–

एक भावशून्य आत्म निवेदन - जिस प्रकार बलिमहाराज ने किया था। इस का विवरण “मय यत्रात्यक्त समस्त कर्मा’ में है । यह भावशून्य आत्म समर्पण का फल भगवान् के समान ऐश्वर्य्य प्राप्ति है । और द्वितीय - अर्थात् भावयुक्त आत्मसमर्पण - भा० ११।११३५ में ‘दास्येनात्म निवेदनम् ’ कथित है । अर्थात् दास्यादि किसी भाव के सहित आत्म समर्पण । उस का दृष्टान्त भा० १० ५२०३६ श्रीरुक्मिणी वाक्य में है । “आत्मापितश्च भवतः " श्रीरुक्मिणी ने श्रीकृष्ण को जो पत्र भेजा था - उस में कान्ताभाव के सहित अत्मसमर्पण था ।

जत

F139

श्रीशुक मुनि कहे थे - ३०६ ॥

५४० ३१०

उक्त रोति से वैधी भक्ति का वर्णन हुआ है, इस बंधी भक्ति के जो सब अङ्ग वर्णित हुये एवं जो सब अङ्ग वर्णित नहीं हुए हैं, वह सब भक्तचङ्ग की महिमा का वर्णन कहीं अधिक रूप से हुआ है, एवं शास्त्रान्तर में किन्तु अन्य भक्तयङ्ग की महिमा अधिक रूप से वर्णित हुई है। अर्थात् किसी स्थान

[[६२१]]

प्रभावोल्लासापेक्षयेति न परस्पर विरुद्धत्वम् । अधिकारिभेदेन ह्यौषधादीनामपि तादृशत्वं दृश्यते ।

अथ रागानुगा, तत्र विषयिणः स्वाभाविको विषयसंसर्गेच्छातिशयमयः प्रेमा रागः, यथा चक्षुरादीनां सौन्दर्य्यादौ, तादृश एवात्र भक्तस्य श्रीभगवत्यपि राग इत्युच्यते । स च रागो विशेषणभेदेन बहुधा दृश्यते (भा० ३।२५ ३८) - “येषामहं प्रिय आत्मा सुतश्च, सखा गुरुः सुहृदो देवमिष्टम्” इत्यादौ । तत्र प्रियो यथा तदीयप्रेयसीनाम्, आत्मा परब्रह्मरूपः श्रीसनकादीनाम्, सुतः श्रीव्रजेश्वरादीनाम्, सखा श्रीश्रीदामादीनाम्, गुरुः श्रीप्रद्युम्नादीनाम्, कस्यापि ‘भ्राता’, कस्यापि ‘मातुलेयः’, कस्यापि ‘वैवाहिकः’ इत्यादिरूपः, स एक एव तेषु

में एकादशी की महिमा अत्यधिक वर्णित है, और किसी स्थान में महा प्रसाद भोजन की महिमा सर्वाधिक रूप से णित है । उस का कारण यह है - उस उस भक्तयङ्ग में श्रद्धा भेद से उस उस भक्तयङ्ग का प्रभाव का उल्लास विशेष की अपेक्षा करके ही इस प्रकार महिमा वर्णित है । अतएव उस प्रकार महिमा वर्णन से अङ्गों में पारस्परिक विरोध उपस्थित नहीं होता है । जिस प्रकार औषध प्रभृति का प्रभावातिशय्य अधिकारी भेद से दृष्ट होता है । किसी रोगी के पक्ष में कोई औषधि सत्वर व्याधि उपशम करती है, और किसी के पक्ष में वह औषधि फल प्रद नहीं होती है ।

अनन्तर रागानु भक्ति का वर्णन करते हैं- विषयो का विषय के सहित संसर्ग के निमित्त स्वाभाविक अतिशय इच्छामय प्रेम का नाम राग है । जिस प्रकार चक्षु प्रभृति इद्रियवृन्द की सौन्दर्य ग्रहण निमित्त स्वाभाविक अतिशय तृष्णा होती है । उस प्रकार ही भक्ति जगत् में भक्त का श्रीभगवान् में स्वाभाविक आकुल पिपासामय प्रेम ही राग शब्द से कथित होता है । श्रीभक्ति रसामृत सिन्धु में राग का लक्षण निम्नोक्त रूप है-

“इष्टे स्वरिसकी ररागः परमाविष्टता भवेत् ।

तन्मयी या भवेतृष्णा साऽत्र रागात्मिकोच्यते ॥ "

अर्थात् अ नुकूल्य का विषय श्रीभगवान् में स्वाभाविकी प्रेममयी विपासा ही राग का स्वरूप लक्षण है । अभीष्ट विषय में परमाविष्टता- राग का तटस्थ लक्षण है । जैसे आकुल पिपासु व्यक्ति की जल में होती है । उस स्वाभाविक आकुल प्रेममयी पिपासा प्रेरित होकर जो निज अभीष्ट भगवान् में भक्ति की जाती है, उस का नाम ही रागात्मिका भक्ति है । वह राग भी विशेषण भेद से अर्थात् शान्त, दास्य, सख्य, वात्सल्य, मधुर भेद से बहु प्रकार हैं। इस विषय में भा० ३।२५।३८ में श्रीकपिल देव ने कहा है-

Follo

“येषामहं प्रियमात्नासुतश्च सखागुरुसुहृदो देव मिष्टम् "

हे मातः ! मैं जिस का प्रिय, अत्मा, पुत्र, सखा, हितोपदेष्टागुरु, हिताकाङ्क्षी सुहृद् एवं इष्ट देव । यहाँ प्रिय शब्द - जिस प्रकार तदीय प्रेयसी श्रीगोपी प्रभृति के सम्बन्ध में रखा, श्रीदाम प्रभृति के सम्बन्ध में, गुरु श्रीप्रद्युम्न प्रभृति के सम्बन्ध में, किसी का भ्राता, किसी का मातुलेय, किसी का वैवाहिक रूप में आत्मा - पर ब्रह्म रूप- श्रीसनकादि के सम्बन्ध में सुत - श्रीव्रजेश्वरादिक सम्बन्ध में एक ही भगवान् उन उन सम्बन्धान्वित भक्त के निकट एवं सुहृद् रूप में सम्बन्धि गण के निकट प्रकाशित होते हैं । तदीय सेवक दारुक प्रभृति के निकट इष्ट देवरूप में प्रकाशित होते हैं. यह प्रसिद्ध है ।

श्रीमती मोहिनी मूर्ति के प्रति महादेव का जो भाव प्रकट हुआ था, उस का अङ्गीकार यहाँ पर

[[६२२]] बहुप्रकारत्वेन सुहृदः सम्बन्धिनाम्, देवमिष्टं तदीयसेवकानां श्रीदारुकप्रभृतीनामिति प्रसिद्धम् । अत्र श्रीमत्यां मोहित्यां यः खलु रुद्रस्य भावो जातः, स तु नाङ्गीकृतोऽनुक्तत्वात्, तस्य मायामोहिततयैव तादृशभावाभ्युपगमाच्च ।

Ca

तदेवं तत्तदभिमानलक्षणभावविशेषेण स्वाभाविक रागस्य वैशिष्टे सति तत्तद्रामप्रयुक्त उ श्रवणकीर्त्तन-स्मरण-पादसेवन-वन्दनात्मनिवेदनप्राया भक्तिस्तेषां रागात्मिका भक्तिरित्युच्य ले तस्याश्च साध्यायां रागलक्षणायां भक्तिगङ्गायां तरङ्गरूपत्वात् साध्यत्वमेवेति, न तु साधन प्रकरणेऽस्मिन् प्रवेशः । अतो रहगानुगा कथ्यते । यस्थ पूर्वोक्ते रागविशेषे रुचिरेव जतारित, न तु रागविशेष एव स्वयम्, तस्य तादृशरागसुधाकर-कराभास- समुल्लसितहृदयर फटिकमणेः शास्त्रादिश्रुतासु तादृश्या रागात्मिकाया भक्तेः परिपाटीप्ब प रुचि जयते । ततस्तदीयं र मं रुच्यानुगच्छन्ती सा रागानुगा तस्यैव प्रवर्त्तते । एषैवाविहितेति केषः तु संज्ञा, रुचिमात्र- प्रवृत्त्या विधिप्रयुक्तत्वेनाप्रवृत्तत्वात् । न च वक्तव्यम्, बिध्यनधीनस्थ न सम्भवति भक्तिरिति, ( भा० २१७ )

नहीं हुआ । कारण, वह भाव असमीचीन होने के कारण, इस प्रसङ्ग में उल्लिखित नहीं हुआ। उस क कारण यह है कि- श्रीहरि की माया से मुग्ध होकर श्रीशङ्कर में कामभाव उप स्थत हुआ था ।

ऐसा होने पर उस उस कान्तादि अभिमान लक्षण भाव विशेष में स्वाभाविक राम का वैशिष्टय विद्यमान होने से भी उस उस राम से प्रेरित होकर जो श्रवण, कीर्त्तन, स्मरण, प. द सेवन, वन्दन, आत्म निवेदन - प्रधान भक्ति अनुष्ठित होती है- उस का नाम रामात्मिका भक्ति है । वह भक्ति, साध्या राग लक्षणा भक्ति गङ्गा में तरङ्ग के समान प्रकाशिता होती है । तज्जन्य उस रक्षा प्रेरित होकर अनुष्ठत भक्ति भी साध्या है । तात् पर्थ्य यह है कि- गङ्गा में जिस प्रकार तरङ्ग है, किन्तु वह तरङ्ग - गङ्गा से भिन्न वस्तु नहीं है, उस प्रकार ही साध्या-रामात्मिका गङ्गा में श्रवण कीर्तनादि भक्ति भी तरङ्ग के समान्त साध्या है। किन्तु साधन प्रकरण में उस श्रवण कीत्तनादि भक्ति का प्रवेश नहीं है । अर्थात् रागो भक्त जो श्रवण कीर्तनादि करते रहते हैं, उस का नाम साधन भक्ति नहीं है । वह साध्या भक्ति है । अनन्तर रागानुगा भक्ति का वर्णन करते हैं- जिस में पूर्व वर्णित राग विशेष में रुचि उत्पन्न हुई है, किन्तु स्वयं राग विशेष का उदय नहीं हुआ है, उस भक्त की - पूर्व वर्णित राग-सुधावर किरणाभास पतित होकर जो हृदयमणि उच्छलित होती है, वह शास्त्र, श्रीगुरु एवं साधुमुख से उस रागात्मिका भक्ति की जो परिपाटी है, अर्थात् कायिक, वाचिक, मानसिक प्रेम चेष्टा है, उस को सुनकर उस परिपाटी में अर्थात् चेष्टा में भी रुचि होती है। अभिप्राय यह है कि-भक्त का हृदय -स्फटिकमणि के समान स्वच्छ है, अर्थात् काम क्रोध प्रभृति दुष्ट भाव से दूषित नहीं है। उस भक्त की साधु शास्त्र एवं श्रीगुरु मुख से श्रवण कर रागात्मक भक्त के रा विशेष में रुचि होती है। उप भक्त को प्रेम मयी चेष्टा विशेष को चन्द्र किरण पतित होने से जिस प्रकार स्फ टकमणि उच्छलित होती है, उस प्रकार उस रामात्मक भक्त की प्रेममयी चेष्टा श्रवण रूप किरण च्छटा से - हृदय उच्छलित होकर उस की वह सब प्रेम चेष्टा में रुचि होती है। अतएव रुचि विशेष से प्रेरित होकर उस राग के अनुगत भाव से जो भक्ति अनुष्टिता होती है, उस का नाम रागानुगा है। रागानुगा भक्ति को कोई कोई व्यक्ति “अविहिता” नाम से कहते हैं। कारण

सुनकर

श्रीभक्तिसन्दभः

[[६२३]]

“प्रायेण मुनयो राजत् निवृत्ता विधिषेधतः ।

[[17]]

नर्गुण्यस्था रमन्ते स्म गुणानुकथने हरेः ॥ ६६७ ]

इत्यत्र श्रूयते । तत्तो विधिमार्गभक्ति विधिसापेक्षेति सा दुर्बला, इयन्तु स्वतन्त्रैव प्रवर्त्तत इति प्रबला च ज्ञेया । अतएवास्या जन्मलक्षणं भक्तिव्यतिरेकेणान्यानभिरुचित्वमित्याद्यपि ज्ञ ेयम्, यथोक्तं तृतीये श्रीविदुरेण भगवत्कथारुचितमुपलक्ष्य (२० ३।५११३)-

“सा श्रद्दधानस्य विवर्द्धमाना, विरक्तिमन्यत्र करोति पुंसः ।

हरेः पदानुस्मृति निर्वृतस्य, समस्तदुःखाप्ययमाशु धत्ते ॥ ६८ ॥

सा पूर्वोक्ता कथागृहीता मतिस्तद्र चिरित्यर्थः । विधिनिरपेक्षत्वादेव पूर्वाभ्यां दास्य- सख्वाभ्यामेतदीययोस्तयोर्भेदश्च ज्ञेयः । एवमेवोक्तम् (भा० ७।५।२४)- “तन्मन्येऽधीतमुत्तमम् " इति । अतएव विध्युक्त-क्रमोऽपि नास्यामत्यादृतः, किन्तु रागात्मिकाश्रुत-क्रम एव । तत्र रागात्मिकायां रुचिर्यथा ( ० १११८३५)

यह भक्ति, केवल रुचि मात्र से ही प्रवृत्ता होती है, किन्तु किसी भी अंश में विधि प्रेरणा प्रयुक्ता नहीं है । किन्तु यहाँ पर इस प्रकार कहना सङ्गत नहीं है-कि—जो व्यक्ति शास्त्र विधि का अनुगत नहीं है-उस में भक्ति हो ही नहीं सकती है ।

है-

कारण, भा० २।१।७ में श्रीशुक देवने कहा है

“प्रायेण मुनयोराजन् निवृत्ता विधिषेधतः । नैर्गुण्यस्था रमन्ते स्म गुणानुकथने हरेः ॥”

i

हे राजन् ! विधि एवं निषेध के अधीन न होकर भी प्रायशः मुनिगण, निर्गुण स्वरूप में अवस्थित होकर श्रीहरि के गुणानुकथन में रत होते हैं । यह प्रसिद्ध ही है । अतएव विधिमार्ग भक्ति में विधि की अपेक्षा होने के कारण यह भक्ति दुर्बला है, जो दूसरी को अपक्षा करता है, वह दुर्बल होता है, जो अन्य की अपेक्षा नहीं करता है, वह सबल है । यह रागानुगा भक्ति अपर को अपेक्षा न करके हो स्वतन्त्र रूप से प्रवृत्ता होती है, अतः यह प्रबला है 1 अतएव इस रामानुगा भक्ति का लक्षण भी भक्ति भिन्न अन्यत्र अनभिरुचित्व हो है । इस का अपर नाम रुचि चा लोभ है । भा० ३।५।१३ में भगवत् कथा रुचि को उपलक्ष्य करके श्रीविदुर ने कहा है-

“सा श्रद्दधानस्य विवर्द्धमाना, विरक्तिमन्यत्र करोति पुंसः ।

हरेः पदानुस्मृतिनिवृतस्य, समस्तदुः खाप्ययमाशु धत्ते । " ६६८ ॥

श्रीहरि कथा में जिस की मति प्रविष्ट होती है, उस श्रद्धालु व्यक्ति को ग्राम्य कथा प्रभृति में विरक्ति होती है, कारण, श्रीहरि के चरण ध्यान से जिस का हृदय सुखी होता है, उस का आशु समस्त दुःख विनष्ट होते हैं । यहाँ पर प्रयुक्त ‘मति’ शब्द का अर्थ रुचि है । विधि निरपेक्ष होने के कारण, विधि भक्ति में कथित दास्य, सख्य से रागानुगीय दास्य सख्य का भेद है। यह जानना होगा, अतएव भा० ७।५।२४ में उक्त है - “तन्मन्येऽधीत मुत्तमम्” इस में अध्ययन को कथा उल्लिखित होने के कारण - शास्त्र विधि की अपेक्षा सूचित हुई है । अतएव रागानुगा भक्ति में शास्त्र विधि में कथित क्रम का आदर नहीं है, किन्तु

[[६२४]]

(३१०) “सुहृत् प्रेष्ठतमो नाथ आत्मा चायं शरीरिणाम् ।

तं विक्रीयात्मनैवाहं रमेऽनेन यथा रमा । " ६६६ ॥

श्री भक्ति सन्दर्भः

अत्र स्वाभाविक सौहृद्यादिधम्मैस्तस्मिन्नेव स्वाभाविक-पतित्वं स्थापयित्वा परस्योपाधिक- पतित्वमित्यभिप्रेतम् । अन्यत्र - “यतादेकत्वं सा गता यस्माच्चरुमन्त्राहुतिव्रता” इति छन्दोग- परिशिष्टानुसारेण कृतिममेवात्मत्वम्, तस्मित् परमात्मनि तु स्वभावत एवेत्यात्मशब्दस्याप्यभि- प्रायः । एवं यद्यपि तस्मिन् पतित्वमनाहाय्यमेवास्ति तथाप्यात्मनैव मूल्य भूतेन तं विशेषतः क्रीत्वा यथान्यापि कन्या विवाहात्मकेन स्वात्मसमर्पणेन कञ्चित् पतित्वेनोपादत्ते, तथा- भावेनाश्रित्य नेन परममनोहर रूपेण तेन सह रमे, रमा लक्ष्मी- यथा । तदेवं तस्याः पिङ्गलायाः स्वरुचिदर्थोतिता ॥