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सम्प्रति आत्म निवेदन का वर्णन करते हैं—-नवधा भक्तघङ्ग के मध्य में यह नवम हैं । आत्मनिवेदन —- दो प्रकार के होते हैं । एक देह समर्पण, अपर शुद्ध आत्म समर्पण, समर्पण शब्द का अर्थ है, —सर्वतोभावेन श्रीभगवान् को दान करना। आत्मसमर्पण का कार्य है–स्वयं के निमित्त चेष्टा शून्यता उस में हो अर्पित निज साध्य साधन, एवं श्रीभगवान् के निमित्त कायिक, वाचिक, मानसिक चेष्टामयता । यह आत्म समर्पण गो विक्रय के तुल्य होता है। जिस प्रकार, गो विक्रय करने से गो विक्रय कारी व्यक्ति गोपालन पोषण में यत्न नहीं करता है। जिस को विक्रय किया गया है, वही कोत गोका मङ्गल साधक होता है । एवं जिसको विक्रय किया गया है, गो उसी का कार्य करता है, किन्तु जो विक्रय करता
है, उस का कुछ भी नहीं करता है, इस आत्मार्पण का दृष्टान्त भा० १०५२।३६ में है—
" तन्मे भवान् खलु वृतः पतिरङ्ग जाया मात्माप्तिश्च भवतोऽत्र विभो विधेहि "
श्रीरुक्मिणी देवी पत्र द्वारा श्रीकृष्ण को कही थीं “हे विभो ! मैंने आप को पति रूप में वरण किया है, एवं आत्म समर्पण भी किया है। आप मुझ को जाया रूप में निकट में स्थान दें “कतिपय व्यक्ति, देह समर्पण को ही आत्मार्पण मानते हैं, भक्ति विवेक ग्रन्थ में उस का उल्लेख है-
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के चिच्छुद्धक्षेत्रज्ञार्पण मेव, यथा श्रीमदालमन्दारु स्तोत्रे-
“वपुरादिषु योऽपि कोऽपि वा, गुणतोऽसानि यथातथाविधः ।
तदयं तव पादपद्यया–रहमद्य व मया समर्पितः ॥ ६६३ । इति ।
केचिच्च दक्षिणहस्तादिकमप्यर्पयन्तस्तेन तत्कर्म्ममात्र कुर्वते, न तु देहादिकर्मेत्याद्यपि दृश्यते । तदेतत् सर्वात्मकं सकार्य्यमात्मनिवेदनं यथा (भा० ६।४।१८-१०)
(३०८) “स वै मनः कृष्णपदारविन्दयो, वचांसि वैकुण्ठगुणानुवर्णने ।
करौ हरेर्मन्दिरमार्ज्जनादिषु, श्रुति चकाराच्युत-सत्कथोदये ॥ ६६४ ॥ मुकुन्दलिङ्गालय-दर्शने दृशौ तद्भृत्यगात्रस्परशेऽङ्गसङ्गमम् । घ्राणञ्च तत्पादसरोजसौरभे, श्रीमत्तुलस्या रसनां तदर्पिते ॥ ६६५॥ पादौ हरेः क्षेत्रपदानुसर्पणे, शिरो हृषीकेश-पदाभिवन्दने
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कामश्च दास्ये न तु कामकाम्यया, यथोत्तमश्लोकजनाश्रया रतिः ॥ ६६६ ॥ चकार अर्पयामास । कृष्णपदारविन्दयोरित्यादिकमुपलक्षणं तत् सेवादीनाम् । लिङ्ग श्री मूर्तिः, आलयस्तद्भक्तस्तन्मन्दिरादिः, श्रीमत्तुलस्यास्तत् पादसरोजसम्बन्धि यत् सौरभं
“चिन्तां कुर्य्यान्न रक्षायै विक्रीतस्य यथा पशोः ।
तथार्पयन् हरौदेहं विरमेदस्वरक्षणात् ॥ ६२ ॥
विक्रीत पशु रक्षा निबन्धन जिस प्रकार चिन्ता नहीं रहती है, उस प्रकार श्रीहरि को शरीरार्पण करके उस की रक्षा की चिन्ता से विरत होवे । अपर कुछ व्यक्ति-शुद्ध क्षेत्रज्ञापण अर्थात् जीवात्मार्पण ही आत्म समर्पण करते हैं । श्रीआलमन्दार स्तोत्र में इस का उदाहरण है ।
“वपुरादिषु योऽपि कोऽपि वा. गुणतोऽसानि यथा तथाविधः ।
तदयं तव पादपद्मयोरहमद्य व मया समर्पितः ॥ ६६३ ॥
मेरे देहादि के मध्य में जो कोई हो, एवं यथा यथ रूप में गुणतः जो कुछ हो –आज मैं तुम्हारे चरणों में समर्पित हो गया । और कोई तो दक्षिण हस्तादि को समर्पण करके उससे केवल श्रोभगवान के कार्य ही करते हैं, किन्तु दैहिक कर्म नहीं करते हैं, इस प्रकार आत्मार्पण भी दृष्ट होता है । यह आत्म समर्पण भक्ति, सर्व कार्य के सहित देह इन्द्रिय आत्मा पर्य्यन्त समर्पण श्रीअम्बरीष महाराज में दृष्ट होता है । भा० ४।१८- २० में उक्त है -
(३०१) “स वै मनः कृष्णरदारविन्दयो, र्वचांसि वैकुण्ट गुणानुवर्णने ।
करौ हरेर्मन्दिरमार्जनादिषु, श्रुति चकाराच्युत-सत्कयोदये ॥ ६६४॥ मुकुन्द लिङ्गालय दर्शने दृशौ तद्भूत्यगात्रस्परशेऽङ्गसङ्गमम् । घ्राणश्च तत्पादसरोज सौरभे, श्रीमत्तुलस्या रस्नां तदते ॥६६५ ॥
पादौ हरेः क्षेत्रपदानुरूपंणे, शिरो हृषीकेश-पदः भिवन्दने ।
कामञ्च दास्ये न तु कामकाम्यया, यथोत्तमश्लोकजनाश्रया रतिः ॥ ६६६॥
अम्बरीष महाराज, श्रीकृष्ण चरण युगल में मन को अर्पण किये थे । श्रीकृष्ण पदारविन्द शब्द सेश्रीभक्ति सन्दर्भः
तस्मित्, तदर्पिते महाप्रसादानादौ, कामं सङ्कल्प ं च दास्ये निमित्ते । कथं चकार ? यथा [ ६१६ येन प्रकारेण उत्तमश्लोक जनाश्रया रतिः सा भवेदिति । अत्र सर्वथा तत्रव सङ्घातात्म- निक्षेपः कृत इति वैशिष्टद्यापत्त्या स्मरणादि–मयोपासनस्यैवात्माप णत्वम् । एवमेवोक्तम् (भा० ११।१६।२०)—“श्रद्धामृतकथायां मे शश्वन्मदनुकीर्त्तनम्” इत्यारभ्य (भा० ११।१६।२४) “एवं धम्मैर्मनुष्याणाम्” इति । यथा स्मरण - कीर्त्तन- पादसेवनमय मुषः सनमेव आगमोक्तविधि- मयत्व- वैशिष्टया पत्त्याच्चनमित्य भिधीयते, ततो नाविविक्तत्वम् । स्नान-परिधानादिक्रिया चास्य भगवत्सेवा-योग्यत्वायैवेति, तत्रापि नात्मार्पणभक्ति हानिरित्यनुसन्धेयम् । एतदात्मार्पणं समझना होगा कि - श्रीकृष्ण के सेवादि कार्य सम्पादन हेतु सङ्कल्प किये थे । वाक्य समूह को श्रीकृष्ण गुणानु वर्णन में नियुक्त किये थे । हस्तद्वय को श्रीहरि मन्दिर मार्जनादि कार्य में रत किये थे । श्रुति- अर्थात् श्रवण इन्द्रिय को श्रीकृष्ण की पवित्र कथा का श्रवण में नियुक्त किये थे, नयन युगल को श्री मुकुन्द की मूर्ति दर्शन में भक्त दर्शन में एवं श्रीमन्दिरादि दर्शन में नियुक्त किये थे । भक्त गाव स्पर्श हेतु अङ्ग को श्रीमकुन्द नियुक्त किये थे । घ्राणेन्द्रिय को श्रीमती तुलसी सम्बन्ध युक्त भगवत् पद कमल सम्बन्धित सौरभ में नियुक्त किये थे । एवं रसना को महाप्रसाद आस्वादन में रत किये थे । चरण युगल को श्रीहरि क्षेत्र गमन में मस्तक को हृषीकेश श्रीकृष्ण के चरण बन्दन में एवं काम को अर्थात् सङ्कल्प को लाभ हेतु समर्पण किये थे । किन्तु विषय भोग सम्पादन हेतु कभी सङ्कल्प नहीं किये थे ।
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ग्रहण
भगवत् दास्य
किस अभिप्राय से आत्म समर्पण किए थे – उस को कहते हैं- जिस प्रकार के समर्पण करने से भगवद् भक्त जन के अनुगत भाव से श्रीहरि चरणों में प्रीति का उदय होता है-उस भाव से ही आत्म समर्पण किये थे । यहाँ पर सर्व प्रकार से श्रीभगवान् में देह इन्द्रिय प्रभृति आत्म निवेदन किये थे- यही समझाया गया है । आत्म समर्पण की वशिष्टध प्राप्ति लोला प्रभृति स्मरणादि कय उपासना में प्रकाशित होती है । इस का कथन भा० ११।१६।२० में उक्त है- “श्रद्धामृत कथायां मे
“श्रद्धामृत कथायां मे शश्वन्मदनुकीर्त्तनम् "
श्रीकृष्ण, उद्धव को कहे थे, मेरी अमृतमयी कथा में श्रद्धा, निरन्तर मेरे गुणादि कीर्तन, पूजा में परिनिष्ठा, ऋषि गण द्वारा कृत स्तुति के द्वारा मेरा स्तव, परिचर्या में आदर, सर्वाङ्ग द्वारा मुझ को नमस्कार, मेरी पूजा से भी मदीय भक्त पूजा में अधिक आदर, सर्वभूत में मैं विद्यमान हूँ- इस प्रकार मनोवृत्ति, मदीय सुखार्थ–: लौकिकी क्रिया, लौकिकी वाक्य के द्वारा मेरा गुण कीर्तन, स्झ को मन समर्पण मुझ को छोड़कर अन्य सङ्कल शून्यता, मेरे निमित्त अर्थ त्याग, भजन विरोधी अर्थ को परित्याग, दैहिक भोग एवं भोग साधन द्रव्य चन्दनादि को परित्याग, पुत्र लालन पालनादि सुखापेक्षा शू यता, एवं वैदिक कर्म, दान, होम, जा, व्रत, तपस्या प्रभृति का अनुष्ठान मदीय लाभ हेतु करे । हे उद्धव ! इस प्रकार धर्म के द्वारा जिस ने मुझ को आत्म निवेदन किया है। उस में मदीय प्रेम भक्ति का उदय होता है ! एवम्भूत लक्षणाक्रान्त भक्त के पक्ष में साधन एवं साध्य रूप कुछ भी प्रयोजन अवशेष नहीं रह जाता है । अर्थात् वह भक्त, सर्व साधन एवं साध्य सम्पत्ति प्राप्त कर कृतार्थ होता है । भा० ११।१६।२० “श्रद्धामृत कथायां में शश्वन्मदनुकीर्त्तन में से आरम्भ कर भा० ११।१६।२४ “एवं धर्मैर्मनुष्याणाम्” पर्य्यन्त उक्त विवरण कथित है ।
स्मरण कीर्त्तन पाद सेवनमय उपासना, यदि शास्त्रोक्तविधि वैशिष्टयमय होता है तो उस को अर्चन कहते हैं। कारण शास्त्रोक्त विधि बाहुल्यमय अर्चनाङ्ग - भक्ति से पृथक् विवेचित नहीं होता है, कारण, अच्च गङ्ग में जो विधि बाहुल्य है, स्मरण-कीर्त्तनादि में भी यदि वह विधि होती है तो, स्मरण
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श्रीबलावपि स्फुटं दृश्यते । उदाहृतञ्चेदमात्मार्पणम् (भा० ७।६।२६ ) - “धर्मार्थकाम ः " इत्यादिना श्रीप्रह्लादमते, (भा० १११२६।३४) - “मर्थ्यो यदा त्वत्तः समस्तक, निवेदितात्मा” इत्यादिना श्रीभगवन्मतेऽपि । तदेतदात्मनिवेदनं भावं बिना भाववैशिष्टेचन च दृश्यते, पूर्वं यथा - ‘मत्त्य यदा’ इत्यादि, उत्तरं यथैकादश एव (भा० ११।११।३५)–“दार येनात्मनिवेदनम् ’ इति । यथा च रुक्मिणी वाक्ये ( भा० १०५२।४६ ) - ‘अत्मार्पितश्च भवतः” इति । श्रीशकः ।
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