५३४ ३०८
एवश्व (भा० ४।१२।३७)
वासित्व है । सख्य भजन के द्वारा विशेष रूप से उस की उबुद्ध करना ही सुसाध्य है–दुःसाध्य नहीं है । इस अभिप्राय से ही भा० ७१४/३८ में श्रीप्रह्लाद ने कहा है–
(३०६) “कोऽतिप्रयासोऽसुरबालका हरे, - रुपासने स्वे हृदि छिद्रवत् सतः ।
स्वस्यात्मनः सख्युरशेषदेहिनां सामान्यतः किं विषयोपपादनः ॥ ६८६ ॥
हे असुर बालक वृन्द ! जो छिद्रवत् अर्थात् आकाशवत् अलिप्त भाव से सर्वदा वर्तमान हैं । समस्त देहि वृन्द के आत्मा अर्थात् शुद्ध स्वरूप हैं, जो सामान्यतः सर्वत्र निविशेष भाव से सखा अर्थात् वाह्यान्तर इन्द्रिय समूह की मायामय भोग सम्पत्ति दान करते रहते हैं। अतएव हित कारी हैं। उन श्रीहरि की उपासना के निमित्त अति प्रयास की आवश्यकता हो क्या है ? अतएव आरोपित नश्वर विषय स्त्री पुल प्रभृति उपार्जन के द्वारा क्या लाभ है ?
श्रीप्रह्लाद श्रीअसुर बालकों को कहे थे ॥ ३०६ ॥
५३५ ३०७
भक्त वृन्द के निकट श्रीभगवान् पारस्परिकसख्य भाव से आविष्ट होते हैं–उसका उदाहरण भा० ६१४ ६६ में इस प्रकार है-
PER
(३०७) “माय निर्बंद्ध हृदयाः साधवः समदर्शिनः ।
वशे कुर्वन्ति मां भक्तया सत् स्त्रियः सत् पति यथा ॥ " ० ॥
श्रीवैकुण्ड नाथ दुर्वासा मुनि को कहे थे–“हे मुने ! समदर्शी साधुगण, मुझ में नित्य बद्ध हृदय होकर सती रमणी जिस प्रकार सत् पति को वशीभूत करती है, उस प्रकार भक्ति द्वारा मुझ को वशीभूत करते हैं। इस दृष्टान्त के द्वारा अंशतः सख्यात्मिका भक्ति को लक्ष्य किया गया है। कारण, मूल श्लोक में सती रमणी एवं सत् पति का तृष्टान्त होने के कारण, कुछ अंश में सख्य भाव का प्रकाश हुआ है ।
श्रीवैकुण्ठ दुर्वासा को कहे थे ॥६०॥
५३६ ३०८
इस प्रकार भा० ४।१२।३७ में लिखित है-
श्रीभक्ति सन्दर्भः
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(३०८) “शान्ताः समदृशः शुद्धाः सर्वभूतानुरञ्जनाः ।
यान्त्यञ्जसाच्युतपदमच्युतप्रिय बान्धवाः ॥ " ६६१ ॥
अच्युत एव प्रियबान्धवो येषाम्, अच्युतस्य पदं तत्सनाथं लोकम् । अच्युत-शब्दावृत्त्या फलस्य केनाप्यंशेन व्यभिचारित्वं नेति दर्श्यते । श्रीमंत्रेयः ॥
५३७ ३०८
अथ आत्मनिवेदनम्, तच्च देहादिशुद्धात्मपर्यन्तस्य सर्व्वतोभावेन तरिम नेवार्पणम् । तत्काय्यं चात्मार्थचेष्टाशून्यत्वं तन्नचस्तात्मसाधन - साध्यत्वं तदर्थेक चेष्टामयत्वश्च । इदं ह्यात्मार्पणं गोविक्रयवत्, विक्रीतस्य गोर्वर्त्तनार्थ विक्रीतवता चेष्टा न क्रियते, तस्य च श्रेयः- साधकस्तं क्रीतवानेव स्यात् स च गौस्तस्यैव कर्म कुर्य्यात्, न पुनविक्रीतवतोऽपीति । इदमेवात्मार्पणं श्रीरुक्मिणीवाक्ये (भा० १० १५२।३६) - " तन्मे भवान् खलु वृतः पतिरङ्गजाया, मात्मापितश्च भवतोऽत्र विभो विधेहि” इति । अत्र केचिद्द हार्पणमेवात्मार्पणमिति मन्यन्ते, यथा भक्तिविवेके-
“चिन्तां कुर्य्यान्न रक्षायै विक्रीतस्य यथा पशोः । तथार्पणन् हरौ देहं विरमेदस्य रक्षणात् ॥ ६६ ॥
(३०८) “शान्ताः समदृशः शुद्धाः सर्वभूतानुरञ्जनाः ।
यान्त्यञ्जसाच्युत पदमच्युतप्रिय बान्धवाः ॥ ६६१॥
श्रीमंश्रेय ऋषि श्रीविदुर को जो कहे थे - उस में भी सख्य भाव का आभास उपलब्ध है-अच्युत श्रीकृष्ण ही जिन के प्रिय बान्धव हैं, वे सब प्रकार वासना शून्य हेतु शान्त हैं, स्वर्ग मोक्ष नरक में तुल्य दृष्टिता के कारण, अर्थात् इन तीनों में मानसिक आवेश होने से श्रीहरि चरणों में प्रीति का अन्तराय उपस्थित होता है । समदर्शी हैं, एवं सर्व भूतों में सुखद व्यवहारकारी हैं, इस प्रकार साधु गण, जहाँ श्रीकृष्ण विराजित हैं, उस अच्युत धाम को जाते हैं। मूल श्लोक में ‘अच्युत प्रिय बान्धवाः” एवं ‘अच्युत पद” उभय स्थान में अच्युत शब्द का प्रयोग होने से श्री भगवद्धाम प्राप्ति विषयक किसी भी अंश में सन्देह नहीं है, यह सूचित हुआ है ।
श्रीमैत्रेय कहे थे - ३०८ ॥