३०५

५३१ ३०६

अथ सख्यम्, तच हिताशंसनमयं बन्धुभावलक्षणम् (भा० १०।१४।३१) “६ न्मित्रं परमानन्दम्" इत्यत्र तथेव मित्र पदन्यासात् । यथा रामाच्चनचन्द्रिकायाम्-

“परिचर्थ्यापराः केचित् प्रासादादिषु शेरते । मनुष्यमिव तं द्रष्टुं व्यवहर्त्तु’ श्व बन्धुवत् ॥ ६८८। इति ।

अस्य चोत्तरत्र पाठः प्रेम विश्रम्भवद्भावनामयत्वेन दास्यादप्युक्तमत्वापेक्षया । किञ्च, परमेश्वरेऽपि यत् सख्यं शास्त्रे विधीयते तन्नाश्चर्यम्- “नादेवो देवमर्चयेत्” इति तद्भावस्यापि

श्री दास्य में ही था । किन्तु भोग काम में नहीं था। इस से दास्य में दास भावोचित निजप्रभु की सेवा व्यतीत अन्य कामना शून्यता का उदाहरण प्रस्तुत हुआ ।

श्रीशुक, कहे थे । ३०४ ॥

५३२ ३०५

उक्त दास्य सम्बन्ध से ही समस्त भजनों की श्रेष्ठतमता होती है । भा० ६०५/१६ में उक्त है-

(३०५ ) " यन्नाम श्रुतिमात्रेण पुमान् भवति निर्मल ।

तस्य तीर्थपदः किंवा दासानामवशिष्यते ॥ ८७॥

सम्बन्ध अवलम्बन से जो कुछ कार्य किया जाता है, वह भक्त एवं भगवान् – उभय के पक्ष में ही सुखप्रद होता है । इस अभिप्राय से ही दुर्वासा - अम्बरीष को कहे थे - तीर्थ पद भगवान् के यथा कथञ्चित नाम श्रवण के द्वारा ही मानव जब निर्मल होता है, अर्थात् श्रीनाम माथुर्थ्य आस्वादन के द्वारा धर्मादि मोक्ष पर्य्यन्त फल में तुच्छता बुद्धि होती है, तब सम्यक् भजन के द्वारा सुतरां मानव कृतार्थ होता है । एसा होने पर “मैं श्रीभगवान् का दास हूँ " इस अभिमान से जो श्रीभगवान् का भजन करते रहते हैं, उन के पक्ष में सर्व साधन एवं सर्व साध्य लाभ करने के मध्य में अवशेष क्या रह जाता है ?

अर्थात् श्रीभगवद् दास्य से अधिक लाभ कुछ भी नहीं है । दुर्वासाः श्रीमदम्बीष की कहे थे ॥ ३०५ । २०६ । अनन्तर सख्य का वर्णन करते हैं-श्रीभगवान् की हिताकाङ्क्षा भय बन्धुभाव का नाम सख्य है । भा० १०।१४ ३२ में लिखित है- " यन्मित्रं परमानन्दं” यहाँ परमानन्द पूर्ण ब्रह्म श्रीकृष्ण, व्रज वासीवृन्द के मित्र अर्थात् हिताकाङ्क्षी बन्धु हैं । इस उद्देश्य से ही मित्र पद का प्रयोग है । जिस प्रकार रामाच्चन चन्द्रिका में लिखित है-

“परिचर्थ्यापराः केचित् प्रासादादिषु शेरते । मनुष्यमिव तं द्रष्टु ं व्यवहर्त्ता च बन्धुवत् ॥ ८८

श्रीभगवान् को

मनुष्य के समान देखने के निमित्त एवं उन के सहित बन्धु जन के समान व्यवहार करने के निमित्त कतिपय सेवा परायण महाभागवत श्रीमन्दिर में ही शयन करते हैं । इस अभिप्राय से ही “श्रवणं कीर्तनं” श्लोक में दास्य के बाद, सख्य का उल्लेख हुआ है । दास्य के पश्चात्, सख्य का उल्लेख करने का कारण यह है, यद्यपि दास की सेवा सम्पत्ति है, तथापि साध्वस सङ्कोच एवं प्रचुर गौरव बुद्धि

श्री भक्तिसन्दर्भः

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विधानश्रवणात् । किन्तु तद्भावस्तत् सेवा विरुद्ध इति शुद्धभक्तं रुपेक्ष्यते । सख्यन्तु परम- सेवानुकूलमित्युपादीयत इति । तदेतत् साक्षाद्भजन तमकं दास्यं सख्यञ्च टीकायामपि दर्शितमस्ति (मा० १०/६१।३६) “तस्यैव मे सौहृद सख्य-मैत्री दास्यं पुनर्जग्मनि जन्मनि स्यात् " इत्यत्र श्रीदामविप्रवाक्ये, यथा-” श्रीकृष्णस्य भक्तवात्सल्यं दृष्ट्वा तद्भक्त प्रार्थयते,- तस्येति । सौहृदं प्रेम च, सख्यं हिताशंसनञ्च, मैत्री उपकारकत्वञ्च, दास्यं सेवकत्वञ्च तत्, समाहारैकवचनम्, तस्य तत्सम्बन्धिनो मे मम स्यात्, न तु विभूतिः” इत्येतत् । अत्र नवविधायां साध्यत्वात् प्रेमा नान्तर्भाव्यते, मैत्री तु सख्य एवान्तर्भाव्येति दास्य सख्ये द्वे एव गृहीते । अत्र च ताभ्यां कर्मर्पण-विश्वासौ न व्याख्यातौ - साक्षाद्भत्तित्वाभावात् । कर्मार्पणस्य फलं भक्तिविश्वासश्च भक्तयभिनिवेश हेतुरितीह पूर्व्वमुक्तम् । तच्च भगवद्विषय- हिताशंसनमयं सख्यम्, – भगवत्कृत हिताशंसनस्य नित्यत्वात् तेन सह तस्य नित्यसहवाचाञ्च । भजन विशेषेणापि विशिष्टं सम्पादयितुं नातिदुष्करं स्यादित्याह (भा० ७७३८)

होने के कारण भाव का दौर्बल्य सख्य में दासोचित सेवा तो है ही-साध्वस, सङ्कोच प्रभृति भी नहीं है । प्रत्युत बन्धु भाव प्रीति में विश्वास का प्राधान्य होने के कारण, सख्य में गौरवमय बुद्धि है ही नही परमेश्वर में असङ्कोच व्यवहारमय सख्य का विधान शास्त्र में दृष्ट होता है। यह आश्चर्य्य कर नहीं है । कारण ‘नादेवो देवमर्चयेत" इत्यादि शास्त्र वाक्य से ज्ञात होता है कि-देवता होकर ही देवता का अच्चन करना चाहिये । किन्तु, साधक अपने को देवता भावना करने से निज प्रभु की सेवा के सहित विरोध उपस्थित होगा । इस अभिप्राय से ही शुद्ध भक्तगण अभीष्ट देव के सहित निज अभेद भावना करने की विधि की उपेक्षा करते हैं । साक्षात् भजन स्वरूप दास्य एवं सख्य का वर्णन श्रीधर स्वामिपाद कृत भागवत टीका में भी है । भ० १०।८१।३६ में उक्त हैं-

“तस्यैव मे सौहृद सख्य मन्त्री दाप्यं पुनर्जन्मनि जन्मनि स्यात् ॥

श्रीदाम विप्र - श्रीकृष्ण के भक्त वात्सल्य को देखकर उनके चरणों में भक्ति प्रार्थना करते हुये कहे थे । मेरा जन्म जन्म में श्री कृष्ण के सम्बन्ध में प्रेम, सख्य ( हिनकामिता) मैत्री (उपकारिता दास- सेवकत्व हो, किन्तु विभूति प्राप्त करने का अभिलाष जैसे कभी न हो । यहाँ ज्ञातव्य यह है कि श्रवण कीर्तन रूपा नवधा भक्ति ही साधन रूपा है, नव विधा भक्ति के अन्तर्भुक्त प्रेम’ नहीं है। कारण यह नवधा भक्ति स धन के द्वारा ही प्रेम-साध्य अर्थात् प्राप्य है । मंत्री किन्तु - सख्य का ही अन्तर्भुक्त है । इस अभिप्राय से ही “श्रवणं कीर्त्तनं” श्लोक में दास्य सख्य का ग्रहण हुआ है । मंत्री का ग्रहण नहीं हुआ है । किन्तु यहाँपर अर्थात् विशुद्ध भक्ति के प्रसङ्ग में दास्य शब्द से कर्मर्पण एवं सख्य शब्द से विश्वास रूप अर्थ किया गया है । कारण, कर्मार्पण रूपा भक्ति में एवं विश्वास रूपा भक्ति में साक्षात् भक्ति धर्म का अभाव है । कर्मर्पण रूपा भक्ति का फल -साक्षात् भक्ति है, विश्व.स, भगवत् भक्ति सधन में अभिनिवेश के प्रति हेतु है । इस के पहले इस प्रकार कहा गया है। भगवद् विषयक हिताकाङ्क्षामय सख्य, भगवत् कृत हिताशंसन के नित्यत्व हेतु, एवं श्रीभगवान् के सहित सख्य भावाबलम्बी के सहवास हेतु भजन विशेष द्वारा सम्पादित होता है। अभिप्राय यह है कि - नित्य ही भगवत् भक्त का स्वभाव ही है - श्रीभगवान् की हिताक ङ्क्षा करना । एवं भक्त एवं भगवान् सर्वदा एकत्र अवस्थान करते हैं । कारण भा० ६४ में कथित है - ‘साधवो हृदयं मह्यं साधूनां हृदयन्त्वहं” अर्थात् भक्त भगवान् के नित्य सह

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(३०६) “कोऽतिप्रयासोऽसुरबालका हरे, -रुपासने स्वे हृदि छिद्रवत् सतः ।

स्वस्यात्मनः सख्युरशेष देहिनां सामान्यतः किं विषयोपपादनः ॥ ६८६ ॥

छिद्रवत् आकाशवदलितत्वेन सदा वर्त्तमानस्य, नातिप्रया से हेतुः सर्व्वेषां देहिनां यः स्व आत्माशुद्ध स्वरूपं तस्य, सामान्यतः सव्र्व्वत्र निर्विशेषतयैव सखा, यथावसरं वहिरन्तः करण- विषयादिलक्षण- मायिक्या निजप्रेमादिलक्षणामायिक्याश्च सम्पत्तेर्दानेन हिताशंसी यस्तस्य हरेः । तस्मादारोपितानां नश्वराणां विषयाणां जायापत्यादीना मुपार्जुनैः किमिति ।) श्रीप्रह्लादोऽसुरबालकान् ॥