५२८ ३०४
अथ दास्यम्, तच्च श्रीविष्णोर्दासम्मन्यत्वम्-
“जन्मान्तरसहस्र ेषु यस्य स्यान्मतिरीदृशी । दासोऽहं वासुदेवस्य सर्वान् लोकान् समुद्धरेत् ॥ ६८५॥
है कि - अनन्त स्वरूप भगवान् के नाम, रूप, गुण, लीला, परिकर, ऐश्वर्य्य, माधुर्य्यं प्रभृति का आनन्त्य को सुनकर दीन भाव से - ‘मेरी योग्यता स्मरण कीर्तन की नहीं है। मैं केवल श्रीचरणों में निपतित होकर नमस्कार ही करूंगा - इस प्रकार वन्दन - नमस्कार रूप अङ्ग का अवलम्बन श्रीअक्रूर के समान कोई से कोई अन्य करते हैं । यहाँ मुक्ति शब्द का अर्थ ‘मुक्ति’ सङ्गत नहीं है । कारण, एकवार मात्र नमस्कार ही मुक्ति समीपवर्ती होती है, विष्णु धर्मोत्तर में उक्त है-
“दुर्ग- संसार– कान्तार मपारमभिधावताम् ।
एकः कृष्णे नमस्कारो मुक्तितीरस्य देशिकः ॥ ९८४॥
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अपार दुर्गम संसारारण्य में जो भ्रमण करते रहते हैं-उन के पक्ष में श्रीकृष्ण को एकवार मात्र प्रणाम ही मुक्ति नदी तीर का प्रदर्शक होता है । “तत्तेऽनुकम्पांसुसमीक्ष्यमाणः " श्लोक में स्वामि पादने ‘सुसमीक्ष्यमाणः " का अर्थ ‘प्रतीक्षमाण’ किया है । अर्थात् जो व्यक्ति निजकृत कर्मफल भोग करता है, एवं " कब श्रीकृष्ण की कृपा होगी” प्रतिक्षण इस प्रकार प्रतीक्षा करता है । इस से बोध होता है कि निजकृत कर्म फल भोग, श्रीकृष्ण कृपा जनित नहीं है, किन्तु भोग में अनासक्त होकर कब श्रीकृष्ण कृपा करेंगे - इस प्रकार प्रतीक्षा है। श्री जीव गोस्वामि चरण के मत में ‘ससमीक्षमाण’ शब्द का अर्थ यह है- जो व्यक्ति, निजकृत कर्म भोग काल में प्रभु श्रीकृष्ण ही यह सब भोग प्रदान करते रहते हैं, अतएव पुत्रोत्पत्ति में भी श्रीकृष्ण कृपा, पुत्र मृत्यु में भी श्रीकृष्ण कृपा, इस प्रकार मानकर सर्वावस्था में ही सुखी होकर श्रीकृष्ण कृपा भावना करके हृदय के द्वारा किंवा वाक्य के द्वारा, अथवा शरीर द्वारा, नमस्कार करता है, वही मुक्ति पद श्रीकृष्ण चरणों में भ्रातृ वण्टन सम्पत्ति के समान अधिकारी है । इस नमस्कार रूप भक्तयङ्ग आचरण में विष्णु स्मृति प्रभृति में लिखित अपराध समूह की परित्याग करना अवश्य कर्त्तव्य है । (१) एकहस्त प्रणाम, (२) वस्त्रावृत देह में प्रणाम, (३) श्रीभगवान् के सम्मुख में प्रणाम, पृष्ठ भाग में वामभाग में प्रणाम अत्यन्त निकट में वा गर्भ मन्दिर में प्रणाम करना अपराध जनक है ।
श्रीब्रह्मा श्रीभगवान् को कहे थे ॥ ३०३ ॥
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अनन्तर दास्य भक्ति का वर्णन करते हैं- “मैं श्रीविष्णु का दास हूँ” इस प्रकार अभिमान से भक्ति का अनुष्ठान करने का नाम दास्य भक्ति है ।
“जन्मान्तर सहस्रषु यस्य यस्मान्मतिरीदृशी । दासोऽहं वासुदेवस्य सर्वान् लोकान् समुद्धरेत् ॥८५॥
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इत्युक्तलक्षणम् । अस्तु तावत्तद्भजन प्रयासः, केवलतादृशत्वाभिमानेनापि सिद्धिर्भवतीत्यभि- प्रेत्यैवोत्तरत्र निर्देशश्च तस्य, यथोक्तम्- ‘जन्मान्तर -’ इत्येतत्पद्यस्येवान्ते,-’ कि पुनस्तद्गत- प्राणाः पुरुषाः संयतेन्द्रियाः” इति । श्रीप्रह्लाद - स्तुतौ (भा० ७१६/५०) ‘तत्तेऽर्हत्तम’ इत्यादिपद्य तु नमः स्तुति-सर्व्वकर्मर्पण-परिचर्या चरणस्मृति-कथाश्रवणात्मकं दास्यं टीकायां सम्मतम् । श्रीमदुद्धववाक्ये च (भा० १११६/४६ ) -
“स्वयोपभुक्त स्त्रग् गन्ध-वासोऽलङ्कारचचिताः ।
उच्छिष्टभोजिनो दासास्तव मायां जयेम हि ॥ ६८६ ॥ इति ।
तत्र तत्र च कार्य्यद्वारेव निर्दिष्टम्, उदाहरणन्तु (भा० ६।४।१८-२० ) -
(३०४) “स वै मनः कृष्णपदारविन्दयोः” इत्यादौ,
“कामञ्च दास्ये न तु कामकाम्यय।” इति ।
चकारेति पूर्वेणान्वयः । कामं सङ्कल्पञ्च दास्ये निमित्ते एव, च-काराद्दासोऽहं तस्य दास्यमेतत् करोमीत्येवं सङ्कल्पितवानित्यर्थः, न तु कामकाम्यया स्वर्गादि-भोगेच्छ्या तं चकारेति वासनान्तर व्यवच्छेदः ॥ श्रीशुकः ॥
सहस्र सहस्र जन्म के सौभाग्य फल से “मैं वासुदेव का दास हूँ । इस प्रकार अभिमान का उदय जिस में हुआ है, वही समस्त लोक की उद्धार करता है। भजन करन की बात तो दूर है - “मैं भगवान् का दास हूँ” केवल इस प्रकार अभिमान से ही सर्वार्थ सिद्धि होती है, अर्थात् प्रेम भक्ति लाभ होती है । “जन्मान्तर सहस्रेषु’ इस प्रकार कथन के पश्चात् कहा गया है- ‘कि पुनस्तद् गत प्राणाः पुरुषाः संयतेन्द्रियः” अर्थात् “मैं वासुदेव का दास हूँ " इस प्रकार अभिमान से ही मानव, समस्त जीव को उद्धार कर सकता है, और जो व्यक्ति, भगवत् गत प्राण. संयत इन्द्रिय, वे समस्त जीवों को सुतरां उद्धार करने में सक्षम हैं। इस का सारार्थ यह है कि - " मैं वासुदेव का दास हूँ । इस प्रकार अभिमान से ही अन्य को कृतार्थ करने की सामर्थ्य होती है, सुतरां दासोचित आचरण करने से सब को कृतार्थ कर सकते हैं। भा० ७६।५० में श्रीप्रह्लाद ने श्रीनृसिंह को स्तव करके कहा है- “तत्तेऽर्हत्तम” नमस्कार, स्तुति, सर्व कर्मर्पण, परिचर्य्या, चरण स्मृति, एवं कथा श्रवण रूप दास्य’ ‘मैं श्रीविष्णु का दास हूँ” इस अभिमान का कार्य्य है । अर्थात् मैं श्रीविष्णु का दास हूँ, इस अभिमान से उक्त समस्त भक्तयङ्ग का अनुष्ठान करने से ही वह व्यक्ति कृतार्थ होता है । भा० ११।६।४६ में श्रीउद्धव ने भी कहा है-
“त्वयोपभुक्त स्रग् गन्ध-वः सोऽलङ्कारचचिताः ।
उच्छिष्टभोजिनो द.सास्तव मायां जयेम हि ॥ ६८६ ॥
हे भगवन् ! तुम्हारी मूर्ति में अर्पित मात्य, गन्ध, वस्त्र, अलङ्कार द्वारा विभूषित होकर, तुम्हारी उच्छिष्ट भोजन करके तुम्हारे दासाभिमानी हम सब अनायास से माया जय करने में सक्षम होंगे । किन्तु साक्षात् दास्य का उदाहरण भा० ६४१८-२० में है–
(३०४) ’ स वै मनः कृष्ण पदारविन्दयोः
[[79]]
“कामञ्च दास्ये न तु काम काम्यया
"
श्रीअम्बरीष महाराज श्रीकृष्ण पदारविन्द युगल में ‘मन’ अर्पण किये थे। एवं उनका सङ्कल्प भी
[[६१४]]
श्रीभक्तिसन्दभः