३०३

५२५ ३०३

अथ तथापि प्रामादिके भगवदपराधे पुनर्भगवत्प्रसादनानि कर्त्तव्यानि, स्था स्कान्दे अवन्तिखण्डे श्रीव्यासोक्तौ-

“अहन्यहनि यो मत्य गीताध्यायं पठेत्तु वै । द्वात्रिंशदपराधांस्तु क्षमते तस्य केशवः ॥ ” ६७३ ॥ इति । तत्रैव द्वारकामाहात्म्ये -

“सहस्रनाममाहात्म्यं यः पठेच्छ णुयादपि । अपराध सहस्र ेण न स लिप्येत् कदाचन ॥ " ६७४ । इति ।

C

हैं। कुमेधा कौन है ? उस को कहते हैं जो विद्यामद से, धनमद से कुलमद से एवं सत् कर्ममद् से मत्तहोकर अकिञ्चन भक्त वृन्द की अवमानन करता है, इस प्रकार कुमेधा गण की पूजा श्रीहरि, ग्रहण नहीं बरते हैं, अधन होकर भी वे आत्मघना हैं, अर्थात् श्रीभगवान् ही उन के एक मात्र थन हैं । रसज्ञ शब्द का अर्थ ‘भक्ति रसज्ञ है । भक्ति रसज्ञ श्री हरि हैं, अध्ययन, धन, कुल, कर्म द्वारा अभिमान ग्रस्त व्यक्ति हो कुमनीयी होते हैं। पाप - शब्द का अर्थ है - अपराध । श्रीनारद प्रचेता गण को कहे थे । ३०१॥

५२६ ३०२

भा० ५।१०।२५ में लिखित है-

(३०२) " न विक्रिया विश्वसुहृत्सखस्य, साम्येन बीताभिमतेस्तवापि

महद्विमानात् स्वकृताद्धि मादृङ्, - नङ क्ष्यत्यदूरादपि शूलपाणिः ॥ ६७२

श्रीरहूगण - जड़ भरत को कहे थे - हे प्रभो ! आप के समान महापुराण वृन्द के चरणों में जो व्यक्ति, अवज्ञा रूप अपराध करता है, उस का सर्वनाश होता है। महापुरुष का स्वभाव है कि, -क्षोभ का विषय उपस्थित न होने पर भी क्षुब्ध न होना, तब अवज्ञा करने से महापुरुष क्षुब्ध क्यों होंगे, और उस से अमर्यादा कारी का अपराध क्यों हे गा ? उत्तर में कहते हैं- यद्यपि आप सब विश्ववासी सब के हितकारी है एवं सखा है. अतएव सर्वत्र समबुद्धि हेतु निजदेह में अभिमान शून्य होने के कारण अमर्यादा

से आप सब क्षुब्ध नहीं होते हैं - यह सत्य हैं। तथापि महादेव का अपमान करने से अशु विनष्ट होता है ।

के

तुल्य अति समर्थ भदृश व्यक्ति भी महत् रहूगण - श्रीभरत को कहे थे ॥ ३०२ ॥

५२७ ३०३

महापुरुष की अमर्य्यादा से सर्वनाश होता है, यह जानकर भी यदि अनवधान से श्रीभगवत् चरणों में अपराध उपस्थित होता है तो पुनर्वार भगवत् सन्तोष कर कार्य्य करना आवश्यक है भगवत् सन्तोष कर कार्य किस प्रकार है - उम्र का वर्णन करते हैं। स्कन्द पुराण के अवन्ती खण्ड में श्रीव्यास कहे हैं-

“अहन्यहनि यो मत्यों गीताध्यायं पठेत्तु वै ।

द्वात्रिंशदपराधांस्तु क्षमते तस्य केशवः ॥” ६७३

जो मानव, प्रतिदिन एक अध्याय गीता पाठ करता है, केशव, उस के द्वात्रिंशदपराधक्षमा करते हैं, स्कन्द पुराण के द्वारका माहात्म्य में लिखित है-श्रीभक्तिसदर्भः

[[६०६]]

तत्रैव रेवाखण्डे -

"

“द्वादश्यां जागरे विष्णोर्यः पठेत्तुलसीस्तवम् । द्वात्रिंशदपराधानि क्षमते तस्य केशवः ॥ ” ६७५॥ इति । तत्रैवान्यत्र -

R

“तुलस्या रोपणं काय्र्य्यं श्रवणेन विशेषतः । अपराधसहस्राणि क्षमते पुरुषोत्तमः ॥ ९७६ ॥

तत्रैवान्यत्र कात्तिक माहात्म्ये-

" तुलस्या कुरुते यस्तु शालग्राम शिलार्चनम् । द्वात्रिंशदपराधांश्च क्षमते तस्य केशव ॥ ९७७॥ इति,

अन्यत्र -

“यः करोति हरेः पूजां कृष्णशस्त्राङ्कितो नरः । अपराधसहस्राणि नित्यं हरति केशवः ॥७८॥ इति । आदिवाराहे-

STP

“संवत्सरस्य मध्ये तु तीर्थे शौकरके मम । कृतोपवासः स्नानेन गङ्गायां शुद्धिमाप्नुयात् ॥७६॥ मथुरायां तथाप्येवं सापराधः शुचिर्भवेत् । अनयोस्तीर्थयोरेकं यः सेवेत् सुकृती नरः । सहस्र जन्मजनितानपराधान् जहाति सः ॥ ६८० ॥ इति ।

“सहस्रनाममाहात्म्यं यः पठेच्छ णुयादपि ।

अपराधसहस्र ेण न स लिप्येत् कदाचन ॥ " ६७४॥

B

जो प्रत्यह सहस्र नाम माहात्म्य पाठ करता है । अथवा श्रवण करता है । वह सहस्र सहस्र अपराध से भी कभी लिप्त नहीं होता है । स्कन्द पुराण के रेवाखण्ड में लिखित है

“द्वादश्यां जागरे विष्णोर्यः पठेत्तुलसीस्तवम् ।

द्वात्रिंशदपराधानि क्षमते तस्य केशवः ॥ " ६७५॥

द्वादशी व्रत में जो मानव जागरण करके तुलसी स्तव पाठ करता है - केशव, श्रीविष्णुचरणों में कृत उस के द्वात्रिंशदपराध क्षमा करते हैं। उक्त पुराण के अन्यत्र लिखित है-

“तुलस्या रोपणं काय्यं भवणेन विशेषतः ।

अपराधसहस्राणि क्षमते पुरुषोत्तमः ॥ ९७६ ॥

तुलसी रोपन करना कर्त्तव्य है। श्रावण मास में रोपण से विशेष फल होता है। पुरुषोत्तम-रोपण कारी के सहस्र सहस्र अपराध क्षमा करते हैं । उस पुराण के अन्यत्र कार्तिक माहात्म्य में लिखित है-

“तुलस्या कुरुते यस्तु शालग्राम शिलाच्चैनम् ।

द्वात्रिंशदपराधांश्च क्षमते तस्य केशवः ॥७७॥

जो मानव, तुलसी द्वारा शालग्राम शिलाच्र्च्चन करता है, केशव, उसके द्वात्रिंशत् अपराध क्षमा करते हैं । अन्यत्र भी इष्ट होता है-

“यः करोति हरेः पूजां कृष्णशस्त्राङ्कितो नरः ।

अपराधसहस्राणि नित्यं हरति केशवः ॥ ६७८ ॥

जो व्यक्ति, श्रीकृष्ण के शङ्क चक्र गदापद्म शस्त्र से अङ्कित होकर श्री हरि की पूजा करता है, केशव, नित्य उस के सहस्र सहस्र अपराध क्षमा करते हैं। आदि वाराह पुराण में लिखित है-

“संवत्सरस्य मध्ये तु तीर्थे शौकरके मम ।

तु

कृतोपवासः स्नानेन गङ्गायां शुद्धिमाप्नुयात् ॥६७॥

[[६१०]]

श्रीभक्तिसन्दर्भ

शौकरके शूकरक्षेत्राख्ये । महदपराधस्तु चाटुकारादिना वा तत्प्रीत्यर्थ कृतेन निरन्तर- दीर्घकालीन - भगवन्नामकीर्त्तनेन वा तं प्रसाद्य क्षमापणीय इत्यवोचामैव तत्प्रसादं विना तदसिद्धेः । अतएवोक्तं श्रीशिवं प्रति दक्षेण (भा० ४।७।१५) -

“योऽसौ मयाविदिततत्त्वदृशा सभायां क्षिप्तो दुरुक्तिविशिखेविगणय्य तन्माम् ।

द्र

अर्वाक् पतन्तमरहत्तम निन्दयापाद्-दृष्ट्या या स भगवान् स्वकृतेन तुध्येत् ॥ ६८१ ॥ एवमुत्तरत्रापि ज्ञ ेयम् ।

अथ वन्दनम्, - तच्च यद्यप्यच्चनाङ्गत्वेनापि वर्त्तते, तथापि कीर्त्तन - स्मरणवत् स्वातन्त्र्येणा- पीत्यभिप्रेत्य पृथग्विधीयते । एवमन्यत्रापि ज्ञेयम् । वन्दनस्य पृथग्विधानं चानन्तगुणैश्वर्य्य- श्रवणात् तद्गुणानुसन्धान- पादसेवादौ विधृतदैन्यानां नमस्कारमात्रे कृताध्यवसायानामर्थे । स एष नमस्कारस्तस्याच्चनत्वेनाप्यतिदिष्टः, यथा नारसिंहे-

“नमस्कारः स्मृतो यज्ञः सर्वयज्ञेषु चोत्तमः । नमस्कारेण चैकेन साष्टाङ्ग

ेन हरिं व्रजेत् ॥६८२ ॥ इति ।

मथुरायां तथाप्येवं सापराधः शुचिर्भवेत् । अनयोस्तीर्थयोरेकं यः सेवेत् सुकृती नरः । सहस्रजन्मजनितानपराधात् जहाति सः ॥

८०

जो व्यक्ति, एकवत्सर के मध्य में मेरा वराह तीर्थ गङ्गा में स्नान करके उपवास करता है, वह शुद्ध होता है। इस प्रकार मथुरा में जो व्यक्ति, यमुना स्नान करके उपवास करता है, वह अपराधी होने पर भा पवित्र होता है । वराह क्षेत्र वा मथुराक्षेत्र इन दोनों क्षेत्र के मध्य में किसी एक की सेवा किस सौभाग्यशाली व्यक्ति करता है । वह सहस्र जन्म जनित अपराध से मुक्त होता है । शौकरक शब्द से शूकर क्षेत्र को जानना होगा । महत् के निकट अपराध उपस्थित होने पर महत् के निकट दैन्य विनयादि द्वारा अथवा महत् प्रीति हेतु निरन्तर दीर्घ काल व्यापी श्रीभगवन्नाम कीर्तन के द्वारा क्षमा करना अवश्य कर्त्तव्य है । इस का कथन पहले ही हुआ है । कारण, महत् की प्रसन्नता को छोड़कर अपराध क्षमा नहीं हो सकती है । अनएव दक्ष प्रजापति श्रीशिव को भा० ४।७।१५ में कहे हैं-

“योऽसौ मयाविदिततत्त्वदृशा सभायां, क्षिप्तो दुरुक्तिविशिखैविगणय्य तन्माम् ।

अर्वाक् पतन्तमरहत्तमनिन्दयापाद्- दृष्टचाद्री या स भगवान् स्वकृतेन तुष्येत् ॥ ६८१॥

मैं तत्त्व दृष्टि शून्य होने के कारण सभा में तुम्हें दुर्वाक्य रूप वाण के द्वारा तिरस्कार एवं विद्ध किया हूँ, तुम महत्तम हो, तुम्हारी निन्दा से पतिती मुझ को अपराध न मानकर स्नेहार्द्र दृष्टि से तुमने पालन किया है । तुम भगवान् हो निजकृत परानुग्रह से ही सन्तुष्ट रहते हो, मैं निजकृत अपराध का प्रतीकार करने में सक्षम नहीं हूँ । इस के बाद भो इस रोति को समझना चाहिये ।

अनन्तर वन्दन का वर्णन करते हैं- यद्यपि यह नमस्कारात्मक वन्दनाङ्ग भक्ति-अर्चन मागं के अङ्ग रूप में भी है, तथापि कीर्त्तन एवं स्मरणाङ्ग के समान वन्दनाङ्ग का स्वतन्त्र भाव से प्राधान्य है- इस अभिप्राय से ही पृथक् विधान हुआ है। इस प्रकार अन्य भक्तचङ्ग को भी जानना चाहिये । कतिपय भक्त, श्रीभगवान् के अनन्त गुण एवं ऐश्वर्य श्रवण करके सम्भ्रान्त हृदय से उस उस गुणानुसन्धान एवं चरण सेवा प्रभृति में अपना अधिकार नहीं है, इस प्रकार दैन्याक्रान्त होकर केवल नमस्कार करने में कृतसंङ्कल्प होते हैं, उन के निमित्त ही इस वन्दनाङ्ग को पृथक् रूप से लिखा गया है। इस नमस्काराङ्ग

तदेतद्वन्दनं यथा ( भा० १०।१४१८)

(३०३) “तत्तेऽनुकम्पां सुसमीक्षमाणो, भुञ्जान एवात्मकृतं विपाकम् ।

हृद्वाग्वपुर्भािविदधन्नमस्ते, जीवेत यो मुक्तिपदे स दायभाक् ॥ ६८३ ॥

[[६११]]

TERE

यस्मात् (भा० १०।१४।७) “गुणात्मनस्तेऽपि गुणान् विमातुम्” इत्यादिना तादृशत्वमुच्यते, तत् तस्मात्, ‘नमः’ नमस्कारम्, मुक्तिपदे नवमपदार्थस्य मुक्तेरप्याश्रये परिपूर्ण दशमपदार्थे, यद्वा, मुक्तिरिह पञ्चमस्थ-गद्यानुसारेण प्रेमैव तत्पदे तद्विषये परिपूर्ण भगवल्लक्षणे त्वयि दायभाग् भवति-भ्रातृवण्टन इव त्वं तस्य दायत्वेन वर्त्तस इत्यर्थः, त्वं तस्य सुवशो को श्रीविष्णु के अच्चन रूप में भी कहा गया है। नरसिंह पुराण में उक्त है-

“नमस्कारः स्मृतो यज्ञः सर्वयज्ञ ेषु चोत्तमः ।

नमस्कारेण चैकेन साष्टाङ्ग ेन हरि व्रजेत् ॥ ६८२

समस्त यज्ञों के मध्य में नमस्कार को ही उत्तम यज्ञ कहा गया है । एकवार साष्टाङ्ग प्रणाम के द्वारा श्रीहरि को प्राप्त कर सकते हैं। पूर्वोक्त बन्दनाङ्ग का उदाहरण भा० १०।१४१८ में इस प्रकार है-

(३०३) तत्तेऽनुकम्पां सुसमीक्षमाणो, भुञ्जान एवात्मकृतं विपाकम् ।

हृद्वाग्वपुर्भिविदधन्नमस्ते, जीवेत यो मुक्तिपदे स दायभाक् ॥ ९८३ ॥

श्रीब्रह्मा श्रीकृष्ण को कहे थे - हे नाथ ! तुम निखिल गुणाकर हो, गुण समूह का परिमाण करने में कोई भी समर्थ नहीं है । तज्जन्य जो व्यक्ति, तुम्हारी कृपा के प्रति दृष्टि रखकर निज कृत विविध कर्म फल को भोगता रहता है, एवं काय, वाक्य, मन से तुम को प्रणाम करता है, अर्थात् सुख वा दुःख उपस्थित होने से उस को प्रभु की कृपा मानता है, कारण, निजकृत कर्म फल भोग का अवसान न होने से श्रीचरण प्राप्ति की सम्भावना ही नहीं है, अतएव श्रीप्रभु सुख भोग के द्वारा मेरा पुण्य बन्धन को सुख भोग के द्वारा विनष्ट कर देते हैं एवं दुःख भोग के द्वारा पाप बन्धन विनष्ट कर देते हैं। इस प्रकार जो व्यक्ति दुःख से उद्विग्न नहीं होता है, एवं सुख भोग हेतु अभिलाष नहीं करता है, किन्तु प्रत्येक कार्य में ही चातक जिस प्रकार नवीन मेघमुक्त जल के अभिलाषी होकर रहता है, उस प्रकार अपार करुणामय की कृपा कब होगी, इस आशा से ही जीवन धारण करता है, वही मुक्ति पद का अधिकारी है, अर्थात् भ्रातृ वण्टन सम्पत्ति के समान तुम को वह प्राप्त करता है । उक्त न्याय से सब ही व्यक्ति उत्तराधिकारी सूत्र से भगवत् प्राप्ति का अधिकारी हैं, इस आशङ्का निवारण हेतु कहते हैं, ‘जीवेत’ अर्थात् भ्रातृवण्टन सम्पत्ति का अधिकारी जीवित व्यक्ति है, मृत व्यक्ति नहीं, उस प्रकार जो व्यक्ति जीवित है, वही भगवत् चरणारविन्द लाभ का अधिकारी है । यहाँ ‘जीवित’ शब्द का अर्थ भजन अनुष्ठान में रत रहना है । अर्थात् जो व्यक्ति भगवच्चरणों में भक्ति करता है, वही जीवित है, तद्वयतीत अपर जीवित शव है । अर्थात् जिस जीवन में का स्पन्दन नहीं है, वही जीवन शव सदृश है : मूल श्लोक में ‘मुक्तिपदे” शब्द का उल्लेख है- उस का अर्थ भक्ति भगवद् इस प्रकार है - प्रथमतो मुक्तिपद शब्द के अर्थ द्विविध हैं । प्रथम अर्थ - विश्वसर्ग विसर्ग, — यह दश पदार्थ के मध्य में नवम पदार्थ रूप जो मुक्ति है-उस का आश्रय, परिपूर्ण दशम आश्रय पदार्थ - का अधिकारी है । द्वितीय अर्थ - भा० ५।१६।२० के अनुसार ‘यथा वर्ण विधानमपवर्गश्च भवति’ अपवर्ग शब्द का अर्थ– प्रेम भक्ति है । उस प्रेम भक्ति का विषय जो परिपूर्ण भगवान् उस का अधिकारी होता है । अन्यत्र ‘मुक्ति- पद’ का अर्थ है - निखिल मुक्ति– जिन के चरणों को आश्रय कर हैं, वही मुक्ति पद है। तात् पर्य्यार्थ यह

[[६१२]] भवतीत्यर्थः । मुक्तिमात्रं तु सकृन्नमस्कारेणैवासन्नं स्यात्, यथा विष्णुधर्मे -

“दुर्ग - संसार- कान्तार मपारमभिधावताम् । एकः कृष्णे नमस्वारो मुत्तितीरग्य देशि कः ॥ ६८४॥ इति

TFRIP

‘तत्ते’ इत्यत्र “सुसमीक्षमाणः प्रतीक्षमाणः” इति टीका, यद्वा, प्रतिक्षणं निरुपाधिकृपयैव प्रभुणा तथा तथा क्रियमाणामनुकम्पां सुष्ठुरूपामीक्षमाणस्तत्रा नन्दीभवत् तां सम्यक् पश्यन् विभावयत् तथा हृदा, यद्वा, वाचा, यद्वा, वपुषा, नमो विदधज्जन इत्यादि - व्याख्या ज्ञेया । नमस्कारेऽपराधाश्चैते परिहर्तव्याः, विष्णुस्मृत्यादिदृष्टया ये खलु एकहस्तकृतत्व-वस्त्रावृत- देहत्व-भगवदग्रपृष्ठ - वामभागात्यन्त निकट- गर्भमन्दिर गन्त्वादिमयाः ॥ श्रीब्रह्मा श्रीभगवन्तम् ॥