५२२ ३०१
महतामनादरस्तु सर्वनाशक इत्याह (भा० ४० ३११२१)-
(३०१) “न भजति कुमनीषिणां स इज्यां हरिरधनात्मधनप्रियो रसज्ञः ।
श्रुत धन-कुल-कर्मणां मदैर्ये, विदधति प पमकिञ्चनेषु सत्सु ॥ ६७१ ॥
एवं “राजानभक्षण
ं चैवम्” राजान भक्षण प्रभृति जो सब अपराध का वर्णन वराह पुराण में हैं। और जो द्वात्रिंशत् प्रकार अपराध प्रमाणान्तर में उल्लेख हैं - “मम शास्त्रं वहिष्कृत्य अस्माकं यः प्रपद्यते " जो शास्त्र वहिर्भूत आचरण करके मेरी शरण ग्रहण करता है” इस अनेक अपराध का वर्णन है, एवं वराहदेव धरणी को सम्बोधन कर के जो कहे थे-
“ममाचं नापराधा ये कीर्त्यन्ते वसुधे मया ।
वष्णवेन सदा ते त वर्जनीयाः प्रयत्नतः ॥ ६६६ ॥
तु
हे वसुधे ! मदीय अच्र्च्चन अनुष्ठान के मध्य में जो सब अपराध का विवरण उक्त है, वैष्णव के पक्ष में यह सब अपराध यत्न पूर्वक वर्जन करना कर्त्तव्य है । वराह पुराण के अनुसार यह सब अपराधाचरण वर्जनीय है । इस अभिप्राय से हो श्रीकृष्ण भा० १११२७११७-१८ में कहे हैं-
(३००) ‘श्रद्धयोपहृतं प्रेष्ठ भक्त ेन मम वापि
‘भूर्य्यप्यभक्तोपहृतं न मे तोषाय कल्पते ॥ " ६७०॥
हे उद्धव ! भक्त, श्रद्वा पूर्वक यदि जल भी अर्पण करता है तो, में उस को अतिप्रिय वस्तु मानता हूँ । किन्तु अभक्त जन के द्वारा भूरि परिमाण में उत्तम वस्तु अर्पण करने पर भी मेरा सन्तोष प्रद नहीं होता है । यहाँ श्रद्धा एवं भक्ति शब्द के द्वारा ‘आदर’ विहित हुआ है। किन्तु समस्त अपराध ही अर्थात् अर्चन मार्ग में उक्त अपराध समूह अनादरात्मक है । श्रीभगवान् प्रभु हैं, उन प्रभु को अवमानन करना एवं आज्ञा अवमानन करना होता है । अतएव अपराध का मूल कारण, भक्ति अङ्ग में भगवत् स्त्ररूप में एवं भक्त स्वरूप जो अनादर है । उस को सब प्रकार से परित्याग करे ।
श्रीभगवान् कहे थे ॥३००॥
५२३ ३०१
महन का अनादर तो सर्वनाश कारी है । भा० ४।३१।२१ में उक्त है-
(३०१) “न भजति कुमनीषिणां स इज्यां, हरिरधनात्मधनप्रियो रसज्ञः ।
श्रुत-धन-कुल– कर्मणां मदैर्ये, विदधति पापमकिञ्चनेषु सत्सु ॥ ६७१ ॥
देवर्षि नारद, प्रचेतागण को कहे थे - श्रीहरि कुमनीषी अर्थात् कुमेधागण की पूजा ग्रहण नहीं करते हैं, निरभिमानी एवं हरिप्रिय व्यक्ति ही श्रीहरि के प्रिय है, कारण, श्रीहरि, भक्ति सुख ही अनुभव करते
[[६०८]]
अधनाश्व ते आत्मधना भगवदेकधनाश्च ते प्रिया यस्य सः, रसज्ञो भक्तिरसिको हरिः । के कुमनीषिण इत्यपेक्षायामाह श्रुतेति । पापमपराधम् ॥ श्रीनारदः प्रचेतसः ॥