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एवं तादृशव्रतेष्वपि तत्तदुपासकानां स्वस्वेष्टदेवतव्रतं सुष्ट्वैव विधेयमित्यागतम् । तथास्मिन् पादसेवार्चनमार्गे “यानैर्वा पादुकैर्वापि गमनं भगवद्गृहे” इत्यादिनागमोक्ता ये द्वात्रिंशदपराधास्तथा “राजान्नभक्षणं चैवम्” इत्यादिना वाराहोता ये च तत्संख्यकार तथा “मम शास्त्रं वहिष्कृत्य ह्यस्माकं यः प्रयद्यते” इत्यादिना तदुक्ता ये चान्ये बहवस्ते सर्वे,
विशेषेण शचीनाथ माधवस्यातिवल्लभः ॥ ९६६ ॥
माघमास अति दुर्लभ एवं वैष्णवों का अतिप्रिय है । हे देवराज ! हे शचीनाथ इन्द्र ! यह माघमास देवता वृन्द का, ऋषि वृन्द का मुनि वृन्द का एवं विशेष रूप से माधव का अतिशय प्रिय है। स्कन्द पुराण के ब्रह्मनारद संवाद में वर्णित है-
“सर्व पापविनाशाय कृष्णसन्तोषणाय च । मानानं साकाय्यं वर्षे वर्षे च नारद ! ॥
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है नारद ! सर्व प्रकार पाप नाश करने के निमित्त प्रतिवत्सर माघमास के प्रत्येक दिन में प्रातः स्नान करना कर्त्तव्य है । भविष्योत्तर पुराण में लिखित है
क
“एकविगणैः सार्द्ध भोगान् त्यक्त्वा यथेप्सितम् ।
माधनास्यूषसि स्नात्वा विष्णु लोकं स गच्छति ॥ " ३६८॥
माघमास के ऊषाकाल में स्नान करके मानव अभीष्ट भोग त्याग करके एकविंशति कुल के सहित विष्ण ु लोक गमन की है। उस प्रकार श्रीराम नवमी एवं वैशाख व्रत प्रभृति जो अवश्य अनुष्ठुळेय है । यहाँ उस को भी जान लेना आवश्यक है । साधु वृन्द के आचरण को दिखाकर यह सब व्रत अवश्य पालनीय हैं, भा० ३।१।१६ के द्वारा उस को कहते हैं-
(२६६) “गां पर्यटन” श्रीशुकदेव श्रोपरीक्षित की कहे थे- विदुर महाशय तीर्थ पर्यटन हेतु जब वहिर्गत हुए थे, उस समय – जिस व्रताचरण से श्रीहरि सन्तुष्ट होते हैं, वह सब एकादशी प्रभृति व्रतानुष्ठान किये थे ।
श्रीशुक, कहे थे ॥२६।
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पूर्वोक्त व्रत समूह के मध्य में जिस व्रतानुष्ठान के द्वारा श्रीहरि सन्तुष्ट होते हैं- उस प्रकार व्रतानुष्ठान करना ही कर्त्तव्य है । तथापि, जो जिस भगवत् स्वरूप का उपासक है, उस के पक्ष में निजेष्ट देवता का व्रतानुष्ठान उत्तम रूप से करना कर्त्तव्य है। पूर्व सिद्धान्त के अनुसार यह निर्धारित हुआ । यहाँ विशेष ज्ञातव्य यह है कि-पाद सेवा वा अर्चन मार्ग अनुष्ठ न में शात्रोक्त जो “यानैर्वा पाटुकैर्वापि गमनं भगवद् गृहे " यान अथवा पादुका के द्वारा भगवद् गृह में गमन प्रभृति जो द्वात्रिंशत् ‘वसीस’ अपराध हैं,
श्रीभक्ति सन्दर्भः
— ममार्चनापराधा ये कीर्त्यन्ते वसुधे मया । वैष्णवेन सदा ते तु वर्जनीयाः प्रयत्नतः ॥ ६६॥
।
इति वाराहानुसारेण परित्याज्या इत्याशयेनाह (भा० १११२७११७-१८)
(३००) “श्रद्धयोपाहतं प्रेष्ठ भक्तेन मम वाथ्यपि "
“भूर्य्यप्यभक्तोपहृतं न मे तोषाय कल्पते ॥ ६७०॥
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श्रद्धा-भक्ति-शब्दाभ्यामत्रादर एव विधीयते । अपराधास्तु सर्वेऽनादरात्मका एव, प्रभुत्वावमानतश्च आज्ञावमानतश्च । तस्मादपराधनिदानमत्रानादर एवं परित्याज्या इत्यर्थः ॥ श्रीभगवान् ॥”