५१८ २६६
तदेतदच्चनं व्याख्यातम् । अस्याङ्गानि चागमादौ ज्ञेयानि । तथा श्रीकृष्ण- जन्माष्टमी कात्तिकव्रतैकादशी- माघस्नानादिकमत्रैवान्तर्भाव्यम् । तत्र जन्माहमी यथा विष्णु- रहस्ये ब्रह्म-नारद-संवादे -
तथा-
TH
“तुष्ट्यर्थं देवकीसू नोर्जयन्तीसम्भवं व्रतम् । कर्त्तव्यं वित्ताशाठ्येन भक्तथा भक्तजनैरपि ।
अकुर्वन् याति निरयं यावदिन्द्राश्चतुद्दे श ॥ ६४५ ॥
“कृष्ण जन्माष्टमी त्यक्त्वा योऽन्यद् व्रतमुपासते । नाप्नोति सुकृतं किञ्चिद्दृष्टं श्रुतमथापि वा ॥९४६॥ वित्ताशाठयञ्चोक्तमष्टमे ( भा० ८।१६।३७ ) -
“धर्म्माय यशसेऽर्थाय कामाय स्वजनाय च ।
पञ्चधा विभजन् वित्तमिहामुत्र च मोदते ॥ ६४७॥
अथ कात्र्तिको यथा स्कान्दे – “एकतः सर्वतीर्थानि” इत्यादिकमुक्त्वा,
सुनने में आता है कि समस्त युगों में समस्त भगवानों की उपासना है, एवं उपासक भी है। अतएव सब के पक्ष में सबयुगों में ही निज अभिलाष के अनुरूप भगवत् स्वरूप के सर्व प्रकार आविर्भाव ही पूज्य हैं, यही निर्णय हुआ । अतएव अच्र्च्चन मार्ग सब वर्णों के पक्ष में एवं समस्त आश्रमीयों के पक्ष में जो अवश्य कर्त्तव्य है, वह समस्त शास्त्र सम्मत है ।
उद्धव श्रीभगवान् को कहे थे ॥ २६८ ॥
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उक्त रूप से अच्र्च्चन मार्ग का वर्णन हुआ। अर्चन मार्ग के अनेक अङ्ग हैं । तन्त्र शास्त्र से उसका परिज्ञान करना कर्त्तव्य है । इस अर्चनाङ्ग भक्ति के मध्य में कतिपय प्रसिद्ध भक्तयङ्ग है । जैसे श्रीकृष्ण जन्माष्टमी, कार्तिक व्रत, एकादशी, माघस्नान प्रभृति । विष्णु रहस्य ब्रह्म नारद संवाद में जन्माष्टमी का विवरण लिखित है-
“तुष्टचथं देवकीसूनोर्जयन्ती सम्भवं व्रतम् ।
कर्त्तव्यं वित्ताशाठय ेन भक्तचा भक्तजनेरपि ।
अकुर्वन् याति निरयं यावदिन्द्राश्चतुद्दश ॥ ६४५
देवकी नन्दन श्रीकृष्ण के सन्तोषार्थ भक्त जन मात्र को भक्ति पर्वक वित्तशाठय शून्य होकर जयन्तीसम्भव व्रतानुष्ठान अवश्य करना चाहिये । यदि किसी भक्त नहीं करता है तो उस को चतुर्दश इन्द्र का भोग काल पर्य्यन्त नरक भोग करना पड़ेगा । उस प्रकार ही उक्त है-
“कृष्णजन्माष्टमीं त्यक्त्वा योऽन्यद् व्रतमुपासते ।
नाप्नोति सुकृतं किञ्चिद्दष्ट ं श्रुतमथापि वा ॥९४६॥
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी को छोड़कर जो अन्य व्रताचरण करता है, वह दृष्ट श्रुत सब प्रकार सुकृत से वञ्चित होता है । इस व्रत में वित्त शाठ्य अर्थात् कृपणता करनी नहीं चाहिये । भा० ८।११।३७
“धर्माय यशसेऽर्थाय कामाय स्वजनाय च ।
पञ्चधा विभजन् वित्तमिहामुत्र च मोदते ॥” ६४७॥
श्रीशुक्राचार्य बलिमहाराज को कहे थे - जो, धर्म, यश, अर्थ, भोग, एवं स्वजन - यह पाँच प्रकार से विभक्त कर चित्त को भोगता है, वह इस जगत् एवं पर जगत् में सुखी होता है । सम्प्रति स्कन्द पुराणोक्त कात्तिक व्रत का विवरण लिखते हैं-
[[६०२]]
" एकतः कार्त्तिको वत्स सर्वदा केशवप्रियः । यत्किञ्चित् क्रियते पुण्यं विष्णुमुद्दिश्य कार्त्तिके ।
तदक्षयं भवेत् सर्वं सत्योक्त तब नारद ॥” ६४८ ॥ इति ।
“अव्रतेन क्षिपेद्यस्तु मासं दामोदरप्रियम् । तिर्य्यग्योनिमवाप्नोति सर्वधर्मवहिष्कृतः ॥ ६ ॥ इति । अथैकादशी, तत्र तावदस्या अवैष्णवेऽपि नित्यत्वम् । तत्र सामान्यतः विष्णुधर्मे - “वैष्णवो वाथ सौरो वा कुर्य्यादेकादशीव्रतम्” इति सौरपुराणे- “वैष्णवो वाथ शवो वा सौरोऽप्येतत् समाचरेत्” इति, विशेषतश्च नारदपञ्चरात्रे दीक्षानन्तरावश्यक कृत्यकथने - “समयांश्च प्रवक्ष्यामि” इत्यादौ,
“एकादश्यां न भुञ्जीत पक्षयोरुभयोरपि । जागरं निशि कुर्वीत विशेषाञ्चार्चयेद्विभुम् ॥ " ६५० ॥ इति । विष्णुयामलेऽपि तत्कथने दिग्विद्धैकादशीव्रतम्, - (015717
“शुक्ला कृष्णाविभेदश्चासद्व्यापारो व्रते तथा । शक्तौ फलादिभूक्तिश्च श्राद्धञ्चैकादशी दिने ।
द्वादश्याञ्च दिवास्वापस्तुलस्यवचयस्तथा । ” ६५१ ॥
"
“एकतः सर्वतीर्थानि” एक ओर समस्त तीर्थ यह कहकर कहते हैं-
“एकतः कात्तिको वत्स सर्वदा केशवप्रियः । यत्किञ्चित् क्रियते पुण्यं विष्णुमुद्दिश्य कात्तिके ।
तदक्षयं भवेत् सर्वं सत्योक्तं तव नारद ।” ६४८ ॥
PT
हे वत्स नारद ! कात्तिक मास केशव का सर्वदा प्रिय है। इस कार्तिक मास में श्रीविष्णु सन्तोषार्थ जो कुछ पुण्य कार्य करे वह सब अक्षय फल प्रद होते हैं। मैंने तुम्हारे निकट अतिसत्य कहा हूँ। इस दामोदर प्रिय कात्तिक मास में जो व्यक्ति भगवत् सन्तोषार्थ व्रत व्यतीत समय अति वाहित करता है, वह सर्व धर्म वहिष्कृत होकर तिर्थ्य योनि में गमन करता है ।
“अव्रतेन क्षिपेद्यस्तु मासं दामोदरप्रियम् ।
तिर्य्यग्योनिमवाप्नोति सर्वधर्म वहिष्कृतः ॥४६॥
अनन्तर एकादशी का वर्णन करते हैं - यह एकादशी अवैष्णव के पक्ष में भी नित्य कर्त्तव्य है । उस विषय में विष्णु धर्मोत्तर में सार्वजनीन भाव से उल्लेख है - “वैष्णवो वाथो सौरो वा कुर्य्यादेकादशी व्रतम्’ वैष्णव हो अथवा ओर हो, सब के पक्ष में ही एकादशी व्रत आचरणीय है। सौर पुराण में लिखित है–
“वैष्णवो वाय शैवो वा सारोऽप्येतत् समाचरेत् " वैष्णव, शैव अथवा सौर सब ही व्यक्ति एकादशी व्रताचरण करें। विशेषतः नारद पञ्च रात्र के दीक्षानन्तर आवश्यक कृत्य कथन प्रसङ्ग में लिखित है “समयांश्च प्रवक्ष्यामि” “तुम्हारे समीप में मैं नियम का वर्णन करूंगा । इस प्रकार कह कर कहा है
“एकादश्यां न भुञ्जीत पक्षयोरुभयोरपि ।
जागरं निशि कुर्वीत विशेषाच्चार्चयेद्विभुम् ॥” ६५० ॥
[[1]]
शुक्ल एवं कृष्ण- उभय पक्ष की एकादशी में भोजन न करें। एवं रात्रि में जागरण करे । श्रीविष्णु प्रतिमा की विशेष रूप से पूजा करे। विष्णु यामल के एकादशी व्रत वर्णन प्रसङ्ग में उक्त है -
[[3]]
“शुक्ला कृष्णाविभेदश्चासद्वयापारो व्रते तथा । शक्तौ फलादिभुक्तिश्च श्राद्धञ्चैकादशोदिने द्वादश्याञ्च दिवास्वापस्तुलस्यवचयस्थता ॥ " ६५१॥
श्रीभक्ति सन्दर्भः
[[६०३]]तत्र विष्णोदिवास्नानमपि निषिद्धत्वेनोक्तम् । पाद्मोत्तरखण्डे च वैष्णवधर्मकथने - “द्वादशी- व्रत-निष्ठता” इति । तथा स्कान्दे काशीखण्डे सौपर्णद्वारकामाहात्म्ये च चन्द्रशर्मणो भगवद्धर्म- प्रतिज्ञा -
c
“अद्य प्रभृति कर्त्तव्यं यन्मया कृष्ण तच्छ णु । एकादश्यां न भोक्तव्यं कर्त्तव्यो जागरः सदा ॥ ६५२ ॥ महाभक्तयात्र कर्त्तव्यं प्रत्यहं पूजनं तव । पलार्द्ध नापि विद्धन्तु मोक्तव्यं वासरं तव ॥ ६५३॥ त्वत्प्रीत्याष्टौ मया कार्य्या द्वादश्यां व्रतसंयुताः ॥ ६५४ ॥ इत्यादिका ।
अत उक्तमाग्नेये-
गौतमीये-
“एकादश्यां न भोक्तव्यं तद्व्रतं वैष्णवं महत् ॥” ६५५ ॥ इति ।
ने
[[17]]
“वैष्णवो यदि भुञ्जीत एकादश्यां प्रमादतः । विष्ण्वर्च्चनं वृथा तस्य नरकं घोरमाप्नुयात् ॥ ६५६॥ मत्स्य भविष्यपुराणयोः-
“एकादश्यां निराहारो यद्भुङ्क्त े द्वादशीदिने ।
शुक्ला वा यदि वा कृष्णा तद्व्रतं वैष्णवं महत् ॥ ६५७॥ इति ।
दशमी विद्धा एकादशी को वर्जन करे। शुक्ला एकादशी व्रत करणीय है, कृष्णाएकादशी व्रत करणीय नहीं है, इस प्रकार विचार न करे । व्रत के दिन किसी प्रकार असत् कार्य्यं न करे । व्रत करने में समर्थ होने पर फलादि भोजन न करे । एकादशी के दिन श्राद्ध कार्य्यं न करे । द्वादशी तिथि में दिवानिद्रा एवं तुलसी चयन न करे । द्वादशी तिथि में श्रीविष्णु को दिवास्नान कराना निषिद्ध है । पद्म पुराण के उत्तर खण्ड के वैष्णव धर्म कथन प्रसङ्ग में लिखित है - “द्वादशी व्रत निष्ठुता” द्वादशी व्रत में एकान्त निष्ठा होनी चाहिये । स्कन्द पुराणस्थ काशी खण्ड के सौपर्ण द्वारका माहात्म्य में चन्द्रशर्मा की भगवत् प्रतिज्ञा वर्णन लिखित है-
“अद्य प्रभृति कर्त्तव्यं यन्मया कृष्ण तच्छ णु ।
श
प्रसङ्गः
में
एकादश्यां न भोक्तव्यं कर्त्तव्यो जागरः सदा ॥६५२॥
महाभक्तयात्र कर्त्तव्यं प्रत्यहं पूजनं तव ।
बलार्द्धनापि विद्धन्तु मोक्तव्यं वासरं तव ॥६५३॥
त्वत्प्रीत्याष्टौ मया कार्य्या द्वादश्यां व्रतसंयुताः । ६५४ ॥
हे कृष्ण ! मैं आज से जो कुछ करूँगा, कहता हूँ, आप श्रवण करें ! समस्त एकादशी में भोजन नहीं करूँगा, एवं रात्रि जागरण करूँगा । एवं महाभक्ति पूर्वक प्रतिदिन आप की आराधना करूँगा । एकादशी तिथि - अर्द्धपल मात्र भी दशमी विद्धा होती है । तो उस एकादशी तिथि में व्रत नहीं करूंगा। एवं आप के सन्तोषार्थ - मैं अष्ट महाद्वादशी व्रत करूँगा । अतएव अग्नि पुराण में उक्त है-
अति
एकादशी तिथि में महान् है । गौतमीय
[[16197]]
“एकादश्यां न भोक्तव्यं तद्व्रतं वैष्णवं महत् ॥ ६५५॥
भोजन न करे । कारण, यह एकादशी व्रत -श्रीविष्णु सम्बन्धान्वित है एवं पुराण में लिखित हैं-
“वैष्णवो यदि भुञ्जीत एकादश्यां प्रमादतः ।
विष्ण्वच्चनं वृथा तस्य नरकं धोरमाप्नुयात् ॥६५६॥
यदि कोई वैष्णव प्रमाद वशतः एकादशी में भोजन करे तो, उस के द्वारा अनुष्ठित श्रीविष्णु पूजा व्यर्थ होती है, एवं वह घोर नरक में निपतित होता है । मत्स्य एवं भविष्य पुराण में उक्त है-
[[६०४]]
स्कान्दे-
“मातृहा पितृहा चैव भ्रातृहा गुरुहा तथा । एकादश्यान्तु यो भुङ्क्त े विष्णुलोकच्युतो भवेत् ।” ६५८ । इति ।
अत्र वैष्णवानां निराहारत्वं नाम महाप्रसादान्न परित्याग एव, - तेषामन्यभोजनस्य नित्यमेव निषिद्धत्वात् । यथोक्तं नारदपञ्चरात्रे -
“प्रमादान्नं सदा ग्राह्यमेकादश्यां न नारद । रमादि-स बंभक्तानामितरेषाश्च का कथा ॥ " ६५६ ॥ इति । ब्रह्माण्डपुराणे-
“पत्रं पुष्पं फलं तोयमन्नपानाद्यमौषधम् । अनिवेद्य न भुञ्जीत यदाह राय कल्पितम् ॥६०॥ अनिवेद्य तु भुञ्जानः प्रायश्चित्तीभवेन्नरः । तस्मात् सर्वं निवेद्य व विष्णं भुञ्जीत सर्वदा ॥”६६१ ॥ जागरस्यापि नित्यत्वं यथा स्कान्दे उमा-महेश्वर-संवादे -
की
“सम्प्राप्ते वासरे विष्णोर्ये न कुर्वन्ति जागरम् । भ्रश्यते सुकृतं तेपां वैष्णवानाञ्च निन्दया ॥६२॥ मतिर्न जायते यस्य द्वादश्यां जागरं प्रति । न हि तस्याधिकारोऽस्ति पूजने केशवस्य हि ॥” ६६३॥ इति ।
“एकादश्यां निराहारो यद् भुङ्क्ते द्वादशी दिने ।
शुक्ला वा यदि वा कृष्णा तद्व्रतं वैष्णव ं महत् ॥”६५७॥
एकादशी में अनाहार रहकर द्वादशी में भोजन करे । शुक्ल पक्ष की एकादशी, हो अथवा कृष्ण पक्ष एकादशी ही - उभय पक्ष की एकादशी ही महत् वैष्णव व्रत है । स्कन्द पुराण में लिखित है-
“मातृहा पितृहा चैव भ्रातृहा गुरुहा तथा ।
एकादश्यान्तु यो भुङ्क्ते विष्णु लोकच्युतो भवेत् ॥६५८ ॥
जो व्यक्ति, एकादशी में भोजन करता है। वह मातृहत्या, पितृहत्या, गुरुहत्या, भ्रातृहत्या प्रभृति पापों से लिप्त होता है। एव
ं उस की विष्णु लोक प्राप्ति कभी भी नहीं होगी । । यहाँ ज्ञातव्य यह है कि- वैष्णवों का एकादशी में निराहार का अर्थ है -महा प्रसादान्न परित्याग । कारण, वैष्णव के पक्ष में महा प्रसादान्न व्यतीत अपर द्रव्य भोजन सर्वथा निषिद्ध है। नारद पुराण में उक्त है-
“प्रसादान्नं सदा ग्राह्यमेकादश्यां न नारद ।
रमादि- सर्व भक्तानामितरेषाञ्च का कथा ॥ " ६५६ ॥
हे नारद ! एकादशी में महाप्रसादान्न ग्रहण सर्वथा निषिद्ध है । यह निषेध रमादि समस्त भक्तों के पक्ष में ही जब है, तब अपर के पक्ष में एकादशी में अन्न भोजन करना सुतरां निषिद्ध है । ब्रह्माण्ड पुराण म उक्त है-
“पत्रं पुष्पं फलं तोयमन्न पानाद्यमौषधम् ।
अनिवेद्य न भुञ्जीत यदाहाराय कल्पितम् ॥ १६० ॥
अनिवेद्य तु भुञ्जानः प्रायश्चित्ती भवेन्नरः ।
तस्मात् सर्वं निवेद्येव विष्णोर्भुञ्जीत सर्वदा ॥ ६६१ ॥
पत्र, पुष्प, फल, जल, अन्न, औषध पानीय एवं अन्यान्य भोज्य पदार्थ ग्रहण, श्रीविष्णु को निवेदन करके हि करे, विष्णु को निवेदन न करके भोजन करने से प्रायश्चित्त करना पड़ता है । सुतरां सर्वदा श्रीविष्णु को निवेदन करके ही भोजन करे । स्कन्द पुराण में एकादशी तिथि में रात्रि जागरण का वृत्तान्त लिखित है- उमा महेश्वर संवाद निम्नोक्त रूप है-
“सम्प्राप्ते वासरे विष्णोर्ये न कुर्वन्ति जागरम् ।
भ्रश्यते सुकृतं तेषां वैष्णवानाञ्च निन्दया ॥६६२ ॥
तद्व्रतस्य विष्णुप्रीतिदत्वञ्च श्रूयते पाद्मोत्तरखण्डे-
[[६०५]]
“शृणु देवि प्रवक्ष्यामि द्वादश्याश्च विधानकम् । तस्याः स्मरणमात्रेण सन्तुष्टोऽभूज्जनार्द्दनः ॥ ६६४॥ भविष्ये-
" एकादशी महापुण्या सर्वपापविनाशिनी । भक्तस्तु दीपनी विष्णोः परमार्थं गतिप्रदा ॥ ६६५॥ इति । अतएव श्रीमदम्बरीषादीनां भक्त्येकनिष्ठानां महाप्रसादेकभुजां तद्व्रतं दर्शयता श्रीभागवतेनापि तदन्तरङ्गः वंष्णवधर्मत्वेन सम्मतमिति दिक् । पाद्म कार्तिक माहात्म्ये च ब्राह्म गकन्यायाः कात्तिकव्रतैकादशीव्रत प्रभावात् श्रीमत्सत्यभामाख्य-भगवत् प्रेयसी पदप्रातिरपि श्रूयते, किंबहुना ? अथ माघः सौपर्णे–
“दुर्लभो माघमासस्तु वैष्णवानामतिप्रियः । देवतानामृषीणाञ्च मुनीनां सुरनायकः ।
विशेषेण शचीन थ माधवस्यातिवल्लभः ॥ ६६६। इति ।
मतिर्न जायते यस्य द्वादश्यां जागरं प्रति ।
न हि तस्थाधिकारोऽस्ति पूजने केशवस्य हि ॥६५३॥
हरि वासर उपस्थित होने से जो मानव जागरण नहीं करता हैं, उसका पुण्य नष्ट होता है। एवं वैष्णव निन्दा से भी वही फल होता है । जिस की प्रवृत्ति द्वादशी जागरण में नहीं है। उस का अधिकार श्री केशव पूजा में कभी भी नहीं होगा। यह निश्चित है । यह द्वादशी व्रत जी श्रीविष्णु प्रीतिद है - उस का वर्णन पद्म पुराण के उत्तर खण्ड में है-
“श्रृणु
देवि प्रवक्ष्यामि द्वादश्य श्व विध नकम् ।
तस्याः स्मरण मात्रेण सन्तुष्टोऽभूज्जनार्दनः ॥ ६६४ ॥
अयि देवि ! द्वादशी जो कर्तव्य है-उस को कहता हूँ, सुनो। द्वादशी का स्मरण होने से ही श्रीजनार्दन सन्तुष्ट होते हैं । भविष्य पुराण में लिखित है-
“एकादशी महापुण्या सर्वपापविनाशिनी ।
भक्तेस्तु दीपनी विष्णोः परमार्थ गति प्रदा ॥ ६६५ ॥
एकादशी महापुण्यशालिनी एवं सर्व पाप विनाशिनी है। यह एकादशी विष्णु भक्ति को उद्दीप्त करती है, एवं यह परमार्थ गति प्रदान करती है ।
अतएव श्रीमद् भागवत शास्त्र भी भक्ति में एकमात्र निष्ठा प्राप्त एवं एक मात्र महाप्रसाद भोजन कारी श्रीमदम्बरीष महाराज प्रभृतिके म्हा प्रसाद त्याग रूप एकादशी व्रत प्रसङ्गको दिखाकर भगवान् के अन्तरङ्ग वैष्णव धर्म रूप में एकादशी व्रत को प्रतिपादन किये हैं । अर्थात् वैष्णव के पक्ष में जितने कर्त्तव्य हैं, उस के मध्य में श्रीएकादशी व्रत हो श्रीहरि का अत्यन्त प्रिय होने के कारण, वैष्णव के पक्ष में अनुष्ठेय भक्ति के अङ्गों के मध्य में परम आदर के सहित यह एकादशी व्रत अवश्य पालनीय है । पद्म पुराण के कार्तिक माहात्म्य में लिखित है- एक ब्राह्मण कन्या, कात्तिक व्रत एवं एकादशी व्रत अनुष्ठान के प्रभाव से श्रीकृष्ण प्रेयसी वृन्द के मध्य में सत्यभामा नाम्नी प्रेयसी हुई थी । इस से अधिक माहात्म्य और क्या हो सकता है ? ।
अनन्तर माघस्नान का वर्णन करते हैं-गरुड़ पुराण में लिखित है-
“दुर्लभो माघमासस्तु वैष्णवानामतिप्रियः । देवतानामृषीणाञ्च मुनीनां सुरनायक ।
[[६०६]] स्कान्दे ब्रह्मनारद-संवादे-
f
“सर्वपापविनाशाय कृष्णसन्तोषणाय च । माघस्नानं सदा कार्य वर्षे वर्षे च नारद ॥ ६६७॥ इति । भविष्योत्तरे-
“एकविंशगणैः साद्ध भोगान् त्यक्त्वा यथेदितम् । माघमास्यूषसि स्नात्वा विष्णुलोकं स गच्छति ।’ ६६८ ।
एवं श्रीरामनवमी - वैशाखतादयश्चात्र ज्ञेयाः । एतत् सर्वमपि सदाचारकथनद्वारा विधत्ते, (भा० ३।१।१६)
(२६६) “गां पर्यटन्” इत्यादौ “व्रतानि चेरे हरितोषणा नि” इति ।
व्रतानि एकादश्यादीनीति । विदुर इति प्रकरणलब्ध ६ ॥ श्री शुकः ॥