५१५ २६८
यानि चात्र वैष्णवचिह्नानि निर्माल्य धारण-चरणामृतपानादीन्यङ्गानि तेषाश्च पृथक् पृथङ् महामाहात्म्यवृन्दं शास्त्रसहस्र ष्वनुसन्धेयम् ।
शास्त्रसहस्त्रष्वनुसन्धेयम् । अथार्च्चनाधिकारिनिर्णयः
(भा० ११/२७/४)
अर्थ चिन्ता ही करनी चाहिये। जिस प्रकार अष्टाक्षरादि मन्त्र में चतुर्थी विभक्ति का उल्लेख नहीं है, तथापि प्रत्येक मन्त्र का तात्पर्य आत्म समर्पण में ही है । अतएव जिस मन्त्र में चतुर्थी विभक्ति का अथव “नमः” “स्वाहा’ “स्ववा” प्रभृति का उल्लेख नहीं है, वह सब मन्त्र में भी आत्म समर्पण अर्थ चिन्तन करना कर्त्तव्य है । इस प्रकार अन्यान्य पूजा विधि को भी यथा यथा रूप में योजना करनी चाहिये । शुद्ध भक्ति सिद्धि हेलु समस्त भक्ति के ही शुद्धत्व अशुद्धस्व रूप से द्विविध भेद हैं। फल प्रदर्शन के द्वारा पूर्वोक्त अच्छेन का वर्णन भा० ११२७१४९ में करते हैं-
(२६६) “एवं क्रियायोगपथैः पुमान् वैदिक-तान्त्रिकैः ।
अच्छेन्नुभयतः सिद्धि मत्तो विन्दत्यभीप्सिताम् ॥ ६३४ ॥
जो व्यक्ति, निरुपाधि अर्थात् ऐहिक पारत्रिक सुखापेक्षा शून्य है, भक्ति योग के द्वारा अर्थात् प्रीति पूर्वक पूर्व वर्णित रीति से मेरी पूजा करता है, वह मुझ में भक्ति योग लाभ करता है । अतएव उक्त द्विविध चर्चन विधि के मध्य में वैदिक तान्त्रिक क्रिया योग के द्वारा अर्चन - अशुद्ध भक्ति बोग है, एवं द्वितीय प्रकार अर्चन हो विशुद्ध भक्ति योग है २६॥
५१६ २६७
उस का वर्णन भा० ११।२७१५३ में इस प्रकार हैं-
(२६७) “मामेव नंरपेक्ष्येण भक्तियोगेन विन्दति ।
भक्तियोगं स लभत एवं यः पूजयेत मान् ॥ ६३५।
नैरपेक्ष्य - शब्द का अर्थ है - निरुपाथि भक्तियोग, अर्थात् प्रेम । व्ही भक्ति योग है। उक्त भक्ति योग के द्वारा पूजा करने से ही श्रीभगवान् को प्राप्त कर सकते हैं। श्रीभगवान् कहे थे ॥ २६७
५१७ २६८
अर्चनाङ्ग में वैष्णव चिह्न धारण, निम्र्माहय धारण, चरणामृत पान प्रभृति जो अङ्ग समूह हैं, उन सब का पृथक पृथक माहात्म्य का वर्णन शास्त्र समूह में है। उसका अनुसन्धान करलेना आवश्यक
। अनन्तर अर्चन करने का अधिकारी का निर्णय करते हैं- भा० ११।२७१४ में उक्त है-धोभक्तिसन्दर्भः
(२६८) “एतद्वै सर्व्ववर्णानामाश्रमाणाञ्च सम्मतम् ।
श्रेयसामुत्तमं मन्ये स्त्री- शूद्राणाश्च मानद ॥ " ८६३६॥
सर्व्ववर्णानां त्रैवर्णिकानाम्, तथा च स्मृत्यर्थसारे, पाद्म े च वैशाखमाहात्म्ये - “आगमोक्त ेन मार्गेण स्त्रिभिः शूद्रश्च पूजनम् । कर्त्तव्यं श्रद्धया विष्णोश्चिन्तयित्वा पनि हृदि ॥१३७॥ शूद्राणाञ्चैव भवति नाम्ना वै देवतार्चनम् । सर्वे चागममार्गेग कुर्युर्वेदानुसारिणा ॥ ३८ ॥
स्त्रीणामप्यधिकारोऽस्ति विष्णोराराधनादिषु । पतिप्रियहितानाञ्च श्रुतिरेषा सनातनी ॥ ३३६ ॥ इति । विष्णुधर्मो -
’ देवनायाश्च मन्त्रे च तथा मन्त्र प्रदे गुरौ । भक्तिरष्टविधा यस्य तस्य कृष्णः प्रसीदनि ॥६४०॥ तद्भक्तजनवात्सल्यं पूजायां चानुम दनम् । सुमना अच्चयेति यं तदर्थे दम्भवर्जनम् ॥ १४१ ॥ तत्कथाश्रवणे रागस्तदर्थे चाङ्गविक्क्रिया । तदनुस्मरणं नित्य यस्नन्नामोपजीवति ॥ ६४२ ॥
(२६८) “एतद्वं सर्व्ववर्णानामाश्रमाणाञ्च सम्मतम् ।
श्रेयसामुत्तमं मन्ये स्त्री-शुद्राणाञ्च मानद ॥ ३६ ॥
श्रीकृष्ण उद्धव को कहै थे- हे भक्त जन मानद ! ग्रह अर्चन, त्रैवर्णिक के पक्ष में अर्थात् ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं सन्न्यासी के पक्ष में यहाँतक कि स्त्री शूद्र के पक्ष में भी समस्त प्रकार माङ्गलिक साधनों के मध्य में श्रेष्ठ है। यह मेरा अभिमत है । स्मृत्यर्थ सार ग्रन्थ में एवं पद्म पुराण के वंशाखमाहात्म्य में लिखित है-
“आगमोक्तेन मार्गेण स्त्रिभिः शूद्रंश्च पूजनम् ।
कर्त्तव्यं श्रद्धया विष्णांश्चिन्तयित्वा पति हृदि ॥६३७॥
शूद्राणाञ्चैव भवति नाम्ना वै देवतार्च्चनम् ।
सर्वे चागममार्गेण कुर्ध्या वेदानुपारिणा ॥६३८ ॥
स्त्रीणामप्यधिकारोऽस्ति विष्णोराराधनादिषु ।
पतिप्रियहितानाञ्च श्रुतिरेषा सनातनी ॥ ३६ ॥ इति ।
तन्त्रोक्त मार्ग में स्त्री शूद्र प्रभृति का, - हृदय में पति की चिन्ता करके श्रद्धा पूर्वक श्रीविष्णु को अर्चना करना कर्तव्य है । नामात्मक मन्त्र के द्वारा शूद्र को देवतार्च्चन करना चाहिये । वेदानुसारी तन्त्र मार्ग में किन्तु समस्त व्यक्ति की ही श्रीविष्णु की आराधना में अधिकार है ।
। यह
सारार्थ यह है कि - वैदिक विधि में देवतान्तर के अर्चन में स्त्री शूद्र गण स्वाहा स्वधादि का उच्चारण न करके केवल नाम मन्त्र के द्वारा देवतान्तर का अर्चन करें । इस प्रकार व्यवस्था केवल वैदिक क्रिया के सम्बन्ध में ही है । वेदानुसारी तन्त्रोको बिधि में निजेष्ट श्रीविष्णु की आराधना करने का अधिकार, स्वाहा स्वधादि स्मरण पूर्वक स्त्री शूद्र प्रभृति का समान रूप से है । जो सब स्त्री पतिप्रिये हितेरता हैं, उन के पक्ष में ही यह व्यवस्था है किन्तु व्यभिचारिणी स्त्री का अधिकार विष्णु पूजा में नहीं है । यह सनातनी श्रुति है । विष्णु धर्म में भी लिखित है-
।
“देवतायाश्च मन्त्रे च तथा मन्त्रप्रदे गुरौ
भक्तिरष्टविधा यस्य तस्य कृष्णः प्रसीदति ॥६४०॥
सद्भक्तजनवात्सल्यं पूजायां चानुमोदनम् ।
सुमना अच्चयेन्नित्यं तदर्थे दम्भवर्जनम् ॥४१॥
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भक्तिरष्टविधा ह्येषा यस्मिन् म्लेच्छेऽपि वर्त्तते । स मुनिः सत्यवादी च कीर्तिमान् स भवेन्नरः ॥ ६४३० किश्व, तत्त्वसागरे-
“यथा काञ्चनतां यानि काभ्यं रसविधानतः । तथा दीक्षाविधानेन द्विजत्वं जायते नृणाम् ॥ ९४४ ॥ इति । अथ (भा० १११५२१) “कृते शुक्लश्चतुर्बाहुः” इत्यादिना युगभेदे यश्चोपासनायामाविर्भाव- भेद उच्यते, स च प्राथिक एव । तेभ्यश्चतुभ्योऽन्येषामुपासनाशास्त्रादेव, अन्ययेत रोपासनाषाः कालासमावेशः स्यात् । श्रूयन्ते च सर्व्वत्र युगे सर्वोपासकास्तस्मात् सर्वैरपि सब्र्वदापि यथेच्छं सव्वं एवाविर्भाशः पूज्या इति स्थितम् । अतः " एतद् सर्व्ववर्णानाम्” इत्यादिकं सर्व्वसम्मतमेव । उद्भवः श्रीभगवन्तम् ॥”
तत्कथाश्रवणे रागस्तदर्थे चाङ्गविक्रिया ।
तदनुस्मरणं नित्यं यस्तन्नामोपजीवति ॥ ६४२॥
भक्तिरष्टविधा ह्यषा यस्मिन् म्लेच्छेऽपि वर्तते ।
स मुनिः सत्यवादी च कीर्तिमान् स भवेन्नरः ॥ ६४३॥ ७
अभीष्ट देवता में मन्त्र में एवं मन्त्रप्रद गुरु में जिस की अष्टविधा भक्ति हैं- श्रीकृष्ण, उस के प्रति प्रसन्न होते हैं । अष्ट विधा भक्ति इस प्रकार है- (१) भगवद् भक्त जन में वात्सल्य, (२ भगवत् पूजा का अनुमोदन, (३) शुद्ध चित्त से नित्य भगवदर्च्चन (४) भगवद् भक्ति का अनुष्ठान करके अहङ्कार शून्यत (५) भगवत कथा श्रवण में आसक्ति, (६) भगवत् सेवा कार्य हेतु कयिक चेट्ट (७) नित्य भगवत् स्मरण एवं (८) नित्य भगवन्नाम को जीवन सर्वस्व करना । अर्थात् भोजन न करने से जिस प्रकार जीवन नहीं रहता है, उस प्रकार श्रीहरिनाम भिन्न देह धारण की असमर्थता । यह अष्टविधा भक्ति, यदि किसी म्लेच्छ में भी हों तो वही मुनि, सत्यवादी, एवं कीर्तिमान् है । तत्त्व सागर में लिखित है-
“यथा काञ्चनतां याति कथं रसविधानतः ।
तया दीक्षाविधानेन द्विजत्वं जायते नृणाम् ॥६४४॥
कांस्य (काँसा ) जिस प्रकार रासायनिक प्रक्रिया से कान को प्राप्त करता है, उस प्रकार मानव मात्र ही दीक्षा विधान के द्वारा द्विजत्व प्राप्त करते हैं ।
अनन्तर भा० ११ ५ २१ में उक्त “कृते शुक्लश्चतुर्वाहुः” इस का समाधान करते हैं । कर भाजन योगीन्द्र ने कहा है- सत्यादि युग में उपासना का पार्थक्य है, एवं श्रीभगवदाविर्भाव का भेद है । ग्रन्थकार कहते हैं-वह विवरण प्रायिक है, अर्थात् प्रायशः इस प्रकार ही होता है। इस से इस प्रकार समझना ठीक नहीं है कि - सत्यादि युगों में उस उस युगावतार की ही उपासना करनी चाहिये । इस प्रभार नियम है । कारण, उस उस युगों में उस उस युग में पृथक् पृथक् उपासना एवं पृथक उपास्य देव का वर्णन भी शास्त्र में दृष्ट होता है। यदि उस उस युग में उस उस युगावता की एवं उस उस युग की उपासना करना ही अवश्य कर्त्तव्य है तो, अन्य श्रीभगवत् स्वरूप की एवं अन्य उपासना का अवसर उपस्थित नहीं होगा । कारण, सत्य का युगावतार शुक्ल भगवान् हैं, उपासना - ध्यान है। त्रेता में युगावतार यज्ञ पुरुष भगवान् है । उपासना - यज्ञ है, द्वापर में शुकपत्राभ श्याम भगवान युगावतार हैं, उपासना - परिचय है । कलि में श्यामवर्ण भगवान् युगावतार हैं, उपासना - श्रीहरि नाम जप है। इस प्रकार चतुर्युग के युगावतार एवं उपासना का निर्णय हुआ। ऐसा होने पर अन्य भगवत् स्वरूप की उपासना का अवकाश नहीं है । अथच
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श्रीभक्तिसन्दभः
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