५१२ २६६
अथ नैवेद्याप णप्रसङ्गे यः क्रमदीपिका - दर्शितोऽनिरुद्ध-नामात्मको मन्त्रस्तस्य स्थाने श्रीकृष्णैकान्तिक भक्तास्तु तन्मूलमन्त्र मे बेच्छन्ति । तथा यच्च तन्मुखज्योतिरनुगतत्वेन धातु विधीयते, तत्तु भोजन-समये तन्मुखप्रसादमेव मन्यन्ते । भोजनन्तु यथा लोकसिद्धमेव, नरलीलत्वात् श्रीकृष्णस्य । अथ जपे मन्त्रार्थस्य नानात्वेऽपि पुरुषार्थानुकूल एवासौ चिन्त्यः, यथा श्रीमदष्टाक्षरादावात्मनिवेदन- लक्षण - चतुर्थ्याद्यभाववत मन्त्रे तदनुसन्धानेनेति ।
“धनागमे प्रकुर्वन्ति जलस्थं वै जनार्द्दनम् ।
ये जनाः नृपति श्रेष्ठ तेषां वै नरकं ध्रुवम् ॥ " ६३३॥
वर्षा काल में जो व्यक्ति जनार्दन को जलस्थ भाव से पूजा करता है, वह निश्चय ही नरक गमन करता है । इस प्रकार प्रमाण अन्यत्र भी है। परिचर्या विधि में तत्तद् देश काल के अनुसार श्रीहरि को सुखप्रद शत शत व्यवस्था हैं । एवं सुख विरोधी दुःख प्रद शत शत निषिद्ध व्यवस्था भी हैं। विष्णुयामल ग्रन्थ में पृथक् पृथक् ऋतु के अनुसार पृथक् पृथक् पूजा की व्यवस्था भी लिखित हैं । अतएव श्रीभगवान् भा० ११।११।४१ में कहे हैं-
“यद् यदिष्टतमं लोके यच्चाति प्रियमात्मनः
तत निवेदयेन्मह्यं तदनन्त्याय कल्यते ॥”
लोक में जो जो इष्टतम हैं, एवं मेरा भी प्रिय है, एवं भक्त का भी अतिप्रिय है, वह सब वस्तु मुझ को अर्पण करे । उस के मध्य में जो सब अधिष्ठान की कथा कही गई. उस के मध्य में परम भागवत गण के पक्ष में निज अभीष्ट मन्त्र ध्यान का स्थान, - समस्त ऋतु में सुखमय, मनोहर रूप रस ग ध स्पशं शब्द मय स्थान का ध्यान ही विहित है । ऐसा न होने से धामगत निजेष्ट देव का चिन्तन करने का जो आग्रह शास्त्र में दृष्ट होता है, वह व्यर्थ होगा। अतएव अग्नि प्रभृति अधिष्ठान में अन्तर्यामी रूप ही चिन्तनीय है, यह स्थितीकृत हुआ ।
श्रीभगवान् कहे थे ॥ २६५॥
५१३ २६६
अन तर नवेद्यार्पण प्रसङ्ग का वर्णन करते हैं। नैवेद्यार्पण प्रसङ्ग में श्री केशवाचार्य कृत क्रमदीपिका ग्रन्थ में अनिरुद्ध नामात्मक मन्त्र का वर्णन है, श्रीकृष्ण के ऐकान्तिक भक्त वृन्द किन्तु उस के स्थान में श्रीकृष्ण का मूल मन्त्र का ही प्रयोग करते हैं । एवं श्रीकृष्ण की सुखज्योति से मिलित रूप में नैवेद्य का ध्यान करने का जो विधान है, वह किन्तु भोजन समय में श्रीकृष्ण की मुख प्रसन्नता का ही चिन्तन करते हैं । श्र कृष्ण का भोजन - मनुष्य लोक में जिस प्रकार प्रसिद्ध है, उस प्रकार ही जानना होगा । अर्थात् मनुष्य जिस प्रकार हस्त के द्वारा भोजन ग्रास उठाकर भोजन करता है, श्रीकृष्ण भी उस प्रकार ग्रास उठाकर भोजन करते हैं । श्रीकृष्ण भी मनुष्यवत् भोजन करने के आसन में उपविष्ट होकर श्रीहस्त द्वारा भक्त दत्त वस्तु श्रीमुख में अर्पण करतः गलाधः करण करते हैं। इस प्रकार ही चिन्तन करे । कारण, श्रीकृष्ण–नरलील हैं । मन्त्र जप के समय मन्त्र का विभिन्नार्थ होने पर भी निज प्रयोजनानुकुल
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श्रीभक्तिसन्दभः
एवमन्येऽपि पूजाविधयो यथायथं योजनीयाः । शुद्धभक्ति-सिद्धयर्थं सर्व्वासां भक्तानामेव शुद्धत्वा- शुद्धत्वरूपेण द्विविधो हि भेदः सम्मत इति । तदेतदचनं फलेनाह, (भा० ११०२७/४६ ) —
(२६६) " एवं क्रियायोगपथैः पुमान् वैदिक-तान्त्रिकैः ।
उभयत इहामुत्र च ॥
अर्चन्नुभयतः सिद्धि मत्तो विन्दत्यभीप्सिताम् ॥ " ६३४॥