२६५

५१० २६५

अथाधिष्ठानान्तराणि चैवम्, यथा (भा० ११।११।४२-४६) -

(२६५) “सूर्योऽग्निब्रह्मणो गावो वैष्णवः खं मरुज्जलम् ।

भूरात्मा सर्व्वभूतानि भद्र पूजापदानि मे ॥ ६२४ ॥

इस प्रकार प्रेमवान् भक्तवृन्द के चित्त का परमाश्रय रूप श्रीभगवान् का प्रचुरतर प्रकाश स्थान होने के कारण श्रीविष्णु यद्यपि सर्व व्यापक हैं, तथापि श्रीशालग्राम प्रभृति में श्रीभगवान् का आविर्भाव स्थान निद्दिष्ट है । मनुष्य के मध्य में जिस प्रकार श्रीभगवान् अन्तर्यामी रूप में विद्यमान हैं, मनुष्य प्रभृति की उस दृष्टि से ही करनी पड़ती है । शालग्राम प्रभृति में किन्तु उस प्रकार अन्तर्यामी दृष्टि से पूजा करना निषिद्ध है। कारण, श्रीविष्णु विश्वव्यापी होकर भी श्रीविग्रह प्रभृति में साक्षात् रूप में विद्यमान रहते हैं, यही उनका स्वभाव है । कारण, श्रीभगवान् के निवास क्षेत्र प्रभूति का महातीर्थत्व प्रतिपादन करके उस क्षेत्र वासी कीट प्रभृति भी जो कृतार्थ है, इस का निर्देश किया गया है । श्रीभगवान् के परिपूर्ण साक्षात् आविर्भाव स्थान श्री शालग्राम प्रभृति के सम्बन्ध में भी शास्त्र में माहात्म्य वर्णित है । स्कन्द पुराण में लिखित है-

“शालग्रामशिला यत्र तत्तीर्थं योजनत्रयम् ।

तत्र दानं जपो होमः सर्वं कोटिगुणं भवेत् ॥ ६२२ ॥

जहाँ पर श्रीशालग्राम शीला विद्यमान हैं, वहाँ तीन योजन पर्यन्तस्थः । परम पवित्र तीर्थ हैं, उस तीन योजन स्थान के मध्य के जिस किसी स्थान में दान, जप, होम प्रभृति जो कुछ अनुष्ठित होते हैं-सभी कोटि गुण फल प्रद होते हैं। पद्म पुराण में भी उक्त है-

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‘शालग्रामसमीपे तु क्रोशमात्रं समन्ततः ।

की कटोऽपि मृतो याति वैकुण्ठभुवनं नरः । ६२३॥

शालग्राम के समीपस्थ चतुर्द्दिक् में एक क्रोश पर्यन्त में गया प्रभृति प्रदेश में उत्पन्न मनुष्य प्राण त्याग करके वैकुण्ठ गमन करता है । अतएव श्रीमूर्ति पूजा का जो श्रेष्ठत्व है - उसका निर्णय हुआ ।

श्रीनारद युधिष्ठिर को कहे थे ॥ २६४ ॥

५११ २६५

अनन्तर पूर्वोक्त पात्र भिन्न एकादश संख्यक पूजाधिष्ठान का वर्णन करते हैं- भा० ११ ११ ४२-४६ में उक्त है-

(२६५) “सूर्योऽग्नि ब्रह्मणो गावो वैष्णवः खं मरुज्जलम्

भूरात्मा सर्वभूतानि भद्र पूजापदानि मे ॥२४॥

YT૪ ]

सूर्ये तु विद्यया त्रय्या हविषाग्नौ यजेत माम् । आतिथ्येन तु विप्राग्रेय गोष्वङ्ग यवसादिना ॥ ६२५॥

वैष्णवे बन्धुसत्कृत्या हृदि खे ध्याननिष्ठया । वायौ मुख्यधिण तोये द्रव्यंस्तोय पुरस्कृतः ॥६२६ ॥ स्थण्डिले मन्त्रहृदयैर्भोगैरात्मानमात्मनि ।

क्षेत्रज्ञ सर्व्वभूतेषु समत्वेन यजेत माम् ॥ ६२७॥ धिष्ण्येष्वित्येषु मद्र पं शङ्ख-चक्र-गदाम्बुजेः ।

युक्तं चतुर्भुजं शान्तं ध्यायन्नर्चेत् समाहितः ॥ ६२८ ॥

टीका च - " इदानीमेकादशपूजाधिष्ठानान्याह – सूर्य्य इति । हे भद्र ! अधिष्ठ नभेदेन पूजा साधन भेदमाह–सूर्य्य इति त्रिभिः । वय्या विद्यया सूक्तैरुपस्थानादिना, अङ्ग ! हे उद्धव ! मुख्यधिया प्राणदृष्ट्या, तोये तोयादिभिर्द्रव्यैस्तर्पणादिना, स्थण्डिले भुवि, मन्त्रहृदयं रहस्य –

P

सूर्य्ये तु विद्यया त्रय्या हविषाग्नौ यजेत माम् ।

आतिथ्येन तु विप्राग्रेय गोष्वङ्ग यवसादिना ।२५॥ वैष्णवे बन्धुसतकृत्या हृदि खे ध्याननिष्ठया ।

बायो म ख्यधिया तोये द्रव्यैस्तोयपुरस्कृतैः ॥६२६॥

स्थण्डिले मन्त्रहृदयैर्भोगैरात्मानमात्मनि ।

क्षेत्रज्ञं सर्व्वभूतेषु समत्वेन यजेत माम् ॥२७॥ धिष्ण्येष्वित्येषु मद्र पं शङ्ख-चक्र-गदाम्बुजेः ।

युक्तं चतुर्भुजं शान्तं ध्यायन्नचेत् समाहितः ॥ २८ ॥

श्रीकृष्ण, उद्धव को कहे थे, - हे भद्र! अर्थात् मङ्गल मूर्ति ! सम्प्रति अधिष्ठान भेद से पूजा का सांधन भेद को कहता हूँ । उस में से एकादश प्रकार अधिष्ठान का नाम प्रथम सुनो ।

(१) सूर्य्य, (२) अग्नि, (३) ब्राह्मण, (४) गो. (५) वैष्णव, (६) आकाश, (७) वायु, (८) जल, (६) भूमि, (१०) आत्मा, (११) सर्वभूत, यह एकादश मुझ को पूजन करने के स्थान हैं।

सूर्य्य अधिष्ठान में त्रैविद्य द्वारा अर्थात् कर्ममयी उपासना के द्वारा, मेरी पूजा करे । अग्नि में घृत के द्वारा, ब्राह्मण में आतिथ्य विधान के द्वारा, धेनु में तृण जलादि के द्वारा, वैष्णव में बन्धु भाव से सत्कार के द्वारा, हृदय रूप आकाश में ध्यान निष्ठा द्वारा, वायु में मुख्य बुद्धि अर्थात् प्राण दृष्टि द्वारा जल में जलादि उपचार रूप तर्पण के द्वारा, स्थण्डिल में (भूमि में) रहस्य मन्त्रन्यास के द्वारा, आत्मा में परमात्माश्रित रूप चिन्तन द्वारा, एवं सर्वभूत में आत्मा रूप में अवस्थित मुझ को समत्व दृष्टि से अर्चन करे । पूर्वोल्लिखित समस्त अधिष्ठानों में मेरा शङ्ख चक्र गदापद्म युक्त चतुर्भुज प्रशान्त रूप का ध्यान करके पूजा करे । यहाँपर सर्वत्र चतुर्भुज रूप में श्रीभगवान् का स्मरण करने की व्यवस्था विद्यमान होने पर भी उपासना के द्विविध भेद दृष्ट होते हैं। प्रथम, मन्दिर लेपनादि द्वारा जिस प्रकार मन्दिर के अधिष्ठाता श्रीविग्रह की उपासना की जाती है, उस प्रकार हो अन्तर्यामी परमात्म दृष्टि से किसी देह की परिचर्या करने से, उस देह के अन्तर्य्यामी की ही सेवा होती है। जिस प्रकार वैष्णव का समादर सद् बन्धु

श्रीभक्तिसदर्भः

[[६६५]]मन्त्रन्यासः सर्व्वाधिष्ठानेषु ध्येयमाह, – धिष्ण्येष्वित्येष्विति । ‘इति’ अनेन प्रकारेण, एषु धिष्ण्येषु” इत्येषा । अत्र सर्व्वत्र चतुर्भुजस्यैवानु-सन्धाने सत्यपि द्विधा गतिः- एकाधिष्ठान- परिचये वाधिष्ठातुरुपासना-लक्षणा, मन्दिरलेपनादिना तदधिष्ठातृ-प्रतिष्ठाया इव, यथा ‘वैष्णवे बन्धुसत्कृत्या’ गोष्वङ्ग यवसादिना’ इत्यादि, यतो बन्धुसत्कारो वंष्णव-विषयकः, ईश्वरे तु प्रभुभाव उपदिश्यते, (भा० १११२१४६) – “ईश्वरे तदधीनेषु” इत्यादौ, तथा गो- सम्प्रदानकमेव यवसादिभोजनदानं युज्यते, न तु श्रीचतुर्भुज सम्प्रदानकम् अभक्ष्यत्वात्, (भा० ११/११/४१) -

“यद्यदिष्टतमं लोके यच्चातिप्रियमात्मनः ।

तत्तनिवेदयेन्मह्यं तदानन्त्याय कल्पते ॥” ६२६ ॥

P

इति तत्रैव पूर्व्वमुक्तम् । अन्या तु साक्षादधिष्ठातुरुपासनालक्षणा यथा- ‘हृदि खे ध्याननिष्टया’ तोये द्रव्यैस्तोय पुरस्कृतैः’ इत्यादि । अत्रान्यादौ तदन्तर्यामिख्यस्यैव चिन्तनं कार्य्यम्, न जातु

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भाव से, एवं धेनु को तृण जलादि अर्पण के द्वारा परिचर्या होती है। वैष्णव में सद् बन्धु बुद्धि के द्वारा अच्चन का अर्थ है - यह वैष्णव- विष्णु दास हैं, अतएव मेरा परम बान्धव हैं, इस बुद्धि से उनका उपकार करे । किन्तु ईश्वर बुद्धि से बन्धुभाव हो ही नहीं सकता । कारण, परमेश्वर के प्रति प्रभु भाव रखने का ही उपदेश शास्त्र में है । कारण, भा० ११।२०४६ में उक्त है- “ईश्वरे तदधीनेषु” ईश्वर में प्रेम, एवं भगवद् भक्त जन में बन्धुभाव स्थापन करने का उपदेश है । धेनु वृन्द को तृण जलादि प्रदान करे । यहाँ गो दृष्टि से ही तृण जलादि प्रदान करने का उपदेश है । कारण, गो दृष्टि से तृण जलादि द्वारा सेवा करने की उपयोगिता है, किन्तु चतुर्भुज श्रीविष्णु दृष्टि से तृण जलादि द्वारा सेवा करने की उपयोगिता नहीं है । कारण, तृण जलादि श्रीविष्णु के भोजनीय नहीं हैं । भा० ११।११।४१ में उक्त है-

“यद्यदिष्टतमं लोके यच्चातिप्रियमात्मनः ।

तत्तन्निवेदयेन्मह्यं तदानन्त्याय कल्पते ॥ " ६२६॥

हे उद्धव ! इस जगत् में जो जो मेरा प्रियतम हैं, एवं भक्त के प्रियतम हैं, उस उस वस्तु अर्पण मुझ को करने से अनन्त फल होते हैं । इस प्रमाण से सुस्पष्ठ बोध होता है कि- जो वस्तु श्रीभगवान् के प्रिय हैं, वही श्रीभगवान् को अर्पण करना कत्र्तव्य है । भगवद् बुद्धि से गो की पूजा करना अभिमत होने से श्री विष्णु के अभक्ष्य तृण जलादि के द्वारा पूजा करने की व्यवस्था नहीं देते। इस प्रसङ्ग का उद्देश्य यह है कि- समस्त अधिष्ठान में श्रीविष्णु के चतुर्भुजत्वादि रूप की चिन्ता करके पूजन करने का उपदेश किये हैं, तथापि किसी किसी अधिष्ठान में साक्षात् श्री विष्णु का ही ध्यान करे, एवं किसी किसी अधिष्ठान में उस अधिष्ठान की चिन्ता करके ही सेवा करे । उस के मध्य में वैष्णव अधिष्ठान में वैष्णव बुद्धि से ही बन्धु भाव से आदर अभ्यर्थना करे । गो शरीर श्रीविष्णु का प्रिय है । अतएव गो की सेवा करने से श्रीविष्णु सन्तुष्ट होंगे। इस बुद्धि से ही गो की पूजा करनी चाहिये ।

द्वितीय प्रकार उपासना में साक्षात् अधिष्ठाता श्रीविष्णु को ही उपासना होती है। जैसे हृदयाकाश में ध्यान निष्ठा के द्वारा, जल में जलादि उपकरण द्रव्य द्वारा श्रीविष्णु के तर्पणादि करने पड़ते हैं । अग्नि प्रभृति अधिष्ठान में अग्नि प्रभृति के अन्तर्यामी रूप में ही विष्णु की चिन्ता करनी चाहिये। किन्तु कभी

श्रीभक्तिसन्दर्भ

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निजप्रेम-सेवाविशेषाश्रय- स्वाभीष्टरूपविशेषस्य । स तु सर्वथा परमसुकुमारत्वादिबुद्धिजनितया प्रीत्यैव सेवनीयः, यथोक्तं श्रीभगवतैव (भा० ११।२७।३२)— “वस्त्रोपवीताभरण” इत्यादि । तेषां यथा भक्तिरीत्या परमेश्वरस्यापि तथा भावः श्रूयते, यथा श्रीनारदीये-

“भक्तिग्राह्यो हृषीकेशो न धनैर्धरणीसुराः । भक्तचा संपूजित। विष्णुः प्रददाति समीहितम् । ९३०॥ जलेनापि जगन्नाथः पूजितः क्लेशहा हरिः । परितोषं व्रजत्याशु तृषार्त्तः सुजलैर्यथा ॥ ३१ ॥ इति

अत्र दृष्टान्त उपजीव्यः, वैपरीत्ये तु दोषश्च यथा ग्रीष्मे जलस्थस्य पूजा प्रशस्ता, वर्षासु निन्दिता, यदुक्तं गारुड़ े-

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-159199195

“शुचि शुक्रगते काले येऽर्च्चयिष्यन्ति केशवम् । जलस्थं विविधैः पुष्पैर्मुच्यन्ते यमताड़नात् ॥३२॥ घनागमे प्रकुर्व्वन्ति जलस्थं वै जनार्द्दनम् । ये जना नृपतिश्र ेष्ठ तेषां वै नरकं ध्रुवम् ॥ ६३३॥ इति ।

भी निज अभीष्ट निज प्रेम सेवा विशेष का आश्रय भगवान् के रूप विशेष की चिन्ता न करे । कारण, निज अभीष्ट परमसुकुमार परम सुन्दर, परम मधुर हैं, इस प्रकार बुद्धि जनित प्रीति से ही सब प्रकार सेवा करनी चाहिये । वह सुकोमलाङ्ग भक्त वल्लभ श्रीभगवान् दाहक अग्नि में अथवा सुशीतल जल में हैं, इस प्रकार चिन्ता करना सर्वथा निषिद्ध है । अर्थात् भक्ति विरुद्ध है । इस अभिप्राय से ही श्री भगवान् भा० ११।२७।३२ में कहे हैं । “वस्त्रोपवीताभरण” मेरा भक्त, उपवीत आवरण प्रभृति के द्वारा भक्ति पूर्वक मेरी पूजा करे वह सब भक्त भक्ति रीति से जिस प्रकार श्रीपरमेश्वर की पूजा करते हैं, श्रीपरमेश्वर भी उस प्रकार भाव में आविष्ट होते हैं । अर्थात् कोमलाङ्ग बुद्धि से चिन्तन करने से कोमलाङ्ग रूप में आविष्ट होते हैं। एवं वीर भाव में चिन्तन करने से वीर भाव में आविष्ट होने हैं । श्रीनारदीय पुराण में लिखित है-

“भक्तिग्राह्यो हृषीकेशो न धनैर्धरणीसुराः ।

भक्तचा संपूजितो विष्णुः प्रददाति समीहितम् ॥३०॥

जलेनापि जगन्नाथः पूजितः क्लेशहा हरिः ।

परितोषं व्रजत्याशु तृषार्त्तः सुजलैर्यथा ॥३१॥

13F3

[[1]]

हे ब्राह्मण गण ! भगवान् हृषीकेश केवल भक्ति ग्राह्य हैं, धन के द्वारा ग्राह्य नहीं हैं । श्रीविष्णु की पूजा भक्ति से करने पर श्रीविष्णु अभीष्ट प्रदान करते हैं। सर्वक्लेश हारी जगन्नाथ श्रीहरि, जल द्वारा पूजित होने से भी तृष्णार्त्त व्यक्ति जिस प्रकार सुन्दर जल प्राप्तकर सन्तुष्ट होते हैं, उस प्रकार श्रीविष्णु सन्तुष्ट होते हैं। यहाँ दृष्टान्त ही उपजीव्य है । अर्थात् तृष्णार्त व्यक्ति जिस प्रकार जल लाभ हेतु व्यग्र होता होता है, अपर किसी वस्तु से उस की तृप्ति नहीं होती है। उस प्रकार भक्ति पिपासु श्रीभगवान् भक्तिसे ही तृप्तिलाभ करते हैं। वैपरीत्य में दोष भी होता है । जिस प्रकार ग्रीष्म में जलस्थ भगवान् की पूजा प्रशस्ता है, किन्तु वर्षाकाल में जल द्वारा पूजा निन्दिता है । उस प्रकार भक्ति द्वारा श्रीकृष्ण पूजा प्रशस्ता है, ज्ञानादि के द्वारा पूजा निन्दिता है। गरुड़ पुराण में भी लिखित है-

T

“शुचि-शुक्रगते काले येऽच्चयिष्यन्ति केशवम् । जलस्थं विविधैः पुष्पैर्मुच्यन्ते यमताड़नात् ॥३२॥

ग्रीष्म काल में जो व्यक्ति जलस्य केशव की पूजा विविध पुष्प के द्वारा करता है, वह यमताड़ना से मुक्त हो जाता है ।

[[५६७]]

एवमन्यत्रापि । परिचर्य्याविधौ तद्देश-काल-सुखदान शतशो विहितानि तद्विपरीतानि निषिद्धानि च विष्णुयामले - “विष्णोः सर्वतु चर्या च’ इति अतएवोक्तम् (भा० ११ ११।४१) “यद्यदिष्टतमं लोके” इत्यादि । तत्र तत्रेष्टम• ध्यानस्थलं च सर्वतु सुखमय मनोहर-रूपरस- गन्धस्पर्शशब्दमयत्वेनैव ध्यातु

ं विहित-मस्ति, अन्यथा तत्तदाग्रहस्य वैयर्थ्यं स्यात् । तस्मादग्न्यादौ तत्तदन्तर्यामिख्प एव भाव्य इति स्थितम् ॥ श्रीभगवान् ॥