२६३

५०८ २६४

अथ तदनन्तराध्यायस्यादावेव तेषु सर्वोत्कृष्टमाह द्वाभ्याम् (भा० ७।१५।१-२) -

(२६४) “कर्म्मनिष्ठा द्विजाः केचित् तपोनिष्ठा नृपापरे ।

स्वाध्यायेऽन्ये प्रवचने केचन ज्ञानयोगयोः ॥ ६२० ॥

ज्ञाननिष्ठाय देयानि कव्यान्यानन्त्यमिच्छता ।

देवे च तदभावे स्थादितरेभ्यो यथार्हतः ॥ ६२१॥

अनेन यथात्र मुमुक्षुप्रभृतीनां ज्ञानिपूजैव मुख्या, पुरुषान्तरपूजा तु तदभाव एव, तथा प्रेमभक्ति-कामानां प्रेमभक्तपजा ज्ञेया । ततः प्रेमभक्तानामपि यच्चित्तस्य परमाश्रयरूयम्, तदभिव्यक्तेः सुतरामेवाचया आधिक्यमपि । एवं तदाश्रयरूपस्य विलक्षण प्रकाशस्थानत्वादेव

५०९ २६३

पूर्वोक्त ब्राह्मण रूप सुपात्र का स्तव करते हैं - (भा० ७११४०४२)

“नन्वस्य ब्राह्मणा राजन् कृष्णष्य जगदात्मनः ।

पुनन्तः प द रजसा त्रिलोकीं दैवतं महत् ॥”

हे महाराज ! इस जगत् में जो लोकसंग्रहकर धर्म प्रभृति का प्रवर्त्तन करते हैं, अतः जगत् क नियामक हैं । उन श्रीकृष्ण के निज जन ब्राह्मण गण अपनो पद व ल द्वारा त्रिभुवन को पवित्र करते रहते हैं । कारण, के परम देवता एवं परम पूज्य हैं । सुतरां वह ब्राह्मण वृन्द ही श्रेष्ठ दान पात्र हैं ।

श्रीनारद युधिष्ठिर को कहे थे ॥ २६३ ॥ २६४ । इस के बाद अध्याय के प्रथम दो श्लोकों के द्वारा सर्वोत्कृष्ट पात्र का निर्द्धारण किये हैं- भा० ७। १५०१ -२ में उक्त है-

(२६४) “कर्म निष्ठा द्विजाः केचित् तपोनिष्ठा नृपापरे ।

स्वाध्यायेऽन्ये प्रवचने केचन ज्ञानयोगयोः ॥२०॥

ज्ञाननिष्ठाय देयानि कव्यान्यानन्त्यमिच्छता ।

देवे च तदभावे स्यादिनरेभ्यो यथार्हतः ॥ ६२१॥

महाराज ! उन ब्राह्मणों के मध्य में कोई कर्मनिष्ठ, कोई तपोनिष्ठ कोई स्वाध्यायनिष्ठ, कोईं व्याख्या निष्ठ, एवं ज्ञान योग निष्ठ हैं। उस के मध्य में अनन्त फल प्राप्ति हेतु पितृ लोक के उद्देश्य में देय पदार्थ प्रदान -ज्ञान निष्ठु को करना चाहिये । एवं देवता के उद्देश्य में देय हवि भी ज्ञान निष्ठु को अर्पण करना कर्तव्य है । यदि उस प्रकार ज्ञान निष्ठु सत् पात्र का अभाव हो तो ज्ञान विकाश के तारतम्य के अनुसार दान पात्र का निर्णय करना चाहिये । इस प्रसङ्ग से यह बोध होता है कि - जिस प्रकार मुमुक्षु प्रभृति के पक्ष में ज्ञानी पूजा ही मुख्य है, ज्ञानी पात्र का अभाव होने पर ज्ञान विकाश के तारतम्यानुसार पूजा ही पुरुषान्तर की पूजा विहित है, उस प्रकार प्रेम भक्ति लाभेच्छ व्यक्ति के पक्ष में प्रेम भक्ति की श्रेष्ठ है । अतएव प्रेमवान् भक्त वृन्द के चित्त का परमाश्रय जो म ूत्ति हैं, उस श्रीमत्ति की पूजा ही प्रेमवान् भक्त की पूजा से सुतरां अधिक महत्त्व पूर्ण है । कारण, श्रीमत्ति में श्रीभगवान् का साक्षात् आविर्भाव है ।

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श्रीविष्णोर्व्यापकत्वेऽपि शालग्रामादिषु निर्द्धारणम्, तच्च पुरुषवन्नात्तर्य्यामिदृष्टयपेक्षम्, किन्तु स्वभाव निद्दशपरमेव, तन्निवासक्षेत्रादीनां महातीर्थत्वापादनादिना कोटादीनामपि कृतार्थव- कथनात् । तथा च स्कान्दे-

“शालग्रामशिला यत्र तत्तीर्थं योजनत्रयम् । तत्र दानं जपो होमः सर्वं कोटिगुणं भवेत् ॥ ६२२॥ पाद्मे -

" शालग्रामसमीपे तु क्रोशमात्रं समन्ततः । कीष टोऽपि मृतो याति वैकुण्ठभुवनं नरः ॥ ९२३ ॥ इति । तस्मादर्द्धाया आधिक्य मेव हि स्थितम् ॥ श्रीनारदो युधिष्ठिरम् ॥