५०४ २६२
अथ पुरुषेषु पूर्वोक्तविशेषं जात्यादिना विवृणोत. (भा० ७ १४ः४१) - “पुरुषेध्वपि " इत्यादि । यो धत्ते तं सुपात्रं विदुः ॥
व्यवस्था की गई है। इस प्रकार करने का उद्देश्य है - श्रीहरि की परिचर्या को प्रदर्शन कराना । इस से यह प्रतिपादित हुआ है, कि पूर्वोक्त दोष युक्त पात्र को दान करने पर भी जब दान का फल लाभ होता है, तब सर्व दोष विर्वाजित श्रीहरि प्रतिमा को अर्पण अर्थात् उन की पूजा करने से फल धिक्य होनर अवश्यम्भावी है । प्रतिमा पूजन करके भी जो पुरुषद्वेषी है, अर्थात् मानवादि को द्वेष करता है, उस के पक्ष में श्रीविग्रह पूजा फलप्रद नहीं होती है । “प्रतिमा स्वल्प बुद्धीनाम्” अर्थात् यदि प्राणीमात्र को विद्वेष न करके प्रतिमा की पूजा करे तो अल्प बुद्धि मानव के पक्ष में भी वह पूजा फलप्रद होती है । यहाँ कतिपय व्यक्ति कहते हैं–जो अल्प बुद्धि हैं, वे ही प्रतिमा पूजा करते हैं, अतएव विज्ञ होने पर प्रतिमा पूजा न करे । इस प्रकार ‘प्रतिमा स्वल बुद्धीनाम्" इस का अर्थ करना अत्यन्त असङ्गत है । कारण, नृसिंह पुराण प्रभृति में सुस्पष्ट लिखित है कि - श्रीब्रह्मा एवं श्रीअम्बरीष महाराज प्रभृति ने भी श्रीमूत्ति पूजा की है ॥ २६ । SIP
५०५ २६१
अतएव ७।१४ ४० में उक्त है
’ ततोऽच्चयां हरि केचित् सश्रद्धया सपर्य्यया ।
उपासते उपास्तापि नार्थदा पुरुषद्विषम् ॥
अर्थात् श्रीहरि प्रतिमा का अत्यन्त प्रभाव निबन्धन श्रीहरि के निखिल अधिष्ठान से श्रीमूत्ति अधिष्ठान का ही वैशिष्टय है, अतएव उत्तम साधक वृन्द श्रीहरि प्रतिमा की पूजा परिचर्य्या द्वारा उपासना करते रहते हैं । किन्तु पारस्परिक अवज्ञा एवं विद्वेष परायण होकर भी श्रीहरि प्रतिमा की पूजा करने से सिद्धि हो सकती है, यह जो कहा गया है—उस का अभिप्राय यह है कि-मानवादि समस्त शरीरो ही श्रीभगवान् के अधिष्ठान हैं, यदि मानवादि के प्रति अनादर द्वेष प्रभृति करके श्रीमति पूजा करे तो श्रीमूर्ति को सेवा पूजादि करने पर भी वह सेवा सिद्धि दायिनी नहीं होगी ॥२१॥
५०६ २६२
अनन्तर मनुष्यों के मध्य में जाति प्रभृति के द्वारा पूर्व वर्णित विशेषत्व का विस्तार करते हैं । (२६२) भा० ७।१४।४१ में उक्त है
“पुरुषष्वपि राजेन्द्र सुत्रं ब्राह्मणं विदुः ।
तपसा विद्यया तुष्टघाधत्ते वेदं हरेस्तनुम् ॥
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हे महाराज ! जो ब्राह्मण तपस्या विद्या एवं सन्तोष के द्वारा श्रीहरि के मत्ति स्वरूप वेद को धारण किये हैं। वही ब्राह्मण श्रेष्ठ पात्र हैं ॥२६२॥
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श्री भक्ति सन्दर्भः