२६०

५०२ २६०

सत् पात्र स्थिति इस प्रकार होने पर भी समय विशेष में उपासक दोषाक्रान्त होने पर- अर्थात् उक्त उपासक में कालान्तर में दोषोत्पत्ति की सम्भावना है, अत वेद दृष्टि से अपर एक विशिष्ट अधिष्ठान का प्रकाश करते हैं–भा० ७११४१३६ में उक्त है-

(२६०) “दृष्ट्वा तेषां मिथो नृणामवज्ञानात्मतां नृप

। ।

त्रेतादिषु हरेरचर्चा क्रियायं कविभिः कृता ॥ १६ ॥

मनुष्यो के मध्य में परस्पर को असम्मान करने की बुद्धि जिन की है, उनकी उस प्रकार प्रवृत्ति को देख कर पूजा प्रभृति का अनुष्ठान कराने के निमित्त त्रेतादि युग में श्रीहरि की अर्चा अर्थात् प्रतिमा की

[[५६१]]

कृता, तत्परिचर्य्या मार्गदर्शनाय सा प्रकाशितेत्यर्थः । एतेन तादृशदोषयुक्तेष्वपि कार्य्यं- साधकत्वात् श्रीमदच्चया आधिवयमेव व्यञ्जितम् । “प्रतिमा स्वल्पबुद्धीनाम्” इत्यत्र चाल्पबुद्धीनामपीत्यर्थः, -नृसिहपुराणादी ब्रह्माम्बरीषादीनामपि तत्पूजाश्रवणात् ।