५०१ २८६
भा० ७।१४१३८ में उक्त है- “तेष्वेव भगवान्” यह सब शरीरों में श्रीभगवान् न्यूनाधिक भाव से प्रकाशित होकर विद्यमान हैं। तिर्य्यगादि शरीर से पुरुष अर्थात् मनुष्य में अधिक रूप से प्रकाशित । अतएव पुरुष अर्थात् मनुष्य ही दान पात्र है । मनुष्य के मध्य में भी जिस मनुष्य में जितने परिमाण में ज्ञान तपो योग के द्वारा श्रीभगवान् का प्रकाशाधिक्य होता है, उतने परिमाण में दान पात्र का श्रेष्ठत्व है ॥ २८६ ॥