४९६ २८८
(भा० ७११४१३७) –“पुराण्यनेन” इत्यादि । जीवेन जीवयित्रा जीबान्तर्यामि– रूपेणेत्यर्थः ॥
४९७ २८८
(भा० ७१४३८) –“तेष्वेव भगवान्” इत्यादि । तस्मात्तारतम्य वर्त्तनात् पुरुषः प्रायो मनुष्यः पात्रम् । तत्र ज्ञान्यादिकं विशिष्टमिति भगवद्वर्त्तनस्यातिशयात् । तत्राप्यात्मा यावात् यथा ज्ञानादिपरिमाणादिकस्तथासौ पात्रमित्यर्थः ॥
४९८ २६०
एवं स्थितेऽपि कालेनोपासक दोषोत्पत्तौ सत्यां वेददृष्ट्या विशिष्टमधिष्ठानान्तरं प्रकाशितमित्याह, ( भा० ७११४१३१)
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(२८०) “दृष्ट्वा तेषां मिथो नृणामवज्ञानात्मतां नृष ।
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त्रेतादिषु हरेरच्च क्रियायै कविभिः कृता ॥ ६१६ ॥ मिथोऽवज्ञानमसम्मानस्तस्मिन्नात्मा बुद्धिर्येषां तेषां भावं दृष्ट्वा क्रियायें पूजाद्यर्थमच
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महापुरुषवृन्द, ब्रह्म पुत्र सनकादि ऋषिगण, जो निखिल ऋषि वृन्द के आदि आचार्य हैं, वे सब यहाँ उपस्थित होने पर भी अच्युत श्रीकृष्ण ही मख्य दान पात्र रूप में निर्णीत है ॥ २८६ ॥
४९९ २८७
भा० ७ १४ ३६ में उक्त है - " जीवराशिभिराकीर्णः ।”
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महान जीव कोश रूप व्याप्त ब्रह्माण्ड का मूल श्रीकृष्ण ही हैं। अतएव उनकी पूजा ही समस्त जीवात्मा को तृप्ति दायिनी है ॥२८७॥
५०० २८८
भा० ७११४।३७ में उक्त है “पुराण्यनेन” मनुष्य, तिर्य्यक, ऋषि, देवता प्रभृति जितने पुर हैं अर्थात् शरीर समह हैं, यह सब शरीरों की सृष्टि कर्त्ता श्रीअच्युत हो हैं । एवं समस्त सृष्ट देह समूह म परम पुरुष श्रीअच्युत ही जोवान्तर्थ्यामी रूप में शयन करके हैं ॥२८८॥
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