२८६

४९३ २८६

भूतादिपूजा तु तत्पूजाङ्गत्वे विहिताषि न कर्त्तव्या - तदावरण-देवतात्वाभावात् ।

/…

“तस्मादवैदिकानाञ्च देवानामच्चनं त्यजेत् ।

स्वतन्त्रपूजनं यच्च वैदिकानामपि त्यजेत् ॥ १०४

अर्चयित्वा जगद्वन्द्य ं देवं नारायणं हरिम् ।

तदावरण संस्थानं देवस्य परितोऽर्चयेत् ॥ १०५ ॥

हरेर्मुक्तावशेषेण बल तेभ्यो विनिक्षिपेत् ।

होमञ्चैव प्रकुर्वीत तच्छेषेणैव वैष्णवः ॥ " ६०६॥

[[५८०]] निषिद्धश्च तत्रैव-

श्रीभक्तिसन्दभः

यक्षाणाञ्च पिशाचानां मद्य मांसभुजां तथा । दिवौकसानां भजनं सुरापानसमं स्मृतम् ॥६ अतएवावश्यक पूज्यानामन्येषां तत्स्वीकृतैरपि मद्यादिभिः पूजा निषिद्धा, यथा सङ्कर्षणादीनाम् ।

[[1]]

अथ पीठपूजायां येऽप्यधर्म्माद्या वर्त्तन्ते गुणत्रयञ्च तानि तु पाद्मोत्तरखण्डे स्पृष्टान्यपि न सन्ति, तथा स्वायम्भुवाय मेऽपि तस्मान्नादरणीयानि । केचित्तु नारदपञ्चरात्र दृष्घा तान्यन्यथैव व्याचक्षते, यथोक्तं तत्र व- “अधर्माद्य चतुष्कन्तु अश्रेयसि नियोजनम्” इत्यधार्मिकादिषु तत्तदन्तर्या मशक्तिरधर्माद्यमित्यर्थः । तथा पीठपूजायां भगवद्वामे श्रीगुरु- पादुका पूजन मेबं सङ्गच्छते, यथा-य एव भगवानत्र व्यष्टिरूपतया भक्तावतारत्वेन श्रीगुरुपो

४९४ २८६

वर्त्तते, स एव तत्र समष्टिरूपतया स्ववामप्रदेशे साक्षादवतारत्वेनापि तद्रूपो वर्त्तत इति । तथा ये चात्र श्रीरामाद्य पासनायां मन्द- द्विविदादय आवरणदेवतास्ते तु तदीय नित्यधाम गता नित्याः शुद्धाश्व ज्ञेयाः । यथाक्न राघमर्षणे तेन श्रीप्रह्लादादयो दृष्टाः । य एव श्रीप्रह्लादः पृथ्वीदोहनेऽपि वत्सोऽभूत्, - तदानों तज्जन्माभावात् चाक्षुषमन्वन्तर एव हिरण्यकशिपोर्जात- त्वात् । अन्ये तु स्व-स्व-धानि नित्यप्राकट्यस्यैव श्रीरामादेः प्रपञ्चप्राकट्यावसरं प्राप्य तत् साहाय्यार्थं नित्यपार्षद-मैन्द-द्विविदादि- शक्तयावेशिनो जीवाः सुग्रीवादि भागवत द्वेषि बालि प्रमृति-सम्बन्धादुत्तरकाले भगवद्वेषिनरकासुरादिसङ्गाच्च दुष्टभावा भवन्तीत्यवधेयम्,- प्रपञ्चलोक मिश्रत्वेनैव प्राकट्यसम्भवात् । अथ श्रीकृष्णगोकुलोपासनायामपि यत् श्रीरुक्मिण्यादीनामावरणत्वम्, तत्तु तच्छक्तिविशेषरूपाणां तासां विमलादीनामिवान् धन- गतत्वेनैव न तु तल्लीला गतप्राकट्येनेति ज्ञेयम् । अतएव ध्याने ता नोक्ताः । केचित्तु

को

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रुक्मिण्यादि नामानि श्रीराधादि-नामान्तरत्वेनैव मन्यन्ते । यथा ते शङ्ख-चक्र-गदा-मुद्रादि- धारणं श्रीकृष्णचरणचिह्नत्वेनैव स्वीकुर्वन्ति, यथा च द्वारान्त पार्श्वयोगंङ्गा-यमुनयोः पूज्यमानयोगंङ्गा श्रीगोवर्द्धने प्रसिद्धा मानसगङ्गेति मन्यन्ते तथा च विष्वक्सेनादयो भद्रसेनादय इति, श्रीकृष्णपीठपूजायां श्वेतद्वीप क्षीरसमुद्रपूजा च गोलोकाख्यस्य तद्धाम्नोऽपि श्वेतद्वीपेति नामत्वात् कामधेनुकोटिनि सृत- दुग्धपूरविशेषस्य च तत्र स्थितत्वात् यथोक्तं ब्रह्मसंहितायां (५३६८) तद्वर्णनान्ते-

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“स यत्र क्षीराब्धिः स्रवति सुरभीम्पश्च सुमहान्, निमेषार्द्धाख्यो वा व्रजति न हि यत्रापि समयः । भजे द्वीपं तममि गोलाकमिति य, विदन्तस्ते सन्तः क्षितिविरल चाराः कतिपये ॥” ६०८ ॥ इति ।

एवमन्यत्रापि ज्ञेयम् । तथा सोमसूर्याग्निमण्डलान्य प्राकृतान्यतिशैत्य तावगुणपरित्यागेनं व वर्त्तन्ते । तत्र सर्व्वकल्याणगुणवस्तूनामेवाभिधानाय प्राकृतनिषेधात्, यथा नृसिंहतापन्याम् (पू० ५1१० ) - " तद्वा एतत् परं धाम मन्त्र राजाध्यापकस्य, यत्र न दुःखादि, यत्र न सूर्य्यो

श्रीकृष्ण की पीठ पूजा में श्वेतद्वीप क्षीर समुद्र पूजा का जो विधान है, उस में- श्रीकृष्ण को गं लोक धाम का नाम ही श्वेत द्वीप है । क्षीर समुद्र शब्द से जानन होगा कि - श्रीवृन्दावन में कोटि कोटि कामधेनु श्रीकृष्ण को मुखारबिन्द का दर्शन करक े एवं वेणुध्वनि श्रवण करके जो दुग्ध धारा क्षरण करती रहती है, उस से उस को क्षीर समुद्र जानना होगा ।

ब्रह्म संहिता को २६८ में श्रीगोलोक वर्णन क े अनन्तर वर्णित है-

“स यत्र क्षीराब्धिः स्रवति सुरभीस्वश्च सुमहान्, ।

निमेषार्द्धाख्यो वा व्रजति न हि यत्रापि समयः ।

भजे श्वेतद्वीप’ तमहमिह गोलोकमिति यं,

विदन्तस्ते सन्तः क्षितिविरलचाराः कतिपये ॥ ९०८ ॥

गोलोक में सुरभिवृन्द से सुमहान् क्षीर सागर प्रवाहित होता है, जहाँ निमेषार्द्ध काल भी अतीत नहीं होता है। अर्थात् जहाँ काल, अप्राकृत एवं निश्चित है। मैं उस श्वेतद्वीप का भजन करता हूँ। जिस को साधुगण गोलोक शब्द से जानते हैं । इस प्रकार साधुगण जगत् में विरल होते हैं । श्रीगोलोक में चन्द्र लूथ्यं एवं अग्नि मण्डल हैं, यह सब अप्राकृत हैं। एवं अति शैत्य तथा सन्ताप गुण को परित्याग करके नाति शीतोष्ण रूप में विद्यमान हैं । चन्द्र सूर्य प्रभृति को जो अप्राकृत कहा गया है, उस से सूचित होता है कि- सकल कल्याण गुण विशिष्ट वस्तु ही श्रीगोलोक में है । नृसिंह तापनी में लिखित है– मन्त्र राज के अधीश्वर का वही परम धाम है, जहाँ दुःखादि नहीं है, जहाँ सूर्य्य उदित नहीं होते हैं, जहाँ वायु प्रवाहित नहीं होता है, चन्द्रमा ज्योत्स्ना विच्छ ुरित नहीं करता है, जहाँ नक्षत्र प्रकाशित नहीं होता है, जहाँ अग्नि बहन कार्थ्य नहीं करता है, जहाँ मृत्यु का प्रवेश नहीं है, एवं जहाँ कोई भी दोष नहीं हैं । यह सब कहने का तात्पर्य यह है कि - श्रीभगवद्धाम में प्राकृत चन्द्र सूर्य नहीं है, एवं प्राकृत चन्द्र सूर्य के समान अतिशैत्थ एवं सन्ताप भी नहीं हैं । इस रीति से कर्म मिश्र अच्चन निषेध को सङ्गति करने के निमित्त श्रीकृष्ण के परिकर वर्ग का वर्णन हुआ है ।

अनन्तर शुद्ध भक्त वृन्द के पक्ष में भूत शुद्धद्यादि का प्रकार का वर्णन यथामति करते है-

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भाति, यत्र न वायुर्वाति, यत्र न चन्द्रमास्तपति, न यत्र नक्षत्राणि भान्ति, यत्र नाग्निर्दहति, यत्र न मृत्युः प्रविशति, यत्र न दोषः” इत्यादि । तदेवं कर्ममिश्रत्वादि-निरसनप्रसङ्गसङ्गत्या तत्परिकरा व्याख्याताः ।

अथ तेषां शुद्धभक्तानां भूतशुद्धयादिकं यथामति व्याख्यायते । तत्र भूतशुद्धि निजाभिलषित- भगवत् सेवौपयिक तत्प बंददेह- भावनापर्य्यन्तैव तत् सेबैक पुरुषार्थिभिः कार्य्या, निजानुकूल्यात् । एवं यत्र यत्रात्मनो निजाभीष्ट-देवतारूपत्वेन चिन्तनं विधीयते, तत्र तत्रैव पार्षदत्वे ग्रहणं भाव्यम्, अहं ग्रहो -पासनायाः शुद्धभक्तद्विष्टत्वात् । ऐक्यश्च तत्र साधारण्य प्रायमेव, तदीयचिच्छक्ति- वृत्तिविशुद्धसत्त्वांश विग्रहत्वात् पार्षद नाम् । अथ केशवादिन्यासादीनां यत्राधमाङ्गविषयत्वम्, तत्र तत्तन्मूति ध्यात्वा तत्तन्मन्त्रांश्च जप्त्वेव तत्तदङ्गस्पर्शमात्र कुर्य्यात्, न तु तत्तन्मन्त्र- देवतास्तत्र तत्र न्यस्ता ध्यायेत्, -भक्तानां तदनौचित्यात् ।

अथ मुख्यं ध्यानं श्रीभगवद्धामगतमेव, हृदयकमलगतन्तु योगिमतम् - “स्मरेद् वृन्दावने रम्ये” इत्याद्युक्तत्वात् । अतएव मानसपूजा च तत्रैव चिन्तनीया । कामगायत्रीध्यानञ्च यत्

निजाभिलषित भगवत् सेवा के उपयोगी भगवत् पार्षददेह की भावना ही भूतशुद्धि है, अर्थात् मैं श्रीकृष्ण का हूँ, दास, सखा, पिता माता, कान्ता यह सब भावों के मध्य में भगवत् सेवा के उपयुक्त किसी एक पार्षद देह की भावना करने से ही शुद्ध भक्त वृन्द के पक्ष में भूत शुद्धि होती है। कारण, जो लोक, श्रीभगवान् की सेवा को ही मुख्य पुरुषार्थ जानते हैं, उन के पक्ष में इस प्रकार भाव ही निज भाव के अनुकूल होता है । इस प्रकार जहाँ जहाँ निजेष्ट देव के सहित अभेद रूप से चिन्तन करने का विधान है, वहाँ पर भी निजाभीष्ट देव के पार्षदत्व भावना करनी चाहिये । कारण, भक्त गण, अहंग्रह उपासना के प्रति विद्वेष करते हैं । जहाँ पर श्रीभगवान् के सहित भक्त की एकता की कथा कही गई है, वहाँ समझना पड़ेगा । कि-साधारण रूप से जीव चैतन्य के सहित विभु चैतन्य का चैतन्यांश में जिस प्रकार साम्य सिद्धान्त किया गया है, यहाँपर भी वैसा ही समझना होगा । कारण, भगवत् पार्षद वृन्द के देह, अर्थात् विग्रह, प्राकृत—पाञ्चभौतिक नहीं है । किन्तु भगवान् की चिच्छक्ति की वृत्ति रूप विशुद्ध सत्त्व का ही अंश है । अधमाङ्ग में केशवादि न्यास करने का उल्लेख जहाँपर है, वहाँ पर भी उक्त मूर्ति का ध्यान करके एवं उस मन्त्र का जप करके उस उस अङ्गः को स्पर्श करना चाहिये । किन्तु उस उस देवता की स्थिति की चिन्ता करना अत्यन्त अनुचित है ।

श्रीभगवान् का मुख्य ध्यान उन के धाम में ही करना चाहिये। हृदय कमल में ध्यान करना योगि गण सम्मत है, किन्तु भक्त गण सम्मत नहीं है । कारण - तन्त्र में लिखित है “स्मरेद् वृन्दावने रम्ये”

अर्थात् मनोहर वृन्दावन में हो श्रीकृष्ण का स्मरण करे । इस प्रकार उल्लेख है । अतएव मानस पूजा भी श्रीवृन्दावन में चिन्तन करके ही करे । काम गायत्री का ध्यान सूर्य्य मण्डल में करने का जो विधान है, वह भी श्रीवृन्दावन में हो करे । कारण, ब्र० सं० ५१४८ में उक्त है–“गोलोक एव निवसत्य- खिलात्मभूतो गोविन्दमादि पुरुषं तमहं भजासि ॥” अर्थात् यद्यपि भगवान् निखिल गोलोक वासी का आत्म स्वरूप हैं, तथापि श्रीराधा प्रभृति के सहित गोलोक में ही निवास करते हैं । यहाँ पर एव कार का प्रयोग है । उस से विदित होता हैं - श्रीकृष्ण गोलोक में ही निवास करते है, तद्भिन्न अन्यत्र निवास नहीं करते हैं । उस सूर्य्य मण्डल में श्रीवृन्दावन नाथ श्रीकृष्ण साक्षात् रूप से अवस्थान नहीं करते हैं । किन्तु

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श्रीभक्तिसन्दर्भ सूर्य मण्डले श्रूयते, तत्तत्रैव चिन्त्य (ब्र० सं० ५।४८ ) - “गोलोक एव निवसत्य खिलात्मभूतः " इत्यत्र एव-कारात् । तत्र श्रीवृन्दावननाथः साक्षान्न तिष्ठति, किन्तु तेजोमय प्रतिमा का रेणवेति । अथ वहिरुपचारैरन्तपूजायां वेण्यादिपूजा, तदङ्गज्योति-विलोनाङ्गाय स्वस्याङ्गे निविष्टस्य तस्य तन्मुखादावेव भाव्या, न तु स्व-मुखाचै। तथा वेण्वादि-तद्भूषणमुद्रा दर्शनम्, - स्वमुखादौ तथा वेण्वादि यत् क्रियते तच नस्मै तदीय-तत्तत् प्रियवस्तूनां दर्शनार्थमेव, न तु स्वस्यैवाङ्गे तानि भाव्यन्त इति पूर्वहेतोरेव । तथा मानसादि पूजायां भूतपूर्व्वतः परिकर लीलासंवलितत्वमपि न कल्पनामयम्, किन्तु यथार्थमेव, यतस्तस्य प्राकट्यसमये लीलास्तत्- परिकराश्च ये प्रादुर्बभूवुरते तादृशः श्चा कटमपि नित्यं तदीये धाग्नि संख्यातीता एव वर्त्तन्ते । तेजोमय प्रतिमा रूप में ही अवस्थित हैं ।

वाह्य उपचार के द्वारा अन्तः पूजा में निज अङ्ग में जो वेणु प्रभृति की पूजा का विधान है, उस में श्रीकृष्ण की अङ्ग ज्योति में निजाङ्ग विलीन होने के कारण, साधक के निज अङ्ग में निविष्ट श्रीभगवान्, के मुखादि में ही वेणु प्रभुति की चिन्ता करनी चाहिये। किन्तु कभी भी निज मुखादि में वेणु वनमाला प्रभृति की चिन्ता न करे । वेणु वनमाला, श्रीवत्स, कौस्तुभ एवं विल्ब यह पञ्चमुद्रा श्रीभगवान् को प्रदर्शन करने की जो विधि है, वह निज मुखादि में करे । किन्तु इस प्रकार चिन्तन करना होगा कि - यह वस्तु श्रीभगवान् के अत्यन्त प्रिय हैं, इस को देखकर भगवान् सन्तुष्ट होते हैं । किन्तु निजाङ्ग में उक्त मुद्रासमूह की भावना न करे । कारण, निजाङ्ग में चिन्ता करने से अहंग्रह उपासना के मध्य में पर्य्यवसित होता है । उस प्रकार मानस पूजा प्रभृति में पूर्व में अर्थात् श्रीभगवान् की प्रकट समय में जो सब लीला हुई थीं एवं वह सब लीला में जो सब लीला परिकर थे, उन के सहित ही ध्यान करे । अर्थात् श्रीभगवान् लोक लोचन गोवरी भूत होकर जो जो परिकर के सहित जो जो लीला किये थे, उस उस लीला एवं उस उस लीला के परिकर अप्रकट लीला में भी विद्यमान हैं, वह साधक के कल्पना मय नहीं है, पारमार्थिक सत्य रूप में ही सब स्थित हैं, अर्थात् यथ र्थ ही है, कारण, श्रीभगवान् के प्रकट अवतार के समय मे जो सब लीला एवं जो सब लीला परिकर आविर्भूत हुए थे, उस समय में भी मानव नेत्र के अगोचर होकर भी उस धाम में हो उस प्रकार असंख्य लोला एवं तदुचित परिकर विद्यमान हैं। किन्तु असुर वृन्द- अप्रकट धाम में चेतन रूप में नहीं रहते हैं, अर्थात् प्रकट समय में जिस प्रकार कंस, पतना प्रभृति प्रतिकूल आचरण के द्वारा लीला के सहायक होते हैं, श्रीभगवान् को अप्रकट में उसी धाम में वह सब असुर यन्त्र मय प्रतिमा कार में अवस्थित होते हैं। एवं जिस समय श्रीभगवान् की कौतुक रस आस्वादनेच्छा होती है, उस समय चित्राङ्किन असुर गण क्रियाशील होते हैं । भा० १० । १४।६१ में उक्त है “एवं विहारैः " श्रीराम कृष्ण, कौमार वयसोचित विहार को द्वारा कुमार वयस सम्बरण किये थे । उस कुमार वयस में निलायन अर्थात् छिरा चोरी खेल, एवं बाल्य वयसोचित अन्यान्य लीला किये थे । कभी तो अन्य अवतार की लीला का अनुकरण भी करते थे । श्रीरघुनाथ लीला को सेतु बन्ध, लङ्का गमन, लक्ष्मण शक्तिशेल प्रभृति एवं अन्यान्य अवतार को क्षीर सागर मन्थन प्रभृति का अनुकरण करते थे। कौतुहल क े वशवर्ती होकर विभिन्न प्रकाश के लीलानुकरण अनुष्ठित होता है-उस का सयुक्तिक वर्णन भगवत सन्दर्भ में हुआ है। यहाँ पर ज्ञातव्य यह है कि - कौतुक वशतः जिस समय श्रीभगवान् की किसी लोला का अ स्वादन करने की इच्छा होती है, उस समय श्रीभगवान् में एवं उनके परिकर वर्ग में इस प्रकार एक आवेश उपस्थित होता है कि- जिस से श्रीभगवान् एवं उनके परिकर वृन्द उस उस भाव में विभोर होकर उस उस लीला का अनुकरण

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असुरास्तु न तत्र चेतनाः, किन्तु यन्त्रमय सत्प्रतिमानिभा ज्ञेयाः, (भा० १०।१४१६१) –” एवं विहारैः” इत्यादौ “निलायनैः सेतुबन्ध-मर्कटोत्प्लवनादिभिः” इतिवत्तत्तल्लीलानां नानाप्रकाशैः कौतुकेनानुक्रियमाणत्वात् श्रीभगवत् सन्दर्भादौ हि तथा सभ्यायं दर्शितमस्ति ।

अथ मानसपूजामाहात्म्यम्, यथा नारदपञ्चरात्रे श्रीनारायणवावयम् - " अयं यो मानसो योगो जरा व्याधिभयापहः” इत्यादौ,

“यश्चैतत् परया भक्तचा सकृत् कुर्य्यान्महामते । क्रमोदितेन विधिना तस्य तुष्याग्यहं मुने ॥ ६०॥ एषा क्वचित् स्वतन्त्रापि भवति - मनोमय्या मूर्त्तेरष्टमतया स्वातन्त्र्यण विधानात् (भा० ११।३।५० ) " अचर्चादौ हृदये वापि यथालब्धोपचारकैः" इत्याविर्होत्र वचनेन वा’ शब्दात् ।

अथ पूजास्थानानि विचार्य्यन्ते तानि च विविधानि । तत्र

तत्र शालग्रामादिकं

करते रहते हैं । श्रीभगवान् अप्रकट धाम में भी जो सब असुर प्रतिमा हैं, श्रीभगवान् में जिस समय कौतुक रस का उदय होता है, उस समय तदुचित लीला का अभिनय करते हैं। सयुक्तिक इस का वर्णन श्रीभगवत् सन्दर्भादि में है ।

अनन्तर मानस पूजा का माहात्म्य वर्णन करते हैं-नारद पञ्चरात्र के श्रीनारायण वाक्य इस प्रकार है- “अयं यो मानसो योगो जरा व्याधिभयापहः” मानस पूजानुष्ठान के द्वारा जरा व्याधि, भय प्रभृति विनष्ट होते हैं।

“यश्चैतत् परया भक्तचा सकृत् कुर्य्यान्महामते ।

क्रमोदितेन विधिना तस्य तुष्याम्यहं मुने ॥ ६०६ ॥ इति ।

हे महामते ! जो व्यक्ति परमाभक्ति के सहित उल्लिखित विधि क्रम के अनुसार मानस अर्चन एक वार मात्र भी करता है, मैं उस के प्रति सन्तुष्ट होता हूँ। यह मानस पूजा किसी किसी अधिकारी में स्वतन्त्र रूप से भी होती है । कारण, शैली दारुमयी प्रभृति अष्टविधा प्रतिमा के मध्य में मनोमयी प्रतिमा को अष्टमी प्रतिमा कही गई है। श्रीमद् भागवत के १११३।४१ श्लोक में लिखित है- “अर्चादी हृदये वापि यथालब्धोपचारकैः ।” आविर्होत्र योगीन्द्र निमिमहाराज को कहे हैं- प्रतिमा प्रभृति में अथवा यथालब्ध उपचार के द्वारा निजाभीष्ट देव का अच्चन करे । इत्यादि श्लोक में विकल्प वाची “वा” शब्द प्रयोग के द्वारा हृदय में पूजा की स्वतन्त्रता कही गई है । इस मानस पूजा का अधिकारी प्रतिष्ठान पुर के एक ब्राह्मण थे, उन्होंने मनोमयी प्रतिमा की पूजा मानसोपचार से करके वैकुण्ठ लाभ किया था। इस का वर्णन भक्ति रसामृतसिन्धु ग्रन्थ में एवं प्रह्लाद चरित्र की क्रम सन्दर्भ टीका में है ।

सम्प्रति पूजास्थानों का विचार करते हैं, उक्त पूजास्थान अनेक प्रकार हैं । उस के मध्य में श्रीशालग्राम, यन्त्र एवं मन्त्र में उन उन भगवान् के आकार एवं अधिष्ठान हैं, इस प्रकार चिन्तन करना चाहिये । कारण, श्रीभगवान् का जो आकार हैं, शालग्रामादि में वह दृष्ट नहीं होता है । कारण, आकार गत वैलक्षण्य है । आकार में वैलक्षण्य होने से भी भगवदाकार की चिन्ता करे । कारण, शास्त्र में वर्णित है - जहाँ श्रीशालग्राम शिला हैं, वही श्रीभगवान्‌का अधिष्ठान है ।

‘शालग्रामशिला यत्र तत्र सन्निहितो हरिः” उस के मध्य में श्रीभगवान् जिस भक्त का अभीष्ट देव हैं, उन श्रीभगवान् के आकार के अधिष्ठान रूप में चिन्तन करना ही सिद्धि प्रद है । अर्थात् शालग्राम शिला में

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तत्तद्भगवदाकार।धिष्ठानमिति चिन्त्यम्, - आकार वैलक्षण्यात्, “शालग्रामशिला यत्र तत्र सन्निहितो हरिः” इत्याद्युक्तेः । तत्र च स्वेष्ठाकारस्यैव भगवतोऽधिष्ठानं सुष्ठु सिद्धिकरम्, - तस्मिन्नेवायत्नतस्तदीयप्राकटयातु, (भा० ११।३।४८) मूत्यभिमत्यात्मनः” इत्युक्तः । श्रीकृष्णादीनान्तु मथुरादिक्षेत्रं महाधिष्ठानम्, (भा० १०।१।२८)

“मथुरा भगवान् यत्र नित्यं सन्निहितो हरिः” इत्याद्य क्तः, तथा तत्तन्मन्त्रध्येय वैभवत्वेन मथुरा-वृन्दावनादीनां श्रीगोपाल- तापन्यादौ प्रख्यातत्वात् । मथुरादिक्षेत्राण्येवान्यत्वाधिष्ठाने ध्यानेन प्रकाश्य तेषु भगवांश्चिन्त्यते । अथ श्रीमत् प्रतिमायान्तु तदाकारैकरूपतयेव चिन्तयन्ति - आकारवयात्, “शिलाबु’ द्धः वृता किंवा प्रतिमायां हरेर्मया" इति भावनान्तरे दोषश्रवणाच्च । एवमेव श्रीभगवता (भा० १११२७३१३) “चलाचलेति द्विविधा प्रतिष्ठा जीवमन्दिरम्" इत्युक्तम्, ‘प्रतिष्ठा’- प्रतिमा

जिस प्रकार श्रीभगवान् के आकार का चिन्तन करना पड़ता है, उस प्रकार अभीष्ट प्रतिमा में चिन्तन की अपेक्षा नहीं है । साक्षात् भगवान् स्वाभाविक रूप में वहाँ प्रकटित होते हैं । तज्जन्य भा० ११।३।४८ में उक्त है - “मूर्त्याभिमतयात्मनः " अर्थात् निजाभीष्ट भगवान् की मूर्ति के द्वारा महापुरुष की अच्चना करे । इस प्रकार कहा गया है । श्रीकृष्ण, श्रीरामचन्द्र, प्रभृति भगवत् स्वरूप के मथुरा, द्वारका अयोध्या प्रभृति क्षेत्र ही महान् अधिष्ठान हैं । कारण भा० १०।११२८ में उक्त है- " मथुरा भगवान् यत्र नित्यं सन्निहितो हरिः ॥ " मथुरा में भगवान् श्रीहरि, नित्य सन्निहित हैं। श्रीकृष्ण, गोपाल प्रभृति मन्त्र का ध्येय वैभव रूप में मथुरा वृन्दावन प्रभृति का विशेष उल्लेख श्रीगोपाल तापनी प्रभृति ग्रन्थ में दृष्ट होता है । विशेषतः साधक, अन्यत्र अवस्थित होने पर भी उस स्थान में स्थापित श्रीभगवन्मूत्ति का अधिष्ठान रूप में ध्यान के द्वारा मथुरा प्रभृति क्षेत्र को प्रकाश करके उस में ही श्रीभगवान् की चिन्ता करते रहते हैं । अर्थात् यदि देशान्तर में भी श्रीकृष्ण मूत्ति प्रभृति स्थापित होती हैं तो, भावना के द्वारा श्रीविग्रह को साक्षात् श्रीकृष्ण, एवं उस स्थान को श्रीवृन्दावन चिन्तन करके सेवा करनी चाहिये ।

श्रीमती प्रतिमा में किन्तु श्रीकृष्ण प्रभृति अभीष्ट देवता के रूप सहित सर्वथा अभेद चिन्तन हो महात्मा गण करते हैं, अर्थात् निजाभीष्ट देव के सहित श्रीविग्रह का विन्दु मात्र भी भेद चिन्तन नहीं करते हैं । कारण, आकृति के सहित किसी प्रकार भेद नहीं है । निजाभीष्ट देव के सहित श्रीविग्रह का भेद स्वीकार किञ्चिन्मात्र करने पर भी व्यवहारिक पारमार्थिक बहुल दोष होते हैं। शास्त्र में लिखित है- ‘शिलाबुद्धिः कृता किवा प्रतिमायां हरेर्मया ॥” दशरथ महाराज मृग भ्रम से अन्ध मुनि के पुत्र को वाणाघात से विनष्ट करके जब पिता अध मुनि के निकट ले आये थे, उस समय अन्धमुनि विलाप करके कहे थे- “शिलाबुद्धिः कृता किवा प्रतिमायां हरेर्मया ॥” अर्थात् मैंने कभी श्रीहरि प्रतिमा में शिला बुद्धि की है, जिस अपराध से मुझ को यह पुत्र शोक प्राप्त हुआ । ? इस प्रकार सुस्पष्ट प्रतीति होती है कि - श्रीमूर्ति में निज अभीष्ट देवता से पार्थक्य बुद्धि करने से व्यवहारिक अकल्याण उपस्थित होता है । इस प्रकार ही भा० ११।२७।१३ में हैं-

भगवान् कहे हैं - “चल चलेति द्विविधा प्रतिष्ठा जीव मन्दिरम् ।’ चल एवं अचल द्विविधा प्रतिमा हो जीव मन्दिर हैं । यहाँ प्रतिष्ठा शब्द का अर्थ प्रतिमा है । जीव शब्द का अर्थ है, - जीवों के जीवन प्रद परमात्मा जो मैं हूँ, मेरा मन्दिर है । अर्थात् मेरे अङ्ग प्रत्यङ्ग के सहित अभिन्न आकार का आस्पद अर्थात् स्थान है । अर्थात् मेरा अङ्ग प्रत्यङ्ग के सहित श्रीमूत्ति का कुछ भी भेद नहीं है । अथवा, प्रतिष्ठा शब्द का यह अर्थ जानना होगा कि - श्रीमूर्ति प्रतिष्ठा रूप कर्म के द्वारा पूर्वोल्लिखित अर्थात् चल

[[५८७]]

जीवस्य जोवधितुः परमात्मनो मम मन्दिरं मदङ्गप्रत्यङ्गैरे का कार तास्पदमित्यर्थः, यद्वा, प्रतिष्ठा लक्षणेन कर्मणा पूर्वोक्ता प्रतिमा मम तदास्पदं भवतीत्यर्थः । तथा च हयशीर्ष पञ्चरात्रेषु- ‘विष्णो सन्निहितो भव’ इति सान्निध्यकरणमन्त्रविशेषानन्तरं मन्त्रान्तरम् -

“यच्च ते परमं तत्त्वं यच्च ज्ञानमयं वपुः । तत् सर्व्वमेकतो लीनमस्मिन् देहे विबुध्यताम् ॥ ६१०॥ इति ।

अथवा जीवमन्दिरम् - सर्व्वजीवानां परमाश्रयः साक्षाद्भगवानेव प्रतिष्ठेत्यर्थः । परमोपासकाश्च साक्षात् परमेश्वरत्वेनैव तां पश्यन्ति, भेदस्फूर्त्तेर्भक्ति विच्छेदकत्वात्तथैव हुचितम् । इत्थमेवोक्त श्रीभगवता ( भा० ११।२७।३२)—

“वस्त्रोपवीताभरण-पत्र-स्त्रग् गन्धलेपनैः ।

अलङ्कुर्वीत सप्रेम मद्भक्तो मां यथोचितम् ॥ ६११॥

इत्यत्र मामिति सप्रेमेति च । अतएव विष्णुधर्मे तामधिकृत्य अम्बरीषं प्रति श्रीविष्णुवाक्यम्– “तस्यां चित्तं समावेश्य त्यज चान्यान् व्यपाश्रयान् । पूजिता सैव ते भक्तया ध्याता चैवोपकारिणी । ६१२। गच्छंस्तिष्ठन् स्वपन् भुञ्जंस्तामेवाग्र े च पृष्ठतः । उपर्य्यधस्तथा पार्श्वे चिन्तयंस्तामथात्मनः ॥” ६१३॥

एवं अचल उभयविध प्रतिमा श्रीमूत्ति, मदीय अङ्ग प्रत्यङ्ग के सहित अभेदास्पद होती हैं। हयशीर्ष पञ्चरात्र में श्रीमूर्ति प्रतिष्ठा प्रसङ्ग में उल्लिखित प्रमाण भी यह है- “विष्णो सन्निहितो भव’ हे श्रीविष्णो !

यह श्रीमूर्ति में सन्निहितो हों। इस प्रकार श्रीमूर्ति में श्रीविष्णु सान्निध्य आपादक मन्त्र विशेष के पश्चात् जो मन्त्र है, वह यह है-

बपुः । विबुध्यताम् ॥”६१०॥

“यच्च ते परमं तत्त्वं यच्च ज्ञानमयं तत् सर्वमेकतो लीनमस्मिन् देहे अर्थात् हे प्रभो ! तुम्हारे जो परम तत्त्व एवं तुम्हारे जो ज्ञानमय विग्रह है, तत् समुदय एकत्र इस विग्रह में लीन हैं, इस को अनुभव करो। अथबा जीब मन्दिर शब्द से समस्त जीवों का परमाश्रय साक्षात् भगवान् ही प्रतिष्ठा अर्थात् प्रतिमा ‘श्रीमूत्ति है ‘परम उपासक वृन्द श्रीमूर्ति को साक्षात् परमेश्वर रूप में हो देखते हैं। किञ्चिन्मात्र भेद स्फत्ति होने से भक्ति का बिच्छेद हो जाता है, अतः सर्वथा अभेद बुद्धि से ही सेवा, पूजा प्रभृति करना कर्तव्य है । इस अभिप्राय से ही श्रीभगवान् भा० ११।२७।३२ में उद्धव को कहे हैं-

“वस्त्रोपवीता भरण- पत्र - स्रग् गन्धलेपनैः ।

अलङ्कुर्वीत सप्रेम मद्भक्तो मां यथोचितम् ॥”ε११ ॥

हे उद्धव ! मेरा भक्त, मुझ को प्रीति के सहित वस्त्र, उपवीत, आभरण, पत्र, माल्य, गन्ध एवं चन्दनादि द्वारा सुशोभित करे । इस श्लोक में ‘मां’ मुझ को, “स प्रेम” प्रीति के सहित–पद द्वय प्रयोग के द्वारा यह प्रतीत होता है कि - यह श्रीकृष्ण के सहित श्रीमति का किसी प्रकार भी पार्थक्य होता तो ‘मां’ न कह कर एवं ‘स प्रेम’ न कह कर श्रीमूत्ति को विधिपूर्वक - इस प्रकार कहते । अतएव विष्णु धर्म में

श्री अम्बरीष के प्रति श्रीविष्णु का कथन है-

श्रीमूत्ति को लक्ष्य करके

“तस्यां चित्तं समावेश्य त्यज चान्यान् व्यपाश्रयान् । पूजिता सैव ते भक्तचा ध्याता चैवोपकारिणी ॥ १२॥ गच्छंस्तिष्ठन् स्वपन् भुञ्जंस्तामेवाग्र े च पृष्ठतः । उपधस्तथा पार्श्वे चिन्तयंस्तामथात्मनः ॥ १३॥

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अतएव तत्पूजायामावाहनादिकमित्थं व्याख्यातमागमे-

‘: आवाहनञ्चादरेण सम्मुखीकरणं प्रभोः । भक्तया निवेशनं तस्य संस्थापनमुदाहृतम् ॥६१४॥

तवास्मीति तदीयत्वदर्शनं सन्निधापनम् । क्रियासमाप्तिपर्य्यन्त-स्थापनं संनिरोधनम् ।

सकलीकरणं प्रोक्तं तत्सर्वाङ्गप्रकाशनम् ॥ ६१५॥ इति ।

अत्र शूद्रादिपूजिताच पूजा- निषेधवचनमवैष्णव-शूद्रादिपरमेव, -

‘न शूद्रा भगवद्भक्तास्ते तु भागवता नराः । सर्ववर्णेषु ते शूद्रा ये न भक्ता जनार्द्दने ॥ ११६॥ इत्युक्तेः । अथ सप्तमे (भा० ७११४।३४) -“पात्रम्” इत्यादी श्रीनारदोक्ता अधिष्ठान- विचारे श्रीमदच्चतोऽपि यः पुरुषमात्रातिशयस्तत्रापि ज्ञानिनः, स च कैवल्यकामो भक्तयाश्रयः, -

उस श्रीभगवदमूर्ति में चित आविष्ट करके अन्यावेश को परित्याग करे । भक्ति पूर्वक पूजा करने से एवं ध्यान करने से वह श्रीमूत्ति ही तुम्हारे पक्ष में उप कारिणी होगी। तुम, चलते चलते, खड़ े होते होते, स्वप्न में भोजन में श्रीमूर्ति को ही निज सम्मुख में पश्चाद् भाग में कार में अधोदेश में चिन्ता करते करते तत् स्फूर्तिमयता को प्राप्त करोगे ।

अतएव श्रीमति पूजा विषय में आवाहनादि का प्रकार को निम्नोक्त रीति से जानना चाहिये । आगम में लिखित है-

“आराहनञ्श्चादरेण सम्मुखीकरणं प्रभोः ।

भक्तय। निवेशनं तस्य संस्थापनमुदाहृतम् ॥१४।

तत्रास्मीति तदीयत्वदर्शनं सन्निधापनम् ।

क्रियासमाप्तिपर्यन्त–स्थापनं संनिरोधनम् ।

श्री सकलीकरणं प्रोक्त

ं तत्सर्वाङ्गप्रकाशनम् ॥ ६१५॥

हूँ

आदर पूर्वक सम्मुखी करण का नाम अवाहन । भक्ति पूर्वक उपवेशन कराने का नाम-संस्थापन, ‘तवास्मि’ अर्थात् मैं तुम्हारा हूँ, इस प्रकार तदीयत्व ज्ञापन का नाम सन्निधापन, पूजासमाप्ति पर्यन्त स्थापन का नाम संनिरोधन, श्रीभगवान् के सर्वाङ्ग प्रकाश का नाम सकलीकरण है ।

अनन्तर शूद्रादि पूजित श्रीमत्ति की पूजा करना निषिद्ध है । इस प्रकार शास्त्रोक्ति का समाधान करते हैं- उस प्रकार शास्त्रीय विधान अवैष्णव शूद्रादि पर है। कारण उक्त है-

“न शूद्रा भगवद्भक्तास्ते तु भागवता नराः ।

सर्ववर्णेषु ते शूद्रा ये न भक्ता जनाद्दने ॥ ६१६ ॥

जो भगवद् भक्त हैं, वे शूद्र नहीं हैं, वे भागवत हैं जो जनार्दन में भक्ति शून्य हैं वे ही सब वणों को शूद्र हैं, अर्थात् यह सब ब्राह्मण क्षत्रियादि होने से भी शूद्र को मध्य में परि गणित हैं । भा० ७।१४।३४ म लिखित – सत् पात्र का विचार है- देवर्षि नारद, महाराज युधिष्ठिर को निकट सम्प्रदान हेतु सत् पात्र का निर्वचन में कहे हैं- श्रीमत्ति पूजा से भी पुरुष मात्र की पूजा श्रेष्ठ है। उस में भी ज्ञानवान् व्यक्ति का श्रेष्ठत्व है, ज्ञानी से भी मोक्ष कामी भक्तयाश्रय व्यक्ति श्रेष्ठ है, अर्थात् जो लोक मुक्ति लाभ हेतु श्रीहरिभजन करता है, इस प्रकार दान पात्र क े मध्य में वहश्रेष्ठ पात्र है। उस प्रकरण में अर्थात् भा० ७१५२ में उक्त है- ‘ज्ञान निष्ठाय देयानि " जो ज्ञान निष्ठु है, उस को सत् पात्र जानकर उस को श्राद्धश्रीभक्तिसन्दभः

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तस्मिन् प्रकरणे ( भा० ७।१५।२) “ज्ञाननिष्ठाय देयानि” इत्युपसंहारे ज्ञानिन एव दानपात्रत्वेन परमोत्कर्षोक्तेः । अन्यत्र तु " न मेऽभक्तश्चतुर्वेदी ”, (भा० १०।६।२१) “नायं सुखापो भगवान् इत्यादी, (भा० ६।१४।५ ) " मुक्तानामपि सिद्धानाम्” इत्यादौ च, भक्तस्यैव ततोऽप्युत्कर्षः, किमुत तदुपास्यायाः श्रीमदच्चयाः । अतएव तामुद्दिश्योक्तम् - “नानुव्रजति यो मोहात्” इत्यादि । तथापि ‘पात्रम्’ इत्यादीनामर्थोऽपि क्रमेण दर्श्यते, (भा० ( ११४१३४-३५) -

(२८६) “पात्रं त्वत्र निरुक्तं वै कविभिः पाववित्तमैः ।

तत्र राजसूये ॥

हरिरेवंक उर्वोश यन्मयं वं चराचरम् ॥६१७ ॥

देवर्हत्सु वै सत्सु तत्र ब्रह्मात्मजादिषु । राजन् यदग्रपूजायां मतः पात्रतयाच्युतः ॥ ६१८॥

पात्र प्रदान करना चाहिये । इस प्रकार उपसंहार व क्य में ज्ञ नी को ही श्रेष्ठ पात्र कहा गया है । अन्यत्र उक्त है - “न मे भक्तश्चतुर्वेदी” चतुर्वेद में निष्णात व्यक्ति भी यदि मेरा भक्त नहीं होता है तो वह दान पात्र नहीं हो सकता है। भा० १०।६।२१ में उक्त है- “नायं सुखाको भगवान् " यह यशोदा नन्दन भगवान् देहीगण के पक्ष में सुखाप नहीं हैं, ज्ञानीवृन्द के सुखाप नहीं हैं, आत्मा राम गण के पक्ष में सुखाप नहीं हैं, यहाँ तक कि श्रीनारायण में भक्तिमान् व्यक्ति के पक्ष में भी सुखाप नहीं हैं, एवं ऐश्वर्य ज्ञानी भक्तगण के पक्ष में भी सुखाप नहीं हैं, किन्तु यह गोपिकासुत भगवान् श्रीकृष्ण - यशोदानन्दन भगवान् में भक्तिमान् व्यक्ति के पक्ष में सुखाप हैं । भा० ६।१४१५ में उक्त है - " मुक्तानामपिसिद्धानाम् " कोटि कोटि जीवन्मुक्त महापुरुष वृन्द के मध्य में एक व्यक्ति सिद्ध हो सकता है । कोटि कोटि सिद्ध महापुरुषों के मध्य में श्रीनारायण सेवा निष्ठु निष्काम भक्त सुदुर्लभ है । इत्यादि प्रमाण से विदित होता है कि ज्ञानी से भी भक्त का श्रेष्ठत्व है । अतएव उस निष्काम भक्त के द्वारा उपास्य श्री मूर्ति का उत्कर्ष सुतरां कैमुत्यन्याय से सुसिद्ध है । अतएव श्रीमूर्ति को उद्देश्य करके रथयात्रा प्रसङ्ग में कथित है - “नातु व्रजति यो मोहात्” श्रीभगवान् पुरुषोत्तम जिस समय रथारोहण पूर्वक यात्रा करते हैं, उस समय, मूढ़ता वशतः अर्थात् श्रीमूत्ति में साक्षात् भगवद् बुद्धि न होने के कारण उन का पश्चाद् गमन नहीं करता है । वह व्यक्ति-ज्ञानाग्नि द्वारा दग्ध कम होने पर भी ब्रह्म राक्षस होता है । इस से प्रमाणित हुआ है कि-ज्ञान निष्ठ व्यक्ति भी श्रीमूर्ति की सेवा का आदर भाव न करने से अपराधी होकर अधः पतित होता है । अतएव ज्ञान निष्ठ की पूजा से भी श्रीमति की पूजा करना श्रेष्ठ कार्थ्य है। अर्थ क्रम से वर्णन भा० ७११४।३४- ३५ में इस प्रकार है-

७ (२८६) “पात्रं त्वत्र निरुक्तं वै कविभिः पात्रवित्तमैः ।

हरिरेवंक उर्बीश यन्मयं वै चराचरम् ॥६१७

देवर्हत्सु वै सत्सु तत्र ब्रह्मात्मजः दिषु ।

राजन् यदग्रपूजायां मतः पात्रतयाच्युतः ॥ ६१८ ॥

राजसूय यज्ञ में पात्रज्ञ पण्डित गण - श्रीहरि की ही एकमात्र मख्यपात्र निर्देश किये थे । कारण, यह चराचर विश्व श्रीहरिमय हैं। श्रीहरि को अर्पण करने से सब को अर्पण करना सुसम्पन्न होता है । कारण, श्रीहरि भिन्न स्थावर जङ्गम प्रभृति की पृथक् सत्ता नहीं है । समस्त सत्ता ही श्रीहरि की सत्ता के अवलम्बन से अवस्थित हैं । हे महाराज ! आप का राजसूय यज्ञ में, देवगण, ऋषिगण, पूजनीय तपः सिद्ध

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