२८४

४८९ २८७

हे वसुदेव ! जिस का जन्म दोवार हुआ है, इस प्रकार गृहस्थ के पक्ष में पवित्र भाव से उपार्जित अर्थ के द्वारा निष्काम भाव से परमपुरुष श्रीभगवच्चन करना हो मङ्गल मय पन्था है । सम्पत्तिमान् गृहस्थ

श्रीभगवदर्चन न करके केवल निष्किञ्चन के समान स्मरण निष्ठ होने पर वित्त शाठच दोष उपस्थित होता है। स्वयं अर्चन करके अपर के द्वारा अर्चन कराने से व्यवहार निष्ठुत्व एवं आलस्यत्व का प्रतिपादन होता है । अर्थात् स्वयं आलस्य परायण एवं व्यवहारिक कार्यासक्त है, इस का प्रकाश होता है । अतएव फलतः उस व्यक्ति की श्रद्धा अर्चन मार्ग में नहीं है, इस का बोध होता है, अपर व्यक्ति के द्वाराह अच्चन कार्य सम्पादन कराना अत्यन्त होनता का परिचायक है । अतएव भा० १।३।३८ में उक्त है-

“यो मायया सन्ततयानु वृस्या” अ कपट भाव से इष्ट के अनुकूलः त्ति अवलम्बन द्वारा विस्तृत रूप से अर्चन करने का जो भगवदुपदेश है - उस से वह स्पष्ट होता है ।

परिचय मार्ग जिस प्रकार द्रव्य साध्य है, उस प्रकार अर्चन मार्ग भी द्रव्य साध्य है । अतः परिचयमार्ग से अच्चन मार्ग का पार्थत्रय न होने पर गृहस्थ के पक्ष में अच्चत मार्ग का प्राधान्य है । कारण, गृहस्थ के पक्ष में अत्यन्त विधि की अपेक्षा है। तात् पर्य यह है कि - देहादि सम्बन्ध प्रधान गृहस्थ होने के कारण, विविध कदर्थ्य शील होकर उच्छ ङ्खल भावापन्न होने की सम्भावना गृहस्थ जीवन में है । अतएव विधि द्वारा नियन्त्रित न होने से उच्छ जल भावापन्न होने की आशङ्का है । विधि के अधीन होने से स्वेच्छाचारिता का अवसर उपस्थित नहीं होता है । अर्चन न करके पान भोजन ग्रहण नहीं करेंगे इस प्रकार नियम करना अवश्यक है। विशेषतः गृहस्थाश्रमी के पक्ष में देवता के उद्देश्य में द्रव्य त्याग रूप याग करना भी आवश्यक है । शाखा पल्लव में जल सिञ्चन के समान विभिन्न देवार्चन

वैष्णव के पक्ष में है । एवं मूल में जल सेक स्थानीय निजेष्ट देवार्चन है । अतएव, गृहस्थ

वृक्षमूल

में जल सिञ्चन से जिस प्रकार शाखा पलवादि की तृप्ति स्वतः होती है । उस प्रकार सर्व देवता के मूल स्थानीय श्रीविष्णु का अर्चन करने से, शाखा पल्लव स्थानीय अन्य देव वृन्द का अच्चन रूप याग भी सु सम्पन्नश्रीभक्तिसदन्र्भः

“केशवाच्च गृहे यस्य न तिष्ठति महीपते । तस्यान्नं नैव भोक्तव्यम भक्ष्येण समं स्मृतम् ॥” ८७१ ॥ इति [ ५६६ दीक्षितानान्तु सर्वेषां तदकरणे नरकपातः श्रूयते, यथा विष्णुधर्मोत्तरे-

“एककालं द्विकालं वा त्रिकालं पूजयेद्धरिम् । अपूज्य भोजनं कुर्वन्नरकाणि व्रजेन्नरः ॥" ८७२ ॥ इत्यादि अशक्तमयोग्यं प्रति चाग्नेये-

" पूजितं पूज्यमानं वा यः पश्येद्भक्तितो हरिम् । श्रद्धया मोदयेद्यस्तु सोऽपि यो गफलं लभेत् ॥" ८७३ ॥ इति योगोऽत्र पञ्चरात्राद्युक्तः क्रियायोगः । क्वचिदत्र मानसपूजा च विहितास्ति, तथा च पाद्मोत्तरखण्डे - “साधारणं हि सर्वेषां मानसेज्या नृणां प्रिय” इति । किञ्च, अस्मिन्नर्चनमार्गे- ऽवश्यं विधिरपेक्षणीयस्ततः पूर्वं दीक्षा कर्त्तव्या । अथ शास्त्रीयं विधानञ्च शिक्षणीयम् । दीक्षा यथागमे -

“द्विजानामनुनीतानां स्वकर्म्माध्ययनादिषु । यथाधिकारो नास्तीह स्याच्चोपनयनादनु ॥८७४ ॥ तथात्रादीक्षितानान्तु मन्त्रदेवार्चनादिषु । नाधिकारोऽस्त्यतः कुर्य्यादात्मानं शिवसंस्तुतम् ॥” ८७५॥

होता है। देवता के उद्देश्य में द्रव्य त्याग न करके केवल स्त्री पुत्र के भोग विलास सम्पादन हेतु अर्थ व्यय करने से –महापातक होता है । अतएव गृहस्थ के पक्ष में भगवदचर्च्चन करना महान् दोष होता है । अतएव स्कन्द पुराण में श्रीप्रह्लाद वाक्य यह है–

“केशवाच्च गृहे यस्य न तिष्ठति महीपते ।

तस्यान्नं नैव भोक्तव्यमभक्ष्येण समं स्मृतम् ॥ ८७१ ॥

जिस के घर में श्री केशव की अर्चना श्रीमूर्ति पूजा नहीं है, उसका अन्न–अभक्ष्य मान कर भोजन न करे, विशेषतः जो श्रीविष्णु मन्त्र में दीक्षित नहीं है, वह गृहस्थ हो वा उदासीन हो, किंवा ब्रह्मचारी अथवा वान प्रस्थो हो- निजेष्ट देव की पूजा न करने से सब के पक्ष में अविशेष रूप से नरकपात होता है, यह वृत्तान्त शास्त्र में वर्णित है । विष्णु धर्मोत्तर में लिखित है, विष्णु मन्त्र में दीक्षित मानव, एककाल, द्विकाल, अथवा त्रिकाल श्रीहरि की पूजा करे । श्रीहरि की पूजा न करके भोजन करने से विविध नरक में गणन करना पड़ता है। अग्नि पुराण में लिखित है- जो पूजा करने में अक्षम वा अयोग्य है, वह यदि पूजित वा पूज्यमान श्रीहरि का दर्शन करता है, अथवा श्रद्धा युक्त होकर अनुमोदन करता है, तो पूजा फल को प्राप्त करता है ।

“एककालं द्विकालं वा त्रिकालं पूजयेद्धरिम् ।

अपूज्य भोजनं कुर्वन्नरकाणि व्रजेन्नरः ॥ ८७२॥

“पूजितं पूज्यमानं वा यः पश्येद्भक्तितो हरिम् ।

श्रद्धया मोदयेद्यस्तु सोऽपि योगफलं लभेत् ॥ ८७३॥

यहाँ पर “योग” शब्द का अर्थ श्रीनारद पञ्चरात्रोक्त क्रियायोग है। किसी किसी स्थान में मानस पूजा की भी व्यवस्था है । पाद्मोत्तरखण्ड में लिखित है- ‘साधारणं हि सर्वेषां मानसेज्या नृणां प्रिये,

मानव मात्र के पक्ष में साधारण भाव से मानस पूजा ही प्रिय है। इस अच्छेन मार्ग में अवश्य ही विधि के अपेक्षा है । अतएव प्रथमतः दीक्षा ग्रहण करना अवश्य कर्त्तव्य है । अनन्तर श्रीगुरु चरण के समीप से शास्त्रीय अर्चन विधि की शिक्षा करनी चाहिये, इस अच्चन मार्ग में स्नेच्छ नुसार अर्थात् मनमुखी रूप

कुछ भी करना निषिद्ध है ।

से

[[५७०]]

शास्त्रीयविधानञ्च यथा विष्णुरहस्ये–

“अविज्ञाय विधानोक्तां हरिपूजाविधिक्रियाम् । कुर्वन् भक्तया समाप्नोति शतभागं विधानतः ॥ ८७६॥ भक्तचा परमादरेणैव शतभागं प्राप्नोत्यन्यथा तावन्तमपि नेत्यर्थः । विधौ तु वैष्णव- सम्प्रदायानुसार एव प्रमाणम्, यतो विष्णुरहस्ये-

“अर्चयन्ति सदा विष्णु मनोवाक्काय कर्म्मभिः । तेषां हि वचन ग्राह्य ते हि विष्णुसमा मताः ॥ ८७७ कौर्म-

“संपृष्ट्वा वैष्णवान् विप्रान् विष्णुशास्त्रविशारदान् । चीर्णव्रतान् सदाचारान् तदुक्त

ं यत्नतइचरेत् ॥८। वैष्णवतन्त्रे - 11

“येषां गुरौ च जध्ये च विष्णौ च परमात्मनि । नास्ति भक्तिः सदा तेषां वचनं परिवर्जयेत् ॥ " ८७६ ॥ इति ।

-दीक्षा ग्रहण की अवश्य कर्त्तव्यता के सम्बन्ध में आगम में उक्त है ।

احمد

‘द्विजानामनुपनीतानां स्वकर्मध्ययनादिषु ।

  1. यथाधिकारो नास्तीह स्याच्चोपनयनादनु ॥ ८७४ ॥ तथात्रादीक्षितानान्तु मन्त्रदेवाच्चनादिषु ।

नाधिकारोऽस्त्यतः कुर्य्यादात्मानं शिवसंस्तुतम् ॥” ८७५ ॥

अनुपाति द्विज के पक्ष में जिस प्रकार वेद एवं वेदानुगत शास्त्राध्ययन अधिकार नहीं है, उपनयन संस्कार के पश्चात् अध्ययनाधिकार होता है, उसी प्रकार, अदीक्षित मानव के पक्ष में मन्त्र देवतार्च्चन का अधिकार नहीं है, अतएव अपने को शिवसंस्तुत करे । अर्थात् मन्त्रदीक्षा ग्रहण अवश्य करे । यही दीक्षा ग्रहण की अवश्य कर्त्तव्यता है । विष्णु रहस्य में शास्त्रीय विधान वर्णित है-

“अविज्ञाय विधानोक्तां हरिपूजाविधिक्रियाम् ।

कुर्वन् भक्तया समाप्नोति शतभागं विधानतः ॥ " ८७६ ॥

जो व्यक्ति श्रीगुरुचरण के समीप से अच्चन विधि को न जानकर श्रीहरि पूजाविधि क्रिया का अनुष्ठान भक्ति पूर्वक करता है, वह, विधि पूर्वक पूजा करने से जो फल होता है, उस के शतभाग का एक भाग फल प्राप्त करता है। भक्ति एवं आदर पूर्वक पूजा करने से ऐसा होता है, अन्यथा अर्थात् परमादर से पूजा न करने से शवभाग का एक भाग भी फल लाभ नहीं होगा। अच्चन विधि के विषय में वैष्णव सम्प्रदाय के अनुसार प्रचलित विधि को जानना होगा । अर्थात् शास्त्र में बहु प्रकार विधि वर्णित होने पर भो वैष्णव गण जिस रीति से अर्चन करते रहते हैं, उस विधि से ही अर्चन करना कर्त्तव्य है । कारण, विष्णु रहस्य में लिखित है-

“अर्चयन्तिः सदा विष्णु ं मनोवाक्कायकर्मभिः ।

तेषां हि वचनं ग्राह्यं ते हि विष्णुसमा मताः ॥ ८७८ ॥

जौ कायिक, वाचिक, मानसिक रूप से सर्वदा श्रीविष्णु की अर्चना करते हैं, उनका वचन ही ग्राह्य है, कारण वे विष्णुसम होते हैं । कूर्म पुराण में भी लिखित हैं-

‘संपृष्ट वा वैष्णवान् विप्रान् विष्णुशास्त्र विशारदान् ।

चीर्णव्रतान् सदाचारान् तदुक्तं यत्नतश्चरेत् ॥ ८७८ ॥

विष्णु भक्ति शास्त्र विशारद वैष्णव ब्राह्मण वृन्द को जिज्ञासा करके, जो सदाचार परायण होकर व्रतादि आचरण करते हैं, उन को वाक्य को यत्न पूर्वक सुनकर आचरण करे। वैष्णव तन्त्र में भी लिखित

श्रीभक्ति सन्दर्भः

तथाह (भा० ६४२१) -

(२८३) “एवं सदा” इत्यादी, “तन्निष्ठविप्राभिहितः शशास ह” इति । अम्बरीष इति प्रकरणलब्धम् ॥ श्रीशुकः ॥

श्रीभगवता

[[५७१]]

४९० २८४

ननु भगवन्नामात्मका एव मन्त्राः । तत्र विशेषेण नमः शब्दाद्यलङ्कृताः श्रीभगवता श्रीमहर्षिभिश्चा हितशक्तिविशेषाः,

सममात्मसम्बन्धविशेष- प्रतिपादकाश्च । तत्र केवलानि श्रीभगवन्नामान्यपि निरपेक्षाण्येव परमपुरुषार्थ फलपर्यन्तदान समर्थानि । ततो मन्त्रेषु नामतोऽप्यधिक-सामर्थ्येऽलब्धे कथं दीक्षाद्यपेक्षा ? उच्यते - यद्यपि स्वरूपतो नास्ति, तथापि प्रायः स्वभावतो देहादि-सम्बन्धेन कदर्य्यशीलानां विक्षिप्तचित्तानां जनानां तत्तत्सङ्कोचीकरणाय श्रीमदृषिप्रभृतिभिरत्रार्च्चनमार्गे क्वचित् क्वचित् काचित् है - 1

“येषां गुरौ च जप्ये च विष्णौ च परमात्मनि ।

[[1]]

नास्ति भक्तिः सदा तेषां वचनं परिवज्जयेत् ॥ ८७ ॥

जिस की भक्ति श्रीगुरु में जप्य मन्त्र में एवं परमात्मा श्रीविष्णु में भक्ति नहीं है, उस के वचन को सर्वथा परित्याग करे । उक्त विष्णु रहस्य के बाक्य में ‘लखित है- “अच्र्चयन्ति सदा विष्णु” यहाँ ‘सदा’ शब्द का अर्थ–सर्वदा अर्थात् निरवच्छिन्न रूप से अहोरात्र अच्चन परायण का कथन ग्राह्य है, इस प्रकार नहीं है, किन्तु जो व्यक्ति, अर्चन निष्ठु हैं, इस प्रकार भक्त का वाक्य पालन करे। इस अभिप्राय से ही यहाँ ‘सदा’ शब्द का प्रयोग हुआ है । कारण - भा० ६।४।२१ के अम्बरीष चरित्र में उक्त है-

(२८३) “एवं सदा कर्मकलापमात्मनः परेऽधिः यज्ञेभगवत्यधोक्षजे ।

सर्वात्मभावं विदधन्महीमिमां तन्निविप्राभिहितः शशास ह् ॥”

टीका - सर्वत्रात्मेति भावो भावना यस्मिन् तम् आत्मनः स्वस्य कर्मणां कलापं समूह भगवतिः विदधत् समर्पयत् तन्निष्ठे भगवतं विप्रैरभिहितः शिक्षितः सन् महीं शशास पालयामास । अनेनाधिकृत- धम्र्मोऽपि यथावद् दर्शितः । “एवं सदा” “तन्निष्ठ विप्राभिहितः शशास ह”

TE

अर्थात् भक्तिनिष्ठ ब्राह्मण वृन्द कर्तृक उपदिष्ट होकर पृथिवी शासन, अम्बरीष किये थे । अतएव “सदा” शब्द का अर्थ - अर्चन निष्ठा को जानना चाहिये ।

प्रवक्ता श्रीशुक हैं-॥२८३॥ २८४ । यहाँपर प्रश्न हो सकता है कि -मन्त्र समूह - भगवन्नामात्मक ही हैं। किन्तु विक्षेष रूप से उस में नमः प्रभृति शब्द प्रयुक्त हैं। जैसे “श्रीकृष्णाय नमः” श्रीभगवान् एवं ऋषि गण मन्त्र में विशेष शक्ति अपंग किये हैं । एवं श्रीभगवान् के सहित दास्य, सख्य प्रभृति सम्बन्ध विशेष प्रति पादक मन्त्र समूह होते हैं। उस के मध्य में जो भगवन्नाम समूह हैं, यह सब नमः, स्वाहा स्वधा, प्रभृति शब्द युक्त न होकर भी, एवं श्रीभगवान् एवं महानुभव ऋषि वृन्द कर्तृक अर्पित शक्ति विशेष की अपेक्षा न करके ही परम पुरुषार्थ - श्रीभगवच्चरणारविन्द में प्रेम दान करने में समर्थ हैं । अतएव नाम से मन्त्र में अधिक सामर्थ्य विद्यमान होने पर भी मन्त्र - दीक्षा विधि की अपक्षा क्यों करता है ?

नाम को दीक्षा विधि की अपेक्षा नहीं है । एवं नाम में अधिकारी के विषय में भेद नहीं है । उत्तरमें ग्रन्थ कार कहते हैं- यद्यपि स्वरूप सामर्थ्य विचार में दीक्षा पूर्वक ग्रहण करने की विधि मन्त्र में नहीं है । तथापि देहादि सम्बन्ध में प्रायशः स्वाभाविक कदर्थ्य शील विक्षिप्त चित्त मानव वृन्द के पक्ष में- कदर्य स्वभाव एवं चित्त विक्षेप को सङ्कोच करने के निमित्त महानुभव ऋषिवृन्द अर्चन मार्ग में किसी किसी मन्त्र में

[[५७२]]

का चिन्मय्र्यादा स्थापितास्ति । ततस्तदुल्लङ्घने शास्त्र ं प्रायश्चित्तमुद्भावयति । तत उभयमपि नासमञ्जमिति तत्र तत्तदपेक्षा नास्ति, यथा श्रीरामचन्द्रमुद्दिश्य रामार्चन चन्द्रिकाताम्- “वैष्णवेष्वपि मन्त्रेषु राममन्त्राः फलाधिकाः । गाणपत्यादिमन्त्रेभ्यः कोटिकोटिगुणाधिकाः ॥ ८८० विनैव दीक्षां विप्रेन्द्र पुरश्च विनैव हि । विनैव न्यासविधिना जपमात्रेण सिद्धिदाः ॥” ८८१ ॥ इति । एवं साध्यत्वादि परीक्षानपेक्षा च क्वचित् श्रूयते, यथोक्तं मन्त्रदेवप्रकाशिकायाम्-

[[1]]

“सौरमन्त्राश्च येऽपि स्युर्वैष्णवा नारसिंहकाः । साध्य-सिद्ध-सुसिद्धारि-विचार- परिवज्जिताः ॥ ८२॥ इति । तन्त्रान्तरे-

“नृसिंहार्क– वराहाणां प्रसादप्रवणस्य च । वैदिकस्य च मन्त्रस्य सिद्धादीन्नैव शोधयेत् ॥ ८८३ ॥ सनत्कुमारसंहितायाम्-

“साध्यः सिद्धः सुसिद्धश्च अरिश्चैव च नारद । गोपालेषु न बोद्धव्यः स्वप्रकाशो यतः स्मृतः ॥७८४ ॥

मर्य्यादा स्थापन किये हैं, अतएव उक्त मर्थ्यादा लङ्घन करने से शास्त्र - प्रायश्चित्त करने का विधान प्रदान करते हैं, अतएव मन्त्र स्वरूप विचार में दीक्षा ग्रहण की आवश्यकता नहीं है । अथच ऋषि गण दीक्षा ग्रहण करने की अवश्य कर्त्तव्यता का निर्देश दिये हैं । अतएव उभय हो सामञ्जस्य पूर्ण है, अर्थात् स्वरूपत मन्त्र दीक्षा ग्रहण की आवश्यकता न होने पर भी, ऋषिगण कर्त्तृक विहित मर्यादारक्षण हेतु दीक्षा ग्रहण परम आवश्यक है । मन्त्र में दीक्षा ग्रहण की आवश्यकता नहीं है- इस का कथन श्रीरामचन्द्र को उद्देश्य करके श्रीरामाचर्च्चन चन्द्रिका में लिखित है,

“बैष्णवेष्वपि मन्त्रेषु राममन्त्राः फलाधिकाः ।

गाणपत्यादि मन्त्रेभ्यः कोटिकोटिगुणाधिकाः ॥८०॥

विनैव दीक्षां विप्रेन्द्र पुरश्चर्थ्यां विनैव हि ।

विनैव न्यः सविधिना जपमात्रेण सिद्धिदाः ॥८१॥

,

वैष्णव मन्त्र के मन्त्र में भी राम मन्त्र अधिक फल प्रद है । गाणपत्य प्रभृति मन्त्र से कोटि कोटि गुण फल दायी है। हे विप्रेन्द्र ! दीक्षा ग्रहण के बिना भी एवं पुरश्चर्या विधि के विना व्यास विधि के विना, यह मन्त्र जप मात्र से सिद्धि प्रदान करता है । इस प्रकार इस मन्त्र में दीक्षा ग्रहण की अपेक्षा नहीं है । कतिपय मन्त्र में साध्य सिद्ध प्रभृति परीक्षा की प्रयोजनीयता भी नहीं है । यह भी सुनने में आता है । मन्त्रदेवप्रकाशिका में लिखित है-

“सौरमन्त्राश्च येऽपि स्युर्वेष्णवा नारसिंहाः ।

साध्य-सिद्ध-सुसिद्धारि - विचार -परिवज्जिताः ॥ ८८२ ॥

सूर्य विषयक जो सब मन्त्र एवं वैष्णव मन्त्र समूह, नरसिंह सम्बन्धीय मन्त्र, - यह सब मन्त्रों में साध्य, सिद्ध, सुसिद्ध, एवं अरि का विचार नहीं है । तन्त्रान्तर में भी लिखित है-

नृसिंहार्क- वराहाणां प्रसाद प्रवणस्य च ।

वैदिकस्य च मन्त्रस्य सिद्धादीन्नैव शोधयेत् । ८८३ ॥

नृसिंह, सूर्य्य, वराह देव के मन्त्र एवं स्वयं प्रकाश प्रणव, तथा वेदोक्त मन्त्र समूह में सिद्ध प्रभृति का विचार करना निषिद्ध है । सनत् कुमार संहिता में उक्त है-

[[10]]

" साध्यः सिद्धः सुसिद्धश्च अरिश्चैव च नारद ।

गोपालेषु न बोद्धव्यः स्वप्रकाशो यतः स्मृतः ॥ ८४ ॥

श्रीभक्तिसन्दभः

अन्यत्र -

“सर्वेषु वर्णेषु तथाश्रमेषु, नारीषु नानाह्वय - जन्म - भेषु ।

[[५७३]]

दाता फलानामभिवाञ्छितानां द्रागेव गोपालक-मन्त्र एषः । " ८८५॥ इत्यादि ।

मर्यादा यथा ब्रह्मयामले-

“श्रुति स्मृति-पुराणादि-श्वरात्त्रविधि बिना । ऐवान्तिको हरेर्भक्तिरुत्पातयैव कल्पते । ८८६ ॥ इति । इत्थमेवाभिप्रेतं श्रीपृथिव्या चतुर्थे ( भा० ४११८३-५) -

“अस्मिल्ँलोकेऽथवामुहिमन् मुनिभिस्तत्त्वदर्शिभिः । दृष्टा योगाः प्रयुक्ताश्च पुंसां श्रेयः प्रसिद्धये ॥ ८८७ ॥ तानातिष्ठति यः सम्यगुपायान् पूर्वदशितान् ।

अवरः श्रद्धयोपेत उपेयात् विन्दतेऽञ्जसा ॥८८८॥

ताननादृत्य योऽविद्वानर्थानारभते स्वयम् ।

तस्य व्यभिचरन्त्यर्था आरब्धाश्च पुनः पुनः ॥ ८८ ॥ इति ।

गोपाल मन्त्र में साध्य, सुसिद्ध, सिद्ध, एवं अरि विचार नहीं है, कारण यह मन्त्र स्व प्रकाश है । अन्यत्र भी दृष्ट होता है-

“सर्वेषु वर्णेषु तथाश्रमेषु, नारीषु नानाह्वय जन्म भेषु ।

बाता फलानामभिवाञ्छितानां द्रागेव गोपालक मन्त्र एषः ॥” ८८५॥

समस्त वर्ण, आश्रम एवं नारी में विभिन्न प्रकार जन्म नक्षत्र में अभीप्सित फल प्रद श्रीगोपाल मन्त्र है । अर्थात् जपान्त में फल प्रद नहीं है, जप समाप्ति के पर्व में फल प्रदान करते हैं। यह है –जिस जिस मन्त्र में दीक्षादि की अपेक्षा नहीं है- उस का विवरण । ऋषि वृद्ध ने जो मर्य्यादा का स्थापन किया है, उसका वर्णन ब्रह्म यामल में उस प्रकार है-

“श्रुति स्मृति पुराणादि पञ्चरात्रविधि विना ।

ऐकान्तिको हरेर्भक्तिरुत्पातायैव कल्पते ॥” ८८६ ॥

श्रुति स्मृति पुराण प्रभृति एवं पञ्चरात्र की विधि को परित्याग करके ऐकान्तिको श्रीहरि भक्त- विघ्न उत्पादन करती है। भा० ४।१८।३-५ में इस विषय को अवलम्बन करके श्रीपृथिवी देवी पृथुमहाराज को कही थीं-

“अस्मिल्ँलोकेऽथवामुष्मिन् मुनिभिस्तत्त्वदर्शिभिः 1

दृष्टश योग : प्रयुक्ताश्च पुंसां श्रेयः प्रसिद्धये ॥१८८७॥ तानातिष्ठति यः सम्यगुपायान् पूर्वदशितान् ।

अवरः श्रद्धयोपेत उपेयात् विन्दतेऽञ्जसा ॥८८॥

ताननादृत्य योऽविद्वानर्थानारभते स्वयम् ।

तस्य व्यभिचरन्न्यर्था आरब्धःश्च पुनः पुनः । " ८८ ॥

हे राजन् ! तत्त्वदर्शो मुनिवृन्द मानव मात्र के कल्याण हेतु इस लोक के निमित्त कृष्यादि विविधोपाय एवं परलोक के निमित्त अग्निहोत्र प्रभृति उपायों का उल्लेख किये हैं । एवं स्वयं भी अनुष्ठान कहे हैं। जो मानव, श्रद्धालु होकर महाजन गण कर्त्तृक दर्शित उपाय समूह का सम्यक् अनुष्ठान करता है, वह अक्लेश से फल प्राप्त कर धन्य होता है । और जो मूर्ख ऋषि गण प्रदर्शित उपायों को अनादर करके

[[५७४]]

अतएवोक्तं पाद्म श्रीनारायण-नारद-संवादे- “मद्भक्तो यो मदचर्चाश्च करोति विधिवदृषे । तस्यान्तरायाः स्वप्नेऽपि न भवन्त्य भयो हि सः ॥ ८०॥ इति

तदेतदच्चैनं द्विविधम्- केवलम्, कर्म्ममिश्रञ्च । तयोः पूर्वं निरपेक्षाणां श्रद्धावतां दर्शित- माविर्होत्रेण (भा० १११३।४७) - “य आशु हृदयग्रन्थिम्” इत्यादौ, उक्तञ्च श्रीनारदेन

( भा० ४।२६१४७) -

“यदा यस्यानुगृह्णाति भगवानात्मभावितः ।

स जहाति मति लोके वेदे च परिनिष्ठिताम् ॥ ८६ १॥ इति,

अत्र श्रीमदगस्त्यसंहिता च-

“यथा विधि निषेधो च मुक्त नैवोपसर्पतः । तथा न स्पृशतो रामोपासकं विधिपूर्वकम् ॥८६२॥ इति ।

स्वयं बुद्धि बल से कार्य्यानुष्ठान करता है, उस के समस्त उद्देश्य विफल होते हैं। एवं वारं वार अनुष्ठित कर्म भी विघ्न सङ कुल हो जाता है । अतएव पद्म पुराण के श्रीनारायण नारद संवाद में उक्त है-

“मद्भुक्तो यो मबच्चाञ्च करोति विधिवदृषे ।

तस्थान्तरायाः स्वप्नेऽपि न भवन्त्यभयो हि सः ॥ ८० ।

हे ऋषि ! जो व्यक्ति, भक्तिमान् होकर विधि पूर्वक मेरी मूर्ति की पूजा करता है-स्वप्न में भी उसका विघ्न उपस्थित नहीं होता है । कारण, वह भक्त, सर्व प्रकार से निर्भय है ।

इस से प्रतिपन्न हुआ है कि - ऋषिगण - यथा विधि श्रीगुरु पादाश्रय करके दीक्षा ग्रहण करना आवश्यक है इस प्रकार व्यवस्था प्रदान किये हैं। दीक्षा गुरु के चरणाश्रय रूप महतों का आचरण लङ्घन करके निज बुद्धि पूर्वक जा अर्चनादि साधनानुष्ठ न करने से फल लाभ तो होगा ही नहीं अपर. तु विविध विघ्न सकुल जीवन होगा ।

पूर्वोक्त अच्चन द्विविध हैं। केवल एवं कर्ममिश्र । उस के मध्य में जो निरपेक्ष एवं श्रीभगवद् भक्ति में विश्वासी है, उस के सम्बन्ध में भा० ११।३।४७ में आविर्होत्र ने कहा-

“थ आशु हृदयग्रन्थि निज्जिहीर्षुः परात्मनः ।

विधिनोपचरेद् देवं तन्त्रोक्तेन च केशवम् ॥

जो व्यक्ति, आशु देहादि भिन्न जीवात्मा की हृदय ग्रन्थि, अर्थात् अहङ्कार बन्धन को छेदन करने की इच्छा करता है, वह वैदिक विधि के सहित तन्त्रोक्त विधि के अनुसार निज अभीष्ट केशव की अर्चना करे । उक्त क्रमानुसार से ही अर्चन करना कर्तव्य है । ४।२६।४७ में श्रीनारद ने कहा है -

“यदा यस्यानुगृह्णाति भगवानात्मभावितः ।

स जहाति मति लोके वेदे च परिनिष्ठिताम् ॥ ८१ ॥

निज हृदय में चिन्तित भगवान् जिस के प्रति अनुग्रह करते हैं, वह लोक एवं वेद में परिनिष्ठित बुद्धि को परित्याग करता है, वेद विधि एवं लोकापेक्षा परित्याग विषय में अगस्त्य संहिता में लिखित है–

“यथा विधि निषेधौ च मुक्तं नैवोपसर्पतः

तथा न स्पृशतो रामोपासकं विधिपूर्वकम् ॥८२॥

विधि एवं निषेध जिस प्रकार मुक्त पुरुष के निकट उपस्थित नहीं हो सकते हैं, उस प्रकार जो व्यक्ति, विधि पूर्वक श्रीराम चन्द्र की उपासना करता है, उस को कर्मकाण्ड के विधि निषेध भी स्पर्श

श्रीभक्ति सन्दर्भः

[[५७५]]

उत्तरं व्यवहारचेष्टातिशयवत्ता यादृच्छिक भक्तचनुष्ठानवत्ता दि लक्षणलक्षित-श्रद्धानां तथा तद्वैपरीत्यलक्षित श्रद्धानामपि प्रतिष्ठितानां तदर्भात वार्त्तानभिज्ञबुद्धिषु साधारणवैदिक- कर्मानुष्ठानलोपोऽप मा भूदिति लोकसंग्रहपराणां गृहस्थानां दर्शितम् । यथा

( भा० ११।२७।६-११) -

(२८४) " न ह्यन्तोऽनन्तपारस्य” इत्यादौ,

स्पष्टम् ॥ श्रीभगवान् ॥

“सन्धयोपास्त्यादि-कर्माणि वेदेनाचोदितानि मे ।

पूजां तेः कल्पयेत् सम्यक् सङ्कल्पः कर्म्मपावनी ॥ " ८८ ३ । इति ।

कर नहीं सकते हैं। जिन की अतिशय व्यवहारिक चेष्टा है, अथच, यादृच्छिक - अर्थात् पिता पितामह क्रम से श्रीशालग्रामादि का अच्चन जिस प्रकार उन्होंने देखा है, उस प्रकार श्रद्धा से हो जो अर्चन करते हैं । यह सब श्रद्धावान् जन, एवं जिन में वास्तविक हो श्रीमति अच्चन में यथार्थ दृढ़ विश्वास हुआ है, इस प्रकार भक्ति अङ्ग में शास्त्रीय श्रद्धा युक्त लब्ध प्रतिष्ठ एवं भगवत् वार्त्ता में अभिज्ञ मानव समाज में वैदिक कर्मानुष्ठान भी लोप न हो जाय, इस रीति से लोक दर्शन शिक्षा प्रवर्त्तक अर्थात् लोक संग्रहपर गृहस्थ भक्त वृन्द भी कर्म्ममिश्र अच्चन में अधिकारी है । सारार्थ यह है कि-जिस की दृढ़ श्रद्धा भक्ति में नहीं है, केवल लोक परम्परा क्रम से अर्चनादि करता रहता है । एवं जो भक्ति में शास्त्र श्रद्धा लाभ किये हैं, एवं जिनका आचरण का साधारण लोक भी करते हैं, इस प्रकार लब्ध प्रतिष्ठ साधारण गृहस्थ भक्त भी लोक संग्रह करने के निमित्त अर्थात् जो लोक भक्ति की महिमा नहीं जानते हैं-इस प्रकार जन समाज में भक्ति आचरण विलुप्त न हो इस प्रकार अभिप्राय जिस के हृदय में है, उनके पक्ष में भी कर्म मिश्रा अर्चनाङ्ग भक्ति का अनुष्ठान कर्त्तव्य है । श्री भगवान उद्धव को भा० ११।२६-६-११ में कहे हैं ।

(२८४ ) " न ह्यन्तोऽनन्तपारस्य”

“सन्ध्योपास्त्यादि-कर्माणि वेदेनाचोदितानि मे ।

पूजां तैः कल्पयेत् सम्यक् सङ्कल्पः कर्म्मपावनीम् ॥ ८६३॥

हे उद्धव ! यह पूजाविधि अनन्त है। शास्त्रीय विधि अनुष्ठान की भी अवधि नहीं हैं। मैं तुम्हारे निकट आनुपूर्विक वर्णन करता हूँ । वह पूजा विधि विविध हैं, वैदिक, तान्त्रिक एवं वैदिक तान्त्रिक मिश्रिता उस के मध्य में जिस अच्चन में मन्त्र एवं पूजा के अङ्ग समूह वैदिक हैं- उसका नाम वैदिक अच्चन है । इस प्रकार तान्त्रिक अर्चन में भी जानना होगा । मिश्र - अष्टाक्षरादि है। इस तीनों के मध्य में जो जिसका अभीप्सित है, उस विधि के अनुसार वह पूजा करे। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, यह त्रैर्वाणिक के पक्ष में पूजा करने का विधान यह है-गर्भ से आरम्भकर अष्टम, एकादश, द्वादश वर्ष में निज अधिकारी चित्त वेदोक्त द्विज होकर अर्थात् उपनयन संस्कार प्राप्त कर श्रद्धापूर्वक मेरा अर्चन करे । प्रतिमा, स्थण्डिल, अग्नि, सूर्य्य, जल, अथवा निज हृदय में भक्ति युक्त होकर द्रव्य द्वारा निष्कपट भाव से निज

गुरु रूपी मेरी पूजा करे । निज देह शुद्धि हेतु दन्त धावन पूर्वक वैदिक तान्त्रिक मिश्र मन्त्र के द्वारा एवं मृत्तिका ग्रहणादि के द्वारा स्न न करे । अनन्तर सन्ध्या उपासनादि धम्मं जो वेद विहित है, यह सब कर्माङ्ग अनुष्ठान पूर्वक मेरी पूजा करे । किन्तु उस अर्चन कार्य में मदीय सन्तोषार्थ रूप सङ्कल्प करे । अर्थात् श्रीविष्णु प्रीति काम होकर अच्चन करे। इस प्रकार अनुष्ठान करने से ही कर्म द्वारा कर्म बन्धन विनष्ट होगा। कर्म मिश्र अर्चन अङ्ग की व्यवस्था भी इस प्रकार ही जाननी होगी ।

[[२७६]]