४८६ २८३
अत्र पादसेवायां श्रीमूत्तिदर्शन- स्पर्श परिक्रमानुव्रजन भगवन् मन्दिर- गङ्गा पुरुषोत्तम- द्वारका-मथुरादि तदीयतीर्थस्थान गमनादयोऽप्यन्त भव्यास्तत्परिकर प्रायत्वात् । यावज्जीवं
आराध्य कस्त्वां ह्यपवर्गदं हरे, वृणीत आर्य्यो वरमात्मबन्धनम् ॥“८५६॥
श्रीमुचुकुन्द महाराज श्रीभगवान् को कहे थे - हे प्रभो ! जिन्होंने मोक्ष पर्यन्त समस्त कामना को परित्याग किया है, उन सब के द्वारा प्रार्थित - आप के चरणारविन्द की सेवा को छोड़ कर मैं कुछ भी वर प्रार्थना नहीं करता हूँ । हे हरे ! आप की आराधना करके कौन व्यक्ति आप से मुक्ति वर ग्रहण करेगा ? आप की आराधना करके बन्धन ग्रहण हो आधारक गण करते हैं, तथापि मुक्ति ग्रहण नहीं करते हैं। श्लोक में ‘वरमात्मबन्धनम् " निखिल ‘बरं’ शब्द का अर्थ वरणीय, -प्रार्थनीय नहीं है, कारण, श्लोक के पूर्व चरण में ‘वरं’ शब्द का ऐकवार प्रयोग हुआ है । अतएव द्वितीय ‘बर’ शब्द अव्यय है, एवं ईषत् प्रिय अर्थ में प्रयुक्त है । अर्थ यह है कि – जिस आत्मबन्धन से मुक्त होकर आप के चरणार विन्द की सेवा करने का सौभाग्य लाभ नहीं होता है, उस मुक्ति की कामना आर्य्यगण नहीं करते हैं । इस प्रकार अर्थ न करने से परवर्ती श्लोक की सङ्गति नहीं होगी ॥ २८१ ॥
४८७ १८२
इस के बाद - भा० १०५१।५६ में मुचुकुन्द महाराज ने कहा है-
(२८२) “तस्माद्विसृज्याशिषईशसर्वतो रजस्तमः सत्त्व गुणानुबन्धनाः ।
निरञ्जनं निर्गुणमद्वयं परं त्वां ज्ञप्ति मात्रं पुरुषं व्रजाम्यहम् ॥”
टीका—- रजस्तमः सत्त्व गुणैरनुबध्यन्ते इति तथा ता आशिष ऐश्वर्य्यादि शत्रु मारणादि धर्मादि रूपा विसृज्य परं पुरुषम् ईश्वरं ज्ञाप्तिमात्रं ज्ञानघनम् । कुतः निरञ्जनम् । तत् कुतः – निर्गुणम्, तदपि कुतः ? अद्वयम् । अतएव अक्षरं त्वां शरणं व्रजामीति ॥
मैं सब प्रकार कामना को परित्याग करके निरञ्जन निर्गुण परम पुरुष आप की शरण ग्रहण कर रहा हूँ। इस से सुस्पष्ट बोध होता है कि मुचुकुन्द महाराज ने मुक्ति कामना नहीं की है। यहाँ ज्ञातव्य यह है कि—जिन के चरणार विन्द ही मुख्य सेव्य है, इस रूप में निज गुहा में आविर्भूत पुरुषोत्तम सच्चिदानन्द घन स्वरूप है । ऐसा न होने से मुक्ति पय्यन्त कामना को परित्याग करके उनके श्रीचरणार विन्द की सेवा प्रार्थना क्यों करेंगे ?
श्रीमुचुकुन्द— श्रीभगवान् को कहे थे । २८२॥
४८८ २८३
पाद सेवा रूप भक्तचङ्ग के मध्य में श्रीमूत्ति दर्शन, श्रीमति स्पर्शन, श्रीमूर्ति की परिक्रमा, श्री मूर्ति की अनुव्रज्या (पश्चात् पश्चात् गमन) भगवन्मन्दिर गमन, गङ्गा, पुरुषोत्तम क्षेत्र, द्वारका, मथुरा प्रभृति श्रीकृष्ण सम्बन्धान्वित जो सब तीर्थ हैं उन में स्नान, एवं गमन प्रभृति भक्तयङ्ग अन्तर्भुक्त है।
[[५६४]] तन्मन्दिरादि-निवासस्तु शरणापत्तावन्तर्भवति । गङ्गादीनां तत्स्थ प्राणिवृद नाञ्च परम- भागवतत्वमेवेति, पक्षे तु तत्सेवादिकं महत् सेवादावेव पथ्यंवस्यति । ततो गङ्गादिष्वपि भक्तिनिदानत्वं भवेत् । अतएव ( भा० १ः२।१६ ) —
“शुश्रूषोः श्रद्दधानप्य वासुदेव-कथारुचिः ।
स्यान्महत्सेवया विप्राः पुण्यतीर्थनिषेवणात् ॥” ८६० ॥
इत्यत्र पुण्यतीर्थ - शब्दोक्तस्य गङ्गादेः पृथक्कारणत्वं व्याख्येयम् । यथा तृतीये ( भा० ३।२८।२२) “यत्पादनिःसृत सरित्प्रवरोदकेन, तीर्थेन मूर्ध्यधिकृतेन शिवः शिवोऽभूत्” इति । शिवत्वं नाम ह्यत्र परमसुखप्राप्तिरिति टीकाकृम्मतम् । तादृशसुखत्वञ्च भक्तावेव पर्यवसितम्, - तत ऊर्ध्वं सुखान्तराभावात् । ब्राह्म पुरुषोत्तममुद्दिश्य -
कारण, यह सब भक्तयङ्ग पाद सेवा के हो प्राय परिकर हैं । जब तक जीवित रहना है, तब तक श्रीभगवन् मन्दिर में हो निवास करे। यह श्रीभगवन्मन्दिर में निवास रूप भक्तयङ्ग शरणापत्ति में अन्तर्भुक्त है, अतएव उस का उल्लेख पृथक् रूप से नहीं हुआ। श्रीगङ्गा, श्रीपुरुषोत्तम क्षेत्र प्रभृति श्रीभगवान् के तीर्थ समूह एवं उस उस स्थानों में जो सब प्राणी रहते हैं । वे भी परम भागवत हैं । इस पक्ष में उन सब की सेबा महत् सेवा में ही पर्य्यवसित है । कारण, वे सब परम भागवत हैं अतः गङ्गा प्रभृति में भक्ति लाभ का कारणत्व है अतएव भा० १।२०१६ में उक्त है।
“शुश्रूषोः श्रद्दधानस्य वासुदेव- कथारुचिः ।
स्यान्महत्सेवया विप्राः पुण्यतीथं निषेवणात् ॥ " ८६० ॥
व्यवहारिक कार्य सम्पादन हेतु पवित्र तीर्थ में गमन करने से दर्शन, स्पर्श, एवं सम्भाषण रूप साधु सङ्ग को सम्भावना होती है । उस साधु सङ्ग से साधु मुखरित कथा श्रवण करने की इच्छा का उद्गम होता । अनन्तर श्रीवासुदेव की कथामें रुचि होती है । उस से महत् की सेवा करने का सौभाग्योदय होता है। एवं उस महत् सेवा से उनकी कथा में विश्वास उत्पन्न होता है । उस श्लोक में लिखित “पुण्यतीर्थ निषेवणात् " अर्थात् पवित्र तीर्थ निषेवण से - पवित्र तीर्थं गङ्गा प्रभृति को सूचित किया गया है । अर्थात् साधु सङ्ग जिस प्रकार भक्ति लाभ का कारण है, उस प्रकार गङ्गा प्रभृति भगवत् सम्बन्धान्वित तीर्थ भी भगवद्
भक्ति लाभ के स्वतन्त्र कारण हैं । इस प्रकार व्याख्या करनी चाहिये । अर्थात् श्रीगङ्गा प्रभृति श्रीकृष्ण सम्बन्धीय तीर्थ समूह में साधु सङ्ग लाभ की सम्भावना रूप हेतुत्व विद्यमान है । तज्जन्य उन सब का भक्ति लाभ के प्रति पृथक् कारणत्व निर्देश किया गया है । भा० ३ २८१२२ में उक्त है
" यत् पादनिःसृत सरित्प्रवरोदन, तीर्थेन मूर्ध्यधिकृतेन शिवः शिवोऽभूत्
[[11]]
जिन के श्रीचरण से निःसृत नदी श्रेष्ठ परम पवित्र श्रीगङ्गा जल मस्तक में धारण करके श्रीशिव शिव हुये हैं। यहाँ शिव शब्द से टीकाकार श्रीधर स्वामि पाद के मत में परम सुख प्राप्ति रूप अर्थ बोध हो होता है । यह परम सुख प्राप्ति भी भक्ति में ही पर्य्यवसित हुआ है । कारण, भक्ति व्यतीत अधिक अपर कोई सुख नहीं है ।
श्रीगङ्गा प्रभृति तीर्थ जो परम भागवत एवं भगवद् भक्ति का उद्बोधक है, उस का उल्लेख, ब्रह्म पुराण में पुरुषोत्तम को लक्ष्य करके है ।
[[५६५]]
“अहो क्षेत्रस्य माहात्म्यं समन्ताद्दशयोजनम् । दिविष्ठा यत्र पश्यन्ति सर्व्वानेव चतुर्भुजान् ॥ ८६१॥ स्कान्दे-
“संवत्सरं वा षण्मासान्मासं मासार्द्ध मेव वा । द्वारकावासिनः सर्वे नरा नार्य्यश्चतुर्भुजाः ॥ ” ८६२ ॥ पाद्मपातालखण्डे-
“अहो मधुपुरी धन्या वैकुण्ठाच्च गरीयसी । दिनमेकं निवासेन हरौ भक्तिः प्रजायते ॥ " ८६३॥ आदिवाराहे तामुद्दिश्य - " जन्मभूमिः प्रिया मम” इति । एषु च स्वोपासनास्थानमधिकं सेव्यम् । श्रीकृष्णस्य पूर्णभगवत्त्वात् तत्स्थानन्तु सर्वेषामेव पूर्णपुरुषार्थदं भवेत् । अतएवादिवाराहे-
“मथुराश्च परित्यज्य योऽन्यत्र कुरुते रतिम् । मूढ़ो भ्रमति संसारे मोहितो मम मायया ॥ " ८६४॥ इति । तदेवं तुलसोसेवा च सत्सेवायामन्तर्भाव्या, - परमभगवत्प्रियत्व तस्याः, यथा अगस्त्य- संहितायां गारुड़-संहितायाञ्च –
“अहो क्षेत्रस्य माहात्म्यं समन्त द्दशयोजनम् ।
दिविष्ठा यत्र पश्यन्ति सर्व्वानेव चतुर्भुजान् ।” ८६१ ॥
अहो ! श्रीक्षेत्र का कैसा अपूर्व माहात्म्य है ? चतुद्दिक में दश योजन पर्य्यन्त क्षेत्र वासी प्राणीवृन्द को देवगण, चतुर्बाहु रूप में दर्शन करते हैं । स्कन्द पुराण में भी उक्त है -
“संवत्सरं वा षण्मासान्मासं मासार्द्धमेव वा ।
द्वारकावासिनः सर्वे नरा नार्य्यश्वतुर्भुजाः । ८६२॥
श्रीद्वारका वासो को लक्ष्य करके कहा गया है - एक वत्सर हो, व छपास हों, वा एक मास हो, अथवा मासार्द्ध काल ही हो, जो द्वारका में वास करते हैं, वे सब नर नारीगण चतुर्भुज होते हैं ।
पद्म पुराण के पाताल खण्ड में मथुरामण्डल के सम्बन्ध में लिखित है-
“अहो मधुपुरी धन्या वैकुण्ठाच्च गरीयसी ।
दिनमेकं निवासेन हरौ भक्तिः प्रजायते ॥ " ८६३ ॥
g
अहो ! कंसा अद्भुत है ? वैकुण्ठ से भी मथुरा मण्डल धन्य वादा है। कारण, इस मथुरा मण्डल पें मात्र एकदिन वास करने से ही श्रीभगवत् चरणों में भक्ति का उदय होता है । आदि वाराह में मथुरा को उद्देश्य करके कहा गय है “जन्मभूमिप्रियामम” मेरो जन्म भूमि मथुरा अतिशय प्रिय है। यह सब पवित्र तीर्थ के मध्य में निज उपासना स्थल अधिक सेव्य है । अर्थात् वैष्णव के पक्ष में विष्णु क्षेत्र, शैव के पक्ष में शिव क्षेत्र, एवं शक्ति के पक्ष में शक्ति क्षेत्र, श्रेष्ठ है । श्रीकृष्ण ही पूर्ण भगवान् होने के कारण, उनका स्थान अर्थात् मथुरा मण्डल, सफल साधक के पक्ष में ही पूर्ण पुरुषार्थ प्रद है । अतएव आदि वाराह पुराण
लिखित है -
“मथुराञ्च परित्यज्य योऽन्यत्र कुरुते रतिम् ।
मूढ़ो भ्रमति संसारे मोहितो मम मायया ॥” ८६४॥
जो मथुरा को परित्याग करके अन्य स्थान बास हेतु आग्रह युक्त होता है, वह यथार्थ पारमार्थिक ज्ञान विमूढ़ है, एवं मेरी माया द्वारा विभोहित होकर संसार में भ्रमण करता रहता है ।
अतएव पूर्व वर्णित श्रीतुलसी सेवा भी सत् सेवा में अर्थात् साधु सेवा में अन्तर्भुक्त है । कारण, तुलसी स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण की परम प्रिया हैं। अगस्त्य संहिता एवं गरुड़ संहिता में उक्त है-
५६६१]
श्रीभक्तिसन्दर्भ
“विष्णोस्त्रैलोक्यनाथस्य रामस्य जनका मजा । प्रिया तथैव तुलभीर र्वलोकैब पावनी ॥ " ८६५॥
स्कान्दे-
“रति वध्नाति नान्यत्र तुलसीवान्नं विना । देवदेवो जगत्स्वामी कलिकाले विशेषतः ॥ ८६६ ॥ निरीक्षिता नरैर्यैस्तु तुलसीवनवाटिका । गेपिता यैस्तु विधिना संप्राप्त परमं पदम् ॥८६७॥ स्कान्द एव तुलसीस्तवे- “तुलसीनाममात्रेण प्रीणात्य सुरबर्षहा” इति । तदेवं पदसेवा व्याख्याता, प्रसङ्गसङ्गत्या गङ्गादि-सेवा च ।
अथार्चनम्, तच्चागमोक्तावाहनादिक्रमकम् तन्मार्गे द्धा चेदाश्रितमन्त्रगुरस्तं विशेषतः पृच्छेत्, तथोदाहृतम् (भा० ११।३।४८) लब्धानुग्रह आचार्य्यात्शेन सदर्शितागमः” इत्यादिना । यद्यपि
पञ्चरात्रादिवदर्चनमार्गस्यावश्यकत्वं नास्ति, तद्विनाषि
श्रीभागवतमते
DI
“विष्णोस्त्रैलोक्यनाथस्य रामस्य जनकात्मजा । प्रिया तथैव तुलसी सर्वलोकैकपावनी ॥ ८६५॥
त्रिलोक नाथ विष्णु श्रीराम चन्द्र की जनकात्मजा जिस प्रकार प्रिया हैं, समस्त लोकों को पवित्र कारिणी तुलसी उस प्रकार प्रिया हैं । स्कन्द पुराण में वर्णित है-
“ति बध्नाति नान्यत्र तुलसीकाननं विना ।
देवदेवो जगत् स्वामी कलिकाले विशेषतः ॥ ८६६॥
निरीक्षिता नरैर्यैस्तु तुलसीवनवाटिका ।
रोपिता यैस्तु विधिना संप्राप्तं परमं पदम् ॥८६७॥
।
देवाराध्य जगत् स्वामी तुलसी कानन को छोड़कर अन्यत्र प्रीति विधान नहीं करते हैं । किन्तु कलिकाल में तुलसी कानन के प्रति श्रीविष्णु की विशेष प्रीति है । जो सब मानव तुलसीवन वाटिका का दर्शन करते हैं, एवं जो विधि पूर्वक तुलसी रोपण करते हैं, वे परम पद स्वरूप वैकुण्ठारोहण करते हैं ! स्कन्द पुराण के तुलसी स्तव में लिखित है-“तुलसी नाम मात्रेण प्रीणात्य सुरउपहा”
असुरदर्प दलन कारी श्रीहरि तुलसी नाम मात्र से ही परम सन्तुष्ट होते हैं। पूर्व वमित रीति से पाद सेवा का वर्णन हुआ, प्रसङ्ग क्रम से गङ्गादि सेवा का वर्णन भी हुआ । सम्प्रति अच्चनाङ भक्ति का वर्णन करते हैं। आगमोक्त नियमानुसार आव हनादि पूर्वाङ्ग निर्वाह पूर्वक उपचार समूह का श्रीभगवान् में अर्पण करने का नाम ही अच्चन है। अच्चनाङ्ग में यदि श्रद्धा होतो मन्त्र गुरु के श्रीचरणाश्रय पूर्वक उनके निकट से विशेष रूप से जान लेना आवश्यक है । भा० ११।३।४८ में उस विषय में वर्णित है-
“लब्धानुग्रह आचार्य्यात् तेन सन्दशितागमः
"
आविर्होत योगोन्द्र, निमिमहाराज को कहे थे । आचार्थ्य-श्रीदीक्षा गुरु के निकट से मन्त्रदीक्षा ग्रहण करके उन के द्वारा प्रदर्शित शास्त्र विधि के अनुसार निजेष्ट देवता की पूजा करे ॥” यद्यपि श्रीभागवत मल में पञ्चरात्रादि वत् अच्चन मार्ग की अवश्य कर्त्तव्यता नहीं है, कारण, अर्चनाङ्ग भक्ति साधन के विनह भी शरणागति प्रभृति भक्ति के किसी एक अङ्ग अनुष्ठान से ही पुरुषार्थ स्वरूप श्रीभगवान् में प्रेम लाभ कर सकते हैं, तथापि श्रीनारद प्रभृति पूर्व महाजन वृन्द के कथानु सरण कारी साधक वृन्द के पक्ष में दीक्षा विधान के द्वारा श्रीगुरु चरण सम्पादित श्रीभगवान् के सहित दास्यादि किसी एक सम्ब ध विशेष स्थापन की इच्छा हेतु दीक्षा ग्रहण करके किसी एक सम्बन्ध स्थापन की इच्छा हो तो, दीक्षा ग्रहण करने के
[[५६७]]
शरणापत्त्यादीनामेकतरेणापि पुरुषार्थ सिद्धेरभिहितत्वात्, तथापि श्रीनारदादिवमनुसरद्भिः श्रीभगवता सह सम्बन्धविशेषं दीक्षाविधानेन श्रीगुरुचरणसम्पादितं चिकीर्षद्भिः कृतायां दीक्षायामर्चनमवश्यं क्रियेतैव, -
- दिव्यं ज्ञानं यतो दद्यात् कुर्यात् परस्य संक्षयम् । तस्माद्दीक्षेति सा प्रोक्ता देशिकैस्टर कोविदैः । ८६८। अतो गुरु
ं प्रणम्यैव सर्वग्वं विनिवेद्य च । गृह्णीयाद् वैष्णवं मन्त्रं दीक्षापूर्वं विधानतः । " ८६६ ॥
। उन
इत्यागमात् । दिव्यं ज्ञानं ह्यत्र श्रीमति मन्त्रे भगवत्स्वरूपज्ञानम्, तेन भगवता सम्बन्ध विशेषज्ञानञ्च यथा पाद्मोत्तरखण्डादावष्टाक्षरादिक मधिकृत्य विवृतमस्ति । ये ते सम्पत्तिमन्तो बाद ही अर्चन करना अवश्य कर्त्तव्य है । तानुपय्र्थ्य यह है कि- श्रीमद् भागवत के मत में श्रीमद् भागवत श्रवण, कीत्तन, पाद सेवा प्रभृति भक्तिचङ्गा आचरण की अवश्य कर्त्तव्यता निर्दिष्ट है, उस प्रकार ही अर्चनाङ्ग भक्ति को अवश्य कर्त्तव्यता निर्दिष्ट है, किन्तु उक्त श्रवणादि भक्तयङ्ग का आचरण न करने से जिस प्रकार प्रत्यवाय होता है, उस प्रकार अच्चनाङ्ग भक्तचङ्ग का अनुष्ठान न करने से प्रत्यवाय होगा । इस प्रकार कथित नहीं है। कारण, अर्चनाङ्ग भक्ति के बिना भी श्रवण कीर्तनादि किसी एक अङ्ग
के साधन द्वारा प्रेम लाभ हो सकता है। इस प्रकार भूयोभूयः उल्लेख है । तथापि पूर्व पूर्व महाजन श्रीनारद प्रभृति जिस प्रकार श्रीगुरुचरण के समीप से दीक्षा ग्रहण पूर्वक निजेष्ट देवकी अर्चना भी किये सब महापुरुष वृन्द के आचरण का अनुसरण जो लोक करते हैं, उनके पक्ष में श्रीगुरु चरणाश्रय ग्रहण करके भगवन्मन्त्र में दीक्षा ग्रहण करना अवश्य कर्त्तव्य है । कारण, दीक्षा ग्रहण व्यतीत श्रीभगवान् के सहित दास्यादि विशेष सम्बन्ध का उद्बोधन नहीं होता है । अथ च उक्त सम्बन्ध का स्फुरण सम्पादन श्रीगुरु चरण हो करते हैं । श्रीगुरु चरणाश्रन पूर्वक दीक्षा ग्रहण न करके शरणागति प्रभृति भक्तयङ्ग साधन के द्वारारा भगवान् मेरा आराध्य हैं, मैं उनका आराधक हूँ - इस प्रकार सामान्य सम्बन्ध का उद्बोधन
हूँ-इस होने पर भी दास्यादि विशेष सम्बन्ध का उद्बोधन नहीं होता है, मानव का जन्म दो प्रकार से सम्पन्न होता है, एक व्यवहारिक, अपर पारमार्थिक विन्दु से जो जन्म होता है, वह व्यवहारिक जन्म है, एवं नाद अर्थात् भगवन्मन्त्र से जो जन्म होता है, वह पारमार्थिक है, पिता, पितामह क्रम से कश्यप, शाण्डिल्य, भरद्वाज प्रभृति के सहित जिस प्रकार सम्बन्ध होता है. एवं तज्जन्य एक आवेश भी होता है, उस प्रकार गुरु परम गुरु क्रम से श्रीभगवान् के सहित नित्य सम्बन्ध विशेष का उद्बोधक दीक्षा ग्रहण के द्वारा ही होता है, जो श्रीभगवान् के सहित दाम्यादि विशेष सम्बन्ध स्थापन करने के इच्छक हैं, उन को दीक्षा ग्रहण करना अवश्य चाहिये । एवं दीक्षा ग्रहण करना जिस प्रकार अवश्य कर्त्तव्य है, उसी प्रकार दीक्षा ग्रहण
के पश्चात् श्रीभगवदर्चन करना भी अवश्य कर्त्तव्य है । आगम शास्त्र में लिखित है-
“दिव्यं ज्ञानं यतो यद्यात् कुर्यात् पापस्य संक्षधम् ।
तस्माद्दक्षेति सा प्रोक्ता देशिकैस्तत्वकोविदैः ॥८६८ ॥
अतो गुरु प्रगम्यैव सर्वस्वं विनिवेद्य च ।
गृह्णीयाद् वैष्णवं मन्त्रं दीक्षापूर्वं विधानतः ॥ ८६६॥
जिस से दिव्य ज्ञान लाभ होता है, एवं निखिल पापक्षय सम्यक रूप से होते हैं, तज्ञ पण्डितण उस को दीक्षा कहते हैं । अतएव श्रीगुरुदेव को प्रणाम करके एवं श्रीगुरुदेव को सर्वस्व निवेदन करके यथा विधि वैष्णवमन्त्र ग्रहण करे । यहाँ दिव्य ज्ञान शब्द से मन्त्र में भगवत् स्वरूप ज्ञान, एवं मन्त्र देवता श्रीभगवान् के सहित सम्बन्ध विशेष ज्ञान रूप अर्थ को जानना होगा । पद्म पुराण के उत्तर खण्ड प्रभृति
[[५६८]]
गृहस्थास्तेषान्त्वच्चनमागं एव, यथोक्तं श्रीवसुदेवं प्रति मुनिभिः मा० १०२८५।३७)
“अयं स्वस्त्ययनः पन्था द्विजातेगृहमेधिनः ।
॥”
यच्छ्रद्धयाप्त वित्तेन शुक्लेने ज्येत पुरुषः ॥ " ८७० ॥ इति ।
श्री भक्ति सन्दर्भः
तदकृत्वा हि निष्किञ्चनवत् केवलस्मरणादि-नित्वे वित्तशाच प्रतिपत्तिः स्यात् । परद्वार तत्सम्पादनं व्यवहारनिष्ठत्वस्याल सत्वस्य वा प्रतिपादकम्, ततोऽश्रद्धामय्त्व द्वीनमेव तत् । ततश्च (मा० १३३३८) “यो मायया सन्ततयानुवृत्त्या” इत्याद्य पदेशाद्वाश्येत् । किञ्च, गृहस्थानां परिचर्थ्यामार्गे द्रव्य साधयतया चर्च्चनमार्गादिविशेषेण प्राप्तेऽप्यर्चनमार्गश्यैव प्राधान्यमत्यन्त- विधिसापेक्षत्वात्तेषाम् । तथा गार्हस्थ्यधर्मस्य देवतायागस्य शाखा - पल्लवादि सेकस्था नीयस्य मूलसेकरूपं तदचर्च्चनमित्यपि तदकरणे महान् दोषः, अतः स्कान्दे श्रीमह्लद-वाक्यम्-
में अष्टाक्षर मन्त्र विषय में जो वर्णित है, उस में भी दिव्य ज्ञान शब्द से पूर्वोक्त अर्थ ही प्रकाशित हुआ है । विशेषतः सम्पत्तिमान् गृहस्थ के पक्ष में अच्छंन मार्ग ही मुख्य है । भा० १० ८४।३७ में श्रीवसुदेव के प्रति मुनि वृन्द ने कहा है-
“अयं स्वस्त्ययनः पन्था द्विजातेगृहमेधिनः ।
यच्छ्रद्धयाप्त वित्तेन शुक्लेनेज्येत पूरुषः ॥ " यच्छ्रद्धयाप्तवित्तेन