४८३ २८१
तथा (भा० १०/५११५५)-
(२८१) " न कामयेऽन्यं तव पादसेवना, दकिञ्चन प्रार्थ्यतमाद्वरं विभो ।
आराध्य कस्त्वां ह्यपवर्गदं हरे, वृणीत आर्थो वरमात्मबन्धनम् ।“८५६।
चरण सेवन करना भी कर्त्तव्य है । कतिपय व्यक्ति स्मरण सिद्धि के निमित्त ही सेवा करते हैं । अतएव विष्णु रहस्य में परमेश्वर का कथन यह है-
"
" न मे ध्यानरताः सम्यग् योगिनः परितुष्टये ।
तथा भवन्ति देवर्षे क्रिया योगरता यथा ।
क्रियाक्रमेण योगोऽपि ध्यानिनः सम्प्रवर्त्तते ॥ ८५७॥
हे देवर्षे ! ध्यानरत योगिगण - मुझ को उस प्रकार सन्तुष्ट करने में सक्षम नहीं हैं, जिस प्रकार प्रेम समाधि
युक्त भक्ति क्रिया से मैं जिस प्रकार सन्तुष्ट होता हूँ । यहाँ ‘योग’ शब्द का अथ है- समाधि । क्रियारूप भक्ति का अनुष्ठान करते करते ध्यान कारी का योग होता है, अर्थात् समाधि होती है । ‘पाद सेवा” में प्रयुक्त पाद शब्द द्वारा भक्ति निद्दिष्ट हुई है । अर्थात् केवल चरण सेवा ही करनी होगी श्रीमुख प्रभृति अङ्ग समूह की सेवा नहीं - इस प्रकार अर्थ नहीं है । सर्वाङ्ग को परिचर्या हि विहित है । यहाँ “आदर’ अर्थ में पाद शब्द का प्रयोग हुआ है । अर्थात् अतिशय आदर एवं मर्यादा के सहित श्रीचरण की सेवा करनी चाहिये । काल, देशोचित परिचर्य्या को ही सेवा कहते हैं - सेवा का ही अपर नाम– परिचर्च्छा है । उस सेवा का वर्णन भा० ४।२१।३१ में है-
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(२८०) “यत्पादसेवाभिरुचिस्तपस्विना, -मशेष-जन्मोपचितं मलं धियः
सद्यः क्षिणोत्यन्वहमेधती सनी, यथा पदाङ्गुष्ठु विनिःसृता सरित् ॥” ८५८॥
पृथु महाराज — श्रीविष्णु को कहे थे - हे नाथ ! आप के चरणारविन्द की सेवा करने का अभिलाष मात्र होने से हो अर्थात् सेवा में रुचि का उदय होने से ही संसार तापसंतप्त मानव वृन्द के अनेक जन्म द्वारा सश्चित चित्त मालिन्य - अ त सत्वर विनष्ट हो जाता है, जितनी परिमाण में भगवत् चरण सेवा करने की रुचि होती है, उतनी परिमाण में संसार वासना विनष्ट होती है । यही आप के चरणारविन्द की अतुलनीय महिमा है । दृष्टान्त के द्वारा उस को प्रकाश करते हैं- जिस प्रकार आप के चरणाङ्गुष्ठ नि सृता सरित् श्रीगङ्गा त्रिभुवन को पवित्र करती है ।
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४८४ २८१
भा० १०।५११५५ में भी उस प्रकार वर्णित है-
पृयु-श्रीविष्णु को कहे थे ॥ २८०॥
(२८१) " न कामयेऽन्यं तव पादसेवना, दकिञ्चन प्रार्थ्यतमाद्वरं विभो ।
से
श्रीभक्तिस दर्भः
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अकिञ्चना मोक्षपर्यन्त कामनारहिताः । तत्र हेतुः - त्वामाराध्य कस्त्वामपवर्गदं सन्तं वृणीत, अपवर्गदतया विर्भवन्तं समाश्रयेतेत्यर्थः । वरमित्यव्ययमीषत् प्रिये, वरमात्मनो बन्धनमेव वृणीत ॥