४८० २८०
अथ रुचिः शक्तिश्च चेत्तदपरित्यागेन पादसेवा च कर्त्तव्या । सेवास्मरणसिद्धयर्थंश्च सा कैश्चित् क्रियते । तथा च विष्णुरहस्ये परमेश्वर- वाक्यम्-
" न मे ध्यानरताः सम्यग् योगिनः परितुष्टये । तथा भवन्ति देवर्षे क्रियायोगरता यथा ।
क्रियाक्रमेण योगोऽपि ध्यानिनः संप्रवर्त्तते ॥ " ८५७॥ इति ।
शङ्कर मार्कण्डेय के समीप में उपस्थित होकर बुलाने लगे, किन्तु मार्कण्डेय ने नेत्रों को नहीं खोला, एवं पुकार भी नहीं सुना। उस समय सपत्नी रुद्र का आगमन को मार्कण्डेय जानने में सक्षम नहीं थे । यद्यपि श्रीरुद्र एव रुद्र पत्नी श्रीभगवान् की अंशशक्ति हैं, अतः जगदात्मा एवं नियामक है । तथापि उनका आगमन अवगत न होने का कारण “रुद्ध धी वृत्तिः” है, अर्थात् मार्कण्डेय श्रीभगवान् में अविष्ट चित्त होने के कारण अन्य अनुसन्धान रहित थे । यहाँपर असम्प्रज्ञात नामक ब्रह्म समाधि से इस समाधि का पार्थक्य जानना होगा । कारण इस श्लोक के पूर्व श्लोक में १२।१०।६ में उक्त है - “भक्त परां भगवति लब्धवान् पुरुषेऽव्यये ।” अर्थात् मार्कण्डेय, अव्यय पुरुष श्रीभगवान् में पराभक्ति प्राप्त किये थे । अतएव यहाँपर जानता होगा । कि- श्रीमात् मार्कण्डेय श्रीभगवान् में प्रेमसमाधि प्राप्त किये थे
प्रवक्ता श्रीसूत हैं- २७८ ॥
४८१ २७६
किसी किसी अधिकारी व्यक्ति में लीला’द युक्त श्रीभगवान् में अन्य अफूर्ति लक्षण अर्थात् श्रीभगवान् एवं उनकी लीला भिन्न अपर कुछ स्फूर्ति रहित समाधि होती है । भा० १।५।१३ में लिखित है -
(२७९) “उरुक्रमस्याखिल बन्धमुक्तये, समाधिनानुस्मर तद्विचेष्टितम् "
देवर्षि नारद वेद व्यास को कहे थे - हे मुनिवर ! प्रेम समाधि के द्वारा अखिल बन्ध मुक्ति हेतु श्रीभगवान् की विविध लीला का नियत स्मरण करो । दास सखा प्रभृति भक्त वृन्द की समाधि पूर्व वर्णित लीलायुक्त श्रीभगवान् में होती है । शान्त भक्त वृन्द की लीला शून्य भगवान् में जो समाधि होती है, उस का वर्णन १२।१२।६६ में इस प्रकार है-
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“स्वसुख निभृत चेतास्तद् व्युदस्तान्य भावोऽप्यजित रुचिर लीलाकृष्टसारः श्रीशुक - आत्माराम थे । आत्मारामता के कारण पूर्ण काम भी थे, तथापि श्रीकृष्ण की मनोहर लीला कथा से आकृष्ट होकर ब्रह्म समाधि में मन स्थिर करने के अक्षम होकर श्रीकृष्ण की मनोहर लीला वर्णन प्रधान श्रीमद् भागवत कथा का प्रचार समस्त मुनि समाज में किये थे ।
श्रीनारद - श्राव्यास को कहे थे ॥ २७६ ॥
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अनन्तर यदि रुचि एवं सामर्थ्य हो तो श्रीनाम कीर्त्तन एवं स्मरण परित्याग न करके ही
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-योगोऽत्र समाधिः, पादसेवायां पाद-शब्दो भवतेव निद्दिष्टः । ततः सेवायाः सादरत्वं विधीयते । सेवा च काल- देश दुचिता परिचर्या दपर्य्याया सा यथा ( भा० ४।२१।३१)
(
(२८० ) " यत् पादसेवाभिरुचिस्तपस्विनामशेष - जन्मोपचितं मलं धियः ।
सद्यः क्षिणोत्यत्वहमेधती सती, यथा पदाङ्गुष्ठविनिःसृता सरित् ॥ ८५८ ॥ तपस्विनां संसारततानां मलं तत्तद्वासनाम्। त्वत्पादस्यैवैष महिमेति दृष्टान्तेनाह- यथेति ॥ पृथुः श्रीविष्णुम् ॥