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अनन्तर पूर्ववत् क्रम सोपान रीति से अर्थात् नाम स्मरण के पश्चात् रूप स्मरण, इस के पश्चात् गुण स्मरण, इप प्रकार क्रम परिपाटी से सुख लभ्य श्रीहरि के गुण, परिकर, सेवा एवं लीला प्रभृति का स्मरण करना कर्तव्य है । यह स्मरण पञ्चविध हैं। यथा कथञ्चित् रूप से श्रीहरि के नाम रूपादि का अनुसन्धान करने का नाम स्मरण है । (१) समस्त विषयों से चित्त आकर्षण पूर्वक साधारण रूप से श्रीहरि के नामादि में चित्त धारण करने का नाम धारणा है । (२) विशेष रूप से नाम रूपादि चिन्ता का नाम ध्यान है । (३) अमृत ध रावत् अविच्छिन्न भाव से स्मरण का नाम ‘ध्रुवानुस्मृति है । (४) ध्यातृ ध्यान स्फूति शून्य होकर केवल मात्र ध्येय आकार में चित्त वृत्ति का अवस्थान का नाम समाधि है । (५) तन्मध्ये स्मरण का उदाहरण यह है-बृहन्नारदीय में उक्त है -

येन केनाप्युपायेन स्मृतो नारायणोऽव्ययः ।

अपि पातकयुक्तस्य प्रसन्नः स्यान्न संशयः ॥ " ८५३ ॥

जिस किसी उपाय से नारायण का स्मरण करने से निखिल पाप युक्त हृदय भी प्रसन्न होता है । इस में संशय नहीं है । भा० ११।१४।२७ में धारणा का वर्णन है-

“विषयान् ध्यायत श्चित्तं विषयेषु विषज्जते ।

मामनुस्मरतश्चित्त’ मध्येव प्रविलीयते ॥। ८५४ ॥

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टीका- किञ्च ज्ञानं नाम चित्तस्य मदाकारपरिणामः । स च मां भजतः स्वभावत एव भवति न च यत्नान्तरमपेक्षते - इति सदृष्टा तमाह - विषघानिति ।

विविध विषय ध्यान कारी मानव का चित्त विषय में जिस प्रकार निमग्न होता है, उस प्रकार जो व्यक्ति मेरा ध्यान करता है । उस का चित्त भी मुझ में निमज्जित हो जाता है । जल में निमग्न व्यक्ति जिस प्रकार चारों ओर जल को ही देखता है । उस प्रकार मुझ में निमग्न चित व्यक्ति भी सब और मुझ को ही देखता है ।

श्रीनरसिंह पुराण प्रभृति में ध्यान की महिमा वर्णित है-

“भगवच्चरणद्वन्द्व- ध्यानं निर्द्वन्द्वमीरितम् । पापिनोऽपि प्रसङ्गेन विहितं सुहितं परम् ॥८५५॥

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इति नारसिंहादौ । तत्र निर्द्वन्द्वं शीतोष्णादिमय- दुःखपरम्परातीत म्, ईरितं शास्त्रविहितम्, तच्च पापिनोऽपि प्रसङ्गेनापि परमुत्कृष्टं सुहितं विहितं तत्रैवेत्यर्थः । ध्रुवानुस्मृतिश्च ( मा० ३।२६।११) “मद्गुणश्रुतिमात्रेण” इत्यादी, (भा० ११/२/५३) “त्रिभुवन वि भव हेत वेऽप्य कुष्ठ- स्मृतिः” इत्यादौ च । एषैव श्रीरामानुजभगवत्पादः प्रथमसूत्रे दशितास्ति । समाधिम ह ( भा० १२।१२।६ ) -

(२७८) “तयोरागमनं साक्षादशियोर्जगदात्मनोः ।

न वेद रुद्धधोवृत्तिरात्मानं विश्वमेव च ॥” ८५६ ॥

तयोः - रुद्र-त पत्न्योः, भगवदंश तच्छक्तित्वात् जगदात्मनोस्तत् प्रवर्त्तकयोरपि । तत्र हेतु :-

भगवच्चरणारविन्द युगल ध्यान ही निर्द्वन्द्व है । अर्थात् शीत, ग्रीष्म, सुख, दुःख, क्षुधा पिपासा प्रभृति का अतीत है । भगवच्चरण युगल का ध्यान करने से क्षुधा, पिपासा, जग, मृत्यु, शीत, ग्रीष्म जनित किसी प्रकार उद्वेग उपस्थित नहीं होता है । पापी व्यक्ति भी यदि प्रसङ्ग क्रम से भगवच्चरणारविन्द का ध्यान करता है तो, उस का परमहित साधित होता है । निखिल शास्त्र की यही व्यवस्था है । घ्र व नुस्मृति का प्रसङ्ग भा० ३।२६ ११ में है

“मद्गुणश्रुतिमात्रेण मथि सर्व गुहाशये । मनोगतिरविच्छिन्ना यथा गङ्गाम्मसोऽम्बुधौ ।

Ty

श्रीकपिल देव निज जननी को कहे थे हे मातः ! निर्गुण भक्ति लक्षण को करता हूँ । मदीय प्रसङ्ग म श्रवण मात्र से ही गङ्गा जल की निर्वाधगति सिन्धु की और जिस प्रकार होती है, उस प्रकार मुझ अविच्छिन्ना अर्थात् लगविक्षेरादि द्वारा अप्रतिहता मनोवृत्तिका नाम ही निर्गुण भक्तियोग वा ध्रुवानुस्मृति किंवा निष्ठाभक्ति है । भा० ११।२३५३ त्रिभुवन विश्व हेतवे ऽप्य कुण्ठरमृतिः " श्लोक में भी ध्रुवानुस्मृति का उल्लेख है । उक्त श्लोक का सारार्थ यह है कि–लब निमेषमात्र भगवद् विस्मृति से त्रिभुवन विभव प्राप्त होने का अवसर होता है, इस प्रकार सुन कर भी जो संयत चित्त देव गण कर्त्तृक अन्वेषणीय चरण ध्यान से विचलित नहीं होता है, वही वैष्णव श्रेष्ठ है ।

श्रीरामानुज भगवद् पाद ने ब्रह्म सूत्र १ १ १ अथातो ब्रह्म जिज्ञासा सूत्र व्याख्या में प्रवानुस्मृति का उल्लेख किया है ।

सम्प्रति समाधिका वर्णन करते हैं-भा० १२1१०१६ में उक्त है-

(२७८) “तयोरागमनं साक्षादीशयोर्जगदात्मनोः ।

न वेद रुद्रधीवृत्तिरात्मानं विश्वमेव च । “८५६ ॥

क्रमसन्दर्भ - समाधिमाह तयोरिति । तयो रुद्रतत् पत्न्योः, भगवदंश तच्छत्तित्वाज्जगदात्मनोस्तत् प्रवर्त्तकयोरपि । तत्र हेतुः - रुद्धधीवृत्तिभंगदादिष्ट चित्तः । (भा० १०।१०।६) भक्ति पराम् इति पूर्वोक्तः । तस्मादसंप्रज्ञातनाम्नो ब्रह्मसमाधितोभिन्न एवासौ ॥

मार्कण्डेय ऋषि तपस्या रत थे, इस समय श्रीशङ्कर शङ्करी के सहित वृषारोहण पूर्वक वहाँ होकर जा रहे थे, शङ्करी मार्कण्डेय को देखकर शङ्कर को बोली थीं, इस बालक को देखकर हृदय स्नेहाद्री हो रहा है, इस के पास चलें इस को सिद्धि देनी होगी। उत्तर में श्रीशङ्कर कहे थे - यह मार्कण्डेय–

आग्रह से श्रीभगवान् में समाधिस्थ है, निकट में जाने से भी उस के नयनोन्मीलन नहीं होगा। देवी के

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रुद्धधी वृत्तिर्भगवदा विष्ट चित्तः, -(भा० १२११०१६) “भक्ति परां भगवति लब्धवान्” इति पूर्वोक्तेः । तस्मादसंप्रज्ञात- नाम्नो ब्रह्मसमाधितो भिन्न एवासौ ॥ श्रीसूतः ॥