२७६

४७४ २७६

तत्र नाम-स्मरणम्-

“हरेर्ना म परं जप्यं ध्येयं गेयं निरन्तरम् । कीर्त्तनीयञ्च बहुधा निर्वृ तीर्बहुधच्छता ॥” ८४६ ॥

इति जावा लिसहिताद्यनुसारेण ज्ञेयम् । नाम स्मरणःतु शुद्धान्तः करणतामपेक्षते । तत् कोर्तनाच्चावरमिति मूले तु नोदाहरण स्पष्टता । रूप-स्मरण माह, (भा० १२ १२ ५५) – (२७६) “अविस्मृतिः कृष्णपदारविन्दयोः, क्षिणोत्यभद्राणि च शं तनोति ।

सत्त्वस्य शुद्धि परमात्मभक्त, ज्ञानश्च विज्ञान- विरागयुक्तम् ॥ " ८५० ॥

(२७५) “एतावान् योग आदिष्टो मच्छिष्यैः सनकादिभिः ।

सर्वतो मन आकृष्य मय्यद्धावेश्यते यथा ॥ “८४८

टीका - विषषैः सुप्रथिनस्य मनसस्तद्वियोगेन ईश्वरनिष्ठत्वमसम्भावितं मन्यमानं प्रति तन्निरूपणाय इतिहासमुपक्षिपति एतावानिति । यथा यथावन्मय्यावेश्यते एतावानित्यर्थः ॥

भगवान् श्रीकृष्ण उद्धव को कहे थे । हे उद्धव ! मेरे शिष्य सनकादि ऋषिगण इस प्रकार योग का प्रवर्तन किये हैं । समस्त विषयों से मनको आकर्षण करके जिस से सब प्रकार से मुझ में ही मन का आवेश हो । स्कन्द पुराण में ब्रह्मोक्ति है-

“आलोडय सर्वशास्त्राणि विचार्य्यं च पुनः पुनः ।

इदमेव सुनिष्पन्न ध्येयो नारायणः सदा ॥”

श्रीब्रह्मा, श्रीनारद को कहे थे - हे वत्स ! समस्त शास्त्र को आलोड़न करके एवं पुनः पुनः विचार करके यही सनिष्पन्न हुआ है कि-भगवान् नारायण ही एक मात्र ध्येय हैं । श्रीभगवान् कहे थे - ॥ २७५ ॥

४७५ २७६

नाम स्मरण का वर्णन करते हैं-

‘हरेर्नाम परं जप्यं ध्येयं गेयं निरन्तरम् ।

कीत्तनीयञ्च बहुधा निर्वृ ती बहुधच्छता ॥ ८४ ॥

जो

बहु प्रहार से आनन्द लाभेच्छ है, उस को एकमात्र श्रीहरि नाम का जप, ध्यान, गान एवं कीर्तन करना चाहिये । तात्पर्य यह है कि श्रीहरि नाम जप करने से जो आनन्द लाभ होता है, उस से अन्य प्रकार आस्व दन ध्यान करने से होता है । एवं गान से अन्य प्रकार आस्वादन होता है, और कीर्त्तन करने से अन्य प्रकार ही आस्व दन होता है । एक ही श्रीहरि नाम से विभिन्न प्रकार आस्वादन होते हैं । नाम, रूप, गुण, लोला परिकर प्रभृति के कीर्तन स्मरणादि से भी पृथक् पृथक् आस्वादन होते हैं। जाबालसंहिता के अनुमार नाम स्मरण विधि को जानना कर्त्तव्य है । किन्तु नाम स्मरण में चित्त शुद्धि की अपेक्षा है । अर्थात् चित्त शुद्ध न होने पे नाम स्मरण की योग्यता नहीं होती है । अतएव कीर्तनाङ्ग से हमरणाङ्ग न्यून शक्ति सम्पन्न है, कारण, जिस को दूसरी की अपेक्षा रहती है, वह दुर्बल है । स्मरण, चित्त शुद्धि की अपेक्षा करता है, अतः वह दुर्बल है, कीर्तन में चित्त शुद्धि को अपेक्षा नहीं है, अतः वह सरल है। मूल में किन्तु इस विषयका स्पष्टी करण नहीं है ।

भीभक्तिसन्दर्भः

[[५५८]] परमात्मनि श्रीकृष्णे प्रेमलक्षणां भक्तिमिति मुख्यं फलमन्यानि त्वानुषङ्गिकाणि ॥ श्रीसूतः ।