४७२ २७५
तदेवं कीर्त्तनं व्याख्यातम् । तत्रास्मिन् कीर्त्तने निजदैन्य-निजाभीष्टविज्ञप्ति- स्तवपाठावप्यन्तर्भाव्यौ । तथा तत्र श्रीभागवतस्थित नामादिकीर्त्तनन्तु पूर्व वदन्यदीय-नामादि- कीर्त्तनादधिकं ज्ञयम्, कलौ तु प्रशस्तं तत् ( भा० १।३।४३) -
[[25]]
“कृष्णे स्वधामोपगते धर्मज्ञानादिभिः सह ।
कलौ नष्टदृशामेष पुराणाऽधुनोदितः ॥ ८४७ ॥ इति ।
अथ शरणापत्त्यादिभिः शुद्धान्त. करणश्चेत् (भा० २।१।११) - “एतन्निविद्यमानानामिच्छताम- कुतोभयम्” इत्याद्य क्तत्वान्नामकीत्तंनापरित्यागेन स्मरण कुर्य्यात्, तच्च मनसानुसन्धानम्, यदेव नामानि सम्बन्धित्वेन बहुविधं भवति । तत्र स्मरण- सामान्यम् (भा० ११।१३/१४) -
I
पूजा नहीं
होते हैं । पाषण्ड भाव ते विभिन्न चित्त कलियुग के मनुष्यगण जगत् प्रभु अच्युत ख्य भगवान्
को करेंगे । म्रियमाण एवं आतुर अवस्था में गिरते गिरते, स्खलन अवस्था में जिन का नाम ग्रहण करने से मानव निखिल कर्म बन्धन से मुक्त हो जाता है, कलियुग के मानवद्दृन्द उन श्रीहरि की पूजा नहीं करते हैं ।
[[16]]
श्रीशुक कहे थे ॥ २७४ ॥
४७३ २७५
उक्त रीति से कीर्तनाङ्ग भक्ति का वर्णन हुआ। इस कोर्ताङ्ग भक्ति में निज दैन्य मिश्रित ‘निजाभीष्ट विज्ञप्ति एवं स्तव पाठ भी अन्तर्भुक्त है । उस के मध्य में भी श्रीमद् भागवतोक्त श्रीभगवान् के नाम, रूप, गुण एवं लीला प्रभृति का कीर्त्तन अन्य पुराण में वर्णित नाम रूपादि से प्रशस्त है । इस प्रकार जानना होगा । किन्तु कलिकाल में श्रीमद् भागवत कीर्तन हो समस्त श्रवण कीर्तन से श्रेष्ठ है । कारण, यह श्रीमद् भागवत - श्रीकृष्ण के प्रतिनिधि रूप में कलिकलुष हत जीव गण के साध्य साधन तत्त्व निरूपण के निमित्त इस कलियुग में आविर्भूत हुए हैं। भा० १।३।४५ में उक्त
“कृष्णे स्वधामोपगते धर्मज्ञानादिभिः सह ।
कलौ नष्टदृशामेष पुराण कधुनोदितः । “८४७॥
श्रीसूत - शौनकादि ऋषि गण को कहे थे - श्रीकृष्ण, धर्म ज्ञान वैराग्य एवं ऐश्वर्य के सहित निज धाम में प्रविष्ट होने पर कलियुग में नष्ट दृष्टि मानव को साध्य साधन तत्त्व दर्शाने के निमित्त यह श्रीमद् भागवत शास्त्र सूय्यं रूप में उदित हुये हैं ।
अनन्तर शरणापत्ति प्रभृति के द्वारा अन्तः करण शुद्ध यदि होता है तो, भा० २।१।११ में वर्णित – “एतन्निविद्यमानानामिच्छतामकुतोभयम्” विषयी, मुमुक्षु, मुक्त महापुरुष वृन्द के पक्ष में एकमात्र अकुतोभय श्रीहरिनाम सङ्कीर्तन ही है । इस प्रमाण के अनुसार श्रीनाम सङ्कीर्तन को परित्याग न करके स्मरण करना कर्त्तव्य है, मनसा भगवद्विषयक अनुसन्धान का नाम स्मरण है । यह स्मरण - नाम, रूप, गुण,
लीला, परिकर भेद से पञ्चविध हैं । उक्त स्मरण भी साधक की मानस अवस्था के भेद से-स्मरण, धारणा, ध्यान, ध्रुवानुस्मृति एवं समाधि - पश्चविध हैं, यह स्मरणाङ्ग भक्ति-समष्टिगत रूप पञ्चविंशति प्रकार हैं। वह भक्ति सगुणा निर्गुणा भेद से द्विविध हैं, उस के मध्य में सगुणा भक्ति, तामसी, राजसो, सात्त्विकी भेद से त्रिविध हैं । एवं उत्तम, मध्यम, कनिष्ठ भेदसे उक्त भक्ति प्रत्येक त्रिविध हैं । अर्थात् उत्तमा तामसी, मध्यमा तामसी, कनिष्ठा तामसी - इस रीति से प्रत्येक तीन प्रकार होने से सगुणाभक्ति नव विध होती हैं । एवं निर्गुणा भक्ति- एक प्रकार है । इस प्रकार स्मरणाङ्ग भक्ति के बहु प्रकार भेद हैं । उस में से स्मरण सामान्य का वर्णन भा० ११।१३।१४ में है-
p
(२७५) “एतावान् योग आदिष्टो मच्छिष्येः सनकादिभिः । सर्वनो मन आकृष्य मय्यावेश्यते यथा ॥” ८४८ ॥
[[५५७]]
मा
यथा यथावत्, मय्यावेश्यत इत्येतावानित्यर्थः । तथा च स्कान्दे ब्रह्मोक्तौ “आलोड्य सर्वशास्त्राणि विचार्य च पुनः पुनः” इत्यादि ॥ श्रीभगवान् ॥