४६८ २७३
ततः कलिप्रजानां परमभगवन्निष्ठतां श्रुत्वा तदर्थं कलावेव केवलं निजजन्म प्रार्थयन्त इत्याह (भा० ११।५।३८)
(२७३) “कृतादिषु प्रजा राजन कला विच्छन्ति सम्भवम् ।
कलौ खलु भविष्यन्ति नारायणपरायणाः ॥ ८३७ ॥
तत्परायणत्वमत्र तदीयप्रेमातिशयवत्त्वम् । एतदेव ’ परमां शान्तिम्” इत्यनेन काय्र्यद्वारा
नहीं हैं। श्रीभगवान् उद्धव को कहे थे - “शमो मन्निष्ठता बुद्धे.” मुझ में निष्ठा प्राप्त बुद्धि का नाम ही शम है, अर्थात् शान्ति है । जिस शान्ति अर्थात् भगवसिष्ठा को ध्यानादि साधनों से प्राप्त करना सम्भव नहीं है । श्रीहरि कीर्तन के द्वारा ही उस को अनायास प्राप्त कर सकते हैं। एवं आनुषङ्गिक भाव से संसार क्षयभी होता है, यह सङ्कीत्तन, केवल कलियुग में ही प्रचारित होता है, अतः ध्याननिg सत्य युगीय प्रजागण, कलियुग के प्रज गण के समान भगवनिष्ठ को प्राप्त करने में सक्षम नहीं हैं। महाभागवत गण कलियुग में नित्य ही श्रीभगवन्नाम कीर्तन करते हैं। “महाभागवता नित्यं कलौ कुर्वन्ति कीर्त्तनम्” स्कन्द पुराण के कथनानुसार प्रतीत होता है कि-भगवच्चरणों में तादृशी परमोत्कृष्ट निष्ठा लाभ का कारण, श्रीनाम सङ्कीर्त्तन माहात्म्य को, दीन जन के प्रति परम कृपाशाली भगवान्, - ध्यान यज्ञ प्रभृति अति कठोर साधन शक्ति सम्पन्न स्त्यादि युग में प्रकाश नहीं किये हैं । तज्जन्य ध्यानादि करने की सामर्थ्यं विशिष्ट उस उस युग के प्रजागण, केवल मात्र जिह्वा एवं ओष्ठ स्पन्दन मात्र से जो साधन निष्पन्न होता है, उस उस श्रीहरि कीर्तन को श्रेष्ठ नहीं मानते हैं । तज्जन्य ही कीर्त्तन रूप से धन में इष्ट लाभ हेतु श्रद्धालु नहीं हो सकते हैं। वस्तुतः केवल ओष्ठ घर स्वन्दन मात्र साध्य कीर्तनाङ्ग भक्ति को बहु अभ्यास साध्य ध्यानादि अनुष्ठान समर्थ व्यक्ति गण महत्त्व प्रदान करने में असमर्थ हैं ॥ २७२ ॥
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अएव कलियुगोत्पन्न प्रजावृन्द को श्रीभगवन्निष्ठा को सुनकर उस प्रकार निष्ठा लाभ हेतु सत्य युग के प्रजावृन्द केवल कलियुग में जन्म प्रार्थना करते हैं । भा० ११ ५ ३८ में उक्त है-
(२७३) “कृतादिषु प्रजा राजन् कलाविच्छन्ति सम्भवम् ।
कलौ खलु भविष्यन्ति नारायणपरायणाः ॥ ८३॥
श्रीकर भाजन निमि महाराज को कहे थे - हे राजन् ! सत्यादि युग के प्रजावृन्द कलियुग में जन्म प्रार्थना करते हैं, कारण, कलियुग के प्रजागण - नारायण परायण होंगे। मूल श्लोक में ‘भविष्यति’ भविष्यत् काल की क्रिया प्रयुक्त हुई है । इस से बोध होता है कि-निमि महाराज के सहित नव योगीन्द्र का यह प्रसङ्ग त्रेता युग में हुआ था। कारण उक्त प्रसङ्ग में लिखित है- “सीतापति जयति लोकमलघ्न
श्री भक्ति सन्दर्भः ५५२ ] व्यञ्जितम् । (भा० ६ १४(५) “मुक्तानामपि सिद्धानां नारायणपरायणः । सुदुर्लभः प्रशान्तात्मा’ इत्यत्र यद्वत् । अत्र कलिसङ्गेन कीर्तनस्य गुणोत्कर्ष इति न वक्तव्यम्, भक्तिमात्रे कालदेश- नियमस्य निषिद्धत्वाद्विशेषतो नामोषलक्ष्य च विष्णुधर्मे क्षत्रबन्धूपाख्याने -
“न देशनियमस्तत्र न कालनियमस्तथा । नोच्छिष्टादौ निषेधश्च हरेर्नामानि लुब्धक ॥८३८॥ इति । स्कान्दे पाद्मवैशाख माहात्म्ये विष्णुधर्मे च–” चक्रायुधस्य नामानि सदा सर्वत्र कीर्त्तयेत्” इति, स्कान्द एव च -
“न देशकालावस्थात्मशुद्धयादिकमपेक्षते ॥ किन्तु स्वतन्त्रमेवैतन्नाम कामित - कामदम् ॥ ८३ । विष्णुधर्मे च -
“कलौ कृतयुगं तस्य कलिस्तस्य कृते युगे । यस्य चेतसि गोविन्दो हृदये यस्य नाच्युतः
॥ ८४० ॥
कीत्तिः” (भा० ११।४।२१ ) इस में ‘जयति’ क्रिया के द्वारा वर्तमान काल सूचित हुआ है । अतएव उस से उक्त प्रसङ्ग का समय निर्णय में त्रेतायुग हो आता है । मूल श्लोक में “नार यणपरायणाः " शब्द से श्रीनारायण विषयक प्रेमवान्” इस प्रकार अर्थ जानना होगा । कारण, श्रीनारायण में प्रेम होना ही परम शान्ति है। कार्य के द्वारा यह प्रकाशित हुआ है । अर्थात् भा० ११।५।३६ श्लोक में जो ‘परमाशान्ति’ की कथा कही गई है, वह नारायण निष्ठता का ही परिचायक है । श्रीमद् भागवत के ६ । १४१५ में नारायण परायण जन को परम शान्त कहा गया है।
“मुक्तानामपि सिद्धानां नारायण परायणः ।
सुदुर्लभः प्रशान्तात्मा कोटिब्वपि महामुने ॥
कोटि कोटि जीवन्मुक्त महापुरुष वृन्द के मध्य में एक व्यक्ति मुक्त होता है। कोटि कोटि सिद्ध महा पुरुषों के मध्य में प्रशान्तात्मा नारायण परायण भक्त सुदुर्लभ है । अतएव नारायण पर यण व्यक्ति जो प्रशान्त चित्त होता है, उक्त प्रमाण से यह सुस्थिर हुआ। कलियुग में ही श्रीहरिनाम सङ्कीर्तन गुणोत्कर्ष मण्डिन होता है, इस प्रकार धारण करनी नहीं चाहिये । कारण, भक्ति मात्र में काल देश का नियम नहीं
। विशेष कर ही नाम को उपलक्ष्य करके विष्णु धर्म के क्षत्रबन्धुपाख्यान में उक्त है ।
“न देशनियमस्तत्र न कालनियमस्तथा । मोच्छिष्टादौ निषेधश्च हरेर्नामनि लुब्धक
॥” ८३८॥
है लुब्धक ! व्याध ! श्रीहरिनाम ग्रहण में देश का नियम नहीं है, काल का नियम नहीं है । यहाँतक कि उच्छिष्ट प्रभृति अवस्था में भी नाम ग्रहण करने में निषेध नहीं है ।
स्कन्द पुराण के वैशाख माहात्म्य में एवं विष्णु धर्म में लिखित है-
“चक्रायुधस्य नामानि सदा सर्वत्र कीर्तयेत्
"
चक्रायुध श्रीहरि का नाम कीर्तन सर्वदेश एवं सर्व काल में करना कर्तव्य है । स्कन्द पुराण में लिखित है-
’ न देशकालावस्थात्मशुद्धधादिकमपेक्षते ।
किन्तु स्वतन्त्र मेवैतन्नाम काशित– कामदम् ॥ ८३६॥
श्रीहरि नाम ग्रहण में देश काल अथवा अवस्था वा चित्त शुद्ध की अपेक्षा नहीं है । श्रीहरि नाम परम स्वतन्त्र है, एवं कामित को अभीष्ट प्रदान कारी है। विष्णु धर्म में भी उक्त है-
“कलौ कृतयुगं तस्य कलिस्तस्य कृते युगे ।
[[५५३]]
न च कलावन्यसाधनासमर्थत्वादेव तेनाल्पेनापि महत् फलं भवति, न तु तस्य गरीयस्त्वेनेति
मन्तव्यम् । (वि० पु० ६८।५५) –
“यस्मिन् न्यस्तमतिनं याति नरकं स्वर्गेऽपि यच्चिन्तने । विघ्नो यत्र निवेशितात्ममनसां ब्राह्मोऽपि लोकोऽल्पकः मुक्तिचेतसि यः स्थितोऽमलधियां पुंसां ददात्यव्ययः । किं चित्रं यदयं प्रयाति विलयं तत्राच्युते कीर्त्तिते ॥ ८४१ ॥
इति समाधिपर्यन्तादपि स्मरणात् कैमुत्येन कीर्त्तनस्यैव गरीयस्त्वं श्रीविष्णुपुराणे दर्शितम् । अतएवोक्तम् (भा० २।१ ११)- एतन्निविद्यमानानाम्” इत्यादि, तथा च-
“अवच्छिन् स्मरणं विष्णोर्बह्वायासेन साध्यते । ओष्ठस्पन्दनमात्रेण कीर्त्तनन्तु ततो वरम् ॥” ८४२ ॥
यस्य चेतसि गोविन्दो हृदये यस्य नाच्युतः ॥ ८४० ॥
जिस के हृदय में श्रीगोविन्द विद्यमान हैं, उस के पक्ष में कलियुग ही सत्य युग है। एवं जिस के चित्त में श्री अच्युताख्य गोविन्द को स्मृति नहीं है। उसके पक्षमें सत्ययुग भी कलियुग है । इस प्रकार कथन समीचीन नहीं है कि - कलियुग में जीवों को अन्य साधन सामर्थ्य है ही नहीं, तज्जन्य अल्प साधन के द्वारा महाफल होता है, किन्तु श्रीहरि नाम साधन का किसी प्रकार गुरुत्व नहीं है । कारण, विष्णु पुराण के ६८।५५ में लिखित है ।
“यस्मिन् न्यस्तमतिर्न याति नरकं स्वर्गोऽपि यच्चिन्तने । विघ्नो यत्र निवेशितात्ममनसां ब्राह्मोऽपि लोकोऽल्पकः । मुक्ति चेतसि यः स्थितोऽमलधियां पुंसां वदात्यव्ययः । किं चित्रं यदद्यं प्रयाति विलयं तत्राच्युते कीर्त्तिते ॥ ८४१ ॥
।
श्रीकृष्ण को मन अर्पण करने से नरक में जाना नहीं पड़ता है। जिन की चिन्ता करने से स्वर्ग सुख भी विघ्न रूप से अनुभूत होता है । जिस में मनोनिवेश करने से सत्य लोक भी तुच्छ प्रतीत होता है । निर्मल चित्त मानव के हृदय में अवस्थित होकर जो अव्यय श्रीहरि मुक्ति प्रदान करते हैं, उन अच्युताख्य श्रीकृष्ण का कीर्त्तन करने से जो पाप विनष्ट होगा - इस में आश्चर्य होने का क्या है ? इस श्लोक में स्मरण की समाधि अवस्था में भी श्रीकृष्ण स्मरण का वर्णन हुआ है, अतः कैमुत्यिक न्याय से नाम कीर्तन का ही श्रेष्ठत्व दर्शित हुआ है। अतएव भा० २।१।११ में विहित है-
“एतन्निविद्यमानामिच्छतामकुतोभयम् ।
योगिनां नृप निर्णीतं हरेर्नामानुकीर्त्तनम् ॥
कह
इस श्लोक द्वारा श्रीशुक मुनिने विषयी मुक्त मुमुक्षु महापुरुष वृन्द के पक्ष में श्रीहरिनाम कीर्तन को हो अकुतोभय रूप से निर्देश किया है। वैष्णव चिन्तामणि नामक ग्रन्थ में लिखित है-
“अघच्छिन् स्मरणं विष्णोर्बह्वायासेन साध्यते ।
ओष्ठस्पन्दनमात्रेण कीर्तनन्तु ततो वरम् ॥” ८४२॥
अधारि श्रीविष्णु का स्मरण बहु आयास साध्य है, अर्थात् विविध विषयों से चित्त संहरण करके श्रीविष्णु में स्थापन करना पड़ता है । किन्तु ओष्ठ स्पन्दन मात्र साध्य श्रीनाम कीर्तन, स्मरण से भी श्रेष्ठ प्रभाव शाली है । अन्यत्र भी उक्त है -
[[५५४]]
इति वैष्णवचिन्तामणी,
“येन जन्मशतैः पूर्वं वासुदेवः समच्चितः । तन्मुखे हरिनामानि सदा तिष्ठन्ति भारत ॥” ८४३॥ इत्यन्यत्र, “सर्वापराधकृदपि” इत्यादि नामापराधभञ्जनस्तोत्रे च । तस्मात् सर्व्वत्रैव युगे श्रीमत् कीर्त्तनस्य समानमेव सामर्थ्यम् । कलौ च श्रीभगवता कृपया तद्ग्राह्यत इत्यपेक्षयैव तत्र तत्प्रशंसेति स्थितम् । अतएव यदन्यापि भक्तिः कलौ कर्त्तव्या, तदा तत्संयोगेनैवेत्युक्तम् (भा० ११।५।३२) - “यज्ञ ेः सङ्कीर्त्तनप्रायैर्यजन्ति हि सुमेधसः” इति । अत्र च स्वतन्त्रमेव नामकीर्त्तनमत्यन्तप्रशस्तम् ।
एके
“हरेर्ना हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम् । कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा ॥ " ८४४॥ इत्यादौ, तस्मात् साधूक्तम् (भा० ११।४।३६) -’, कलि सभाजयन्त्यार्य्या गुणज्ञाः” इत्यादित्रयम् । श्रीकरभाजनो निमिम् ॥
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“येन जन्मशतैः पूर्वं वासुदेवः समच्चतः ।
तन्मुखे हरिनामानि सदा तिष्ठन्ति भारत ॥” ८४३ ॥
जिसने पूर्वशत शत जन्म में श्रीवासुदेवाच्चंन किया है । उस के हो सुख में सर्वदा श्रीहरिनाम समूह विद्यमान होते हैं। श्रीहरि चरणों में अभय ग्रहण करने से सर्व विध अपराध कारी व्यक्ति भी मुक्त होता है । “सर्वापराधकृदपि” नामापराधस्तोत्र में श्रीहरि नाम कीर्तन की महिमा वर्णित है । अतएव समस्त युगों में ही श्रीहरिनाम सङ्कीर्तन की समान सामर्थ्य है । यह जानना होगा । तब जो कलियुग में कीर्त्तन की अत्यधिक प्रशंसा की गई है-उस का कारण है - अन्यान्य युग में श्रीभगवान् ध्यानादि का प्रचार स्वयं आचरण करके जिस प्रकार करते हैं, उस प्रकार श्रीहरि नाम सङ्कीर्तन की शिक्षा प्रदान स्वयं आचरण करके नहीं करते हैं । किन्तु कलियुग में श्रीभगवान् जीव दुर्गति को देखकर स्वयं श्रीनाम सङ्कीर्त्तन करके जीव वृन्द को शिक्षा प्रदान करते हैं। इस की अपेक्षा से ही कलियुग में श्रीहरिनाम सङ्कीर्त्तन भूयसी प्रशंसा की गई है। अतएव कलियुग में यदि अन्य भत्तयङ्ग का अनुष्ठान करना कर्त्तव्य हो तो - श्रीहरिनाम के सहित हो अर्थात् नाम सङ्कीर्तन को परित्याग न करके ही अन्य भक्तद्यङ्ग का अनुष्ठान करना चाहिये । अतएव भा० ११।५।३२ में उक्त है-
“यज्ञ” : सङ्कीर्त्तन प्रायैर्यजन्तिहि सुमेधसः ॥’
सुमेधा व्यक्ति गण, सङ्कीर्तन प्रधान यज्ञ के द्वारा कलियुग में श्रीभगवान् की अराधना करते रहते हैं । इस कीर्त्तनाङ्ग भक्ति में श्रीहरिनाम सङ्कीर्तन हो स्वतन्त्र रूपसे अत्यन्त शत है । अर्थात् श्रीनारदीय पुराण में उक्त है-
“हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम् ।
कलौ नास्त्येव नारत्येव नास्त्येव गतिरन्यथा ॥८४४ ॥
सत्य युग में ध्यानानुष्ठान से जो फल होता है, कलियुग में श्रीहरिनाम सङ्कीर्त्तन से ही वह फल होता है । यह छोड़ कर अन्य उपाय नहीं है । एवं लेता युग में यज्ञ के द्वारा जो फल लाभ होता है, कलि युग में श्रीनाम सङ्कीर्तन के द्वारा वह फल लाभ होता है, एतद्वयतीत अन्य उपाय नहीं है। द्वापर युग में श्रीभगवत् परिचर्या के द्वारा जो फल होता है, कलियुग में एकमात्र श्रीहरिनाम ग्रहण से ही वह फल लाभ होता है, इस को छोड़कर उपायान्तर नहीं है । सुतरां भा० ११।५।३६ में उक्त है-
है
[[५५५]]