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इयञ्च कीर्त्तनाख्या भक्तिर्भगवतो द्रव्य-जाति-गुण-क्रियाभिर्दोनजनैकविषयापार
“नाहं वसामि वैकुण्ठे योगिनां हृदये न च ।
मद्भक्ता यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद ॥६७॥
तेषां पूजादिकं गन्ध धूपाद्यैः क्रियते नरैः ।
तेन प्रीति परां यामि न तथा मम पूजनात् ॥८२८ ।
हे नारद ! मैं वैकुण्ठ में निवास नहीं करता हूँ, अथवा योगि वृन्द के हृदय में भी नहीं रहता हूँ, मेरे भक्त गण जहाँपर मेरी कथा का गान करते हैं, मैं वहीं रहता हूँ । उन सब भक्त को जो गन्ध पुष्प धूपादि द्वारा पूजा करते हैं, मैं उन सब के प्रति जितना सन्तुष्ट होता हूँ, उन्ना मेरी पूजा में सन्तुष्ट नहीं होता हूँ । जो लोक मेरी लीला का गान करते हैं, वे प्राणी मात्र को उपकृत करते हैं, कारण, उच्चैः स्वर से गान करने से दूरस्थ प्राणी भी सुनते हैं, एवं जो सुनने में अक्षम हैं, इस प्रकार तृण लता प्रभृति में नाम कल्याण होता है । अपना कल्याण हो अर्थात् ही होता है। नरसिंह पुर ण “ते सन्तः सर्वभूतानां निरुपाधिक बान्धवाः ।
की प्रतिध्वनि होने से उन का
में श्रीप्रह्लाद ने कहा है -
ये नृसिंह भवन्नाम गायन्युच्चै मुदान्दिताः ॥ ८२ ॥
हे नृसिंह ! वे वह सब साधु-प्राणि वृन्द के निरुपाधि बान्धव हैं, जो उच्चैः स्वर से परमानन्द से आप का नाम कीर्त्तन करते हैं। बहु जन मिलित होकर जो गान अनुष्ठित होता है- उस को कीर्तन कहते हैं, यह सङ्कीर्त्तन चमत् कार विशेष का पोषक होने के कारण गान से भी अधिक माहात्म्य पूर्ण एवं माधुर्य्य मण्डित है । इस नाम सङ्कीर्त्तन के विषय में कलियुग प वनावतार श्रीभगवान् श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जो उपदेश प्रदान किये हैं. वह यह है-
“तृणादपि सुनोचेन तरोरपि सहिष्णुना । अमानिना मानदेन कीर्त्तनीय सदा हरिः ॥८३०॥
तृण से सुनीच होकर अर्थात् निरभिमानी विनीत होकर - किसी भी अवस्था में अहन्ता मस्तकोत्तलन न करे, इस प्रकार सत्य आचरण परायण होकर, एवं वृक्ष से भी सहिष्णु तथा परोपकारी होकर निजमाना काङक्षा शून्य होकर अपर को सम्मान दान कर सर्वदा श्रीहरि कीर्तन करना कर्त्तव्य है । अर्थात् श्रीहरि नाम कीर्तन कारो के पक्ष में सत्य निरभिमानी, सहिष्ण परोपकारी, योग्य होकर मानाकाङ्क्षा रहित– एवं अपर को मान दान कारी होना परम आवश्यक है ।
प्रवक्ता श्रीसूत हैं ॥ २६६ ॥
२७० : यह कीर्तनाङ्ग भक्ति, - द्रव्य, जाति, गुण एवं क्रिया द्वारा जो सब प्रकारों से दीन हैं,
करुणामयीति श्रुतिपुराणादि-विश्रुतिः । कलौ च दीनत्वं यथा ब्रह्मवैवर्त्त-
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“अतः कलौ तपोयोग-विद्यायज्ञादिकाः क्रियाः । साङ्गा भवन्ति न कृताः कुशलैरपि देहिभिः ॥ ८३१॥
अतएव कलौ स्वभावत एवातिदीनेषु लोकेष्वाविर्भूय ताननायासेनैव तत्तद्युगगत- महासाधनानां सर्वमेव फलं ददाना सा कृतार्थयति । यत एव तयैव कलौ भगवतो विशेषतश्च सन्तोषो भवति, -
“तथा चैवोत्तम लोके तपः श्रीहरिकीर्त्तनम् । कलौ युगे विशेषेण विष्णुप्रीत्यै समाचरेत् ॥” ८३२॥ इति स्कान्दचातुर्मास्य -माहात्म्यवचनानुसारेण । तदेवमाह (मा० १२३३१५२) -
(२७०) “कृते यद्धयायतो विष्णु ं त्रेतायां यजतो मखैः ।
द्वापरे परिचर्य्यायां कलौ तद्धरिकीर्त्तनात् ॥” ८३३॥
यद् यत् कृतादिषु तेन तेन साधनेन स्यात्, तत् सर्व्वं कलो हरिकीर्तनाद्भवतीति । अन्यत्र अर्थात् अयोग्य हैं, उन के प्रति श्रीभगवान् की अपार करुणामयी है । अर्थात् द्रव्य जाति गुण क्रिया प्रभृति की योग्यता जिस में नहीं है, इस प्रकार व्यक्ति के प्रति भी श्रीभगवान् की करुणा सम्पादन कारिणी यह भक्ति है । यह विषय श्रुति पुराणादि में सुप्रसिद्ध है । अथच कलियुग में मानव मात्र का दीनत्व स्वाभाविक है । ब्रह्म वैवर्त पुराण में लिखित है-
“अतः कलौ तपोयोग-विद्यायज्ञादिकाः क्रियाः ।
साङ्गा भवन्ति न कृताः कुशलंरपि देहिभिः ॥ " ८३१ ॥
अतएव कलियुग में तपस्या, योग, विद्या एवं यज्ञ प्रभृति - क्रिया कर्म सुनिपुण मानव गण कर्तृ क अनुष्ठित होने पर भी पूर्णाङ्ग नहीं होते हैं । अतएव कलियुग के मानव गण स्वभावतः ही अतिशय दीन हैं। यह सब दीन जन के मध्य में श्रीकीर्तनाङ्ग भक्ति, आविर्भूत होकर सत्या’द युग के जो सब महासाधन उल्लिखित हैं, वह सब साधनों का महाफल को अनायास प्रदान करके श्रीनाम सङ्कीर्त्तन कारी व्यक्ति की कृतार्थ करती है । कारण कीर्तनाङ्ग भक्ति के द्वारा ही श्रीभगवान् परम सन्तुष्ट होते हैं, अतएव सत्यादि- युगगत निखिल साधनों का फल लाभ, एकमात्र श्रीहरि नाम सङ्कीर्तन के द्वारा ही होता है। कारण, श्रीभगवत् सन्तोष हो निखिल सन्तोष का मूल हेतु है । स्कन्द पुराण के चातुर्मास्य माहात्म्य प्रकरण में लिखित है- ’ तथा चंशेत्तमं लोके तपः श्रीहरि कीर्तन ।
।
कलौ युगे विशेषेण विष्णु प्रीत्यं समाचरेत् ॥” ८३२ ॥
इस जगत् में श्रीभगगत् सङ्कीर्त्तन ही सर्व श्रेष्ठ तपस्या है, विशेषतः इस कलियुग में श्रीहरि के प्रीति निमित्त हो कीर्तन करना कर्तव्य है । भा० १२।३।५२ में उस विषय का कथन हुआ है -
(२७०) “कृते यद्धचायतो विष्णु त्रेत यां यजतो मखैः ।
द्वापरे परिचर्यायां कलौ तद्वरिकीर्त्तनात् ॥ ८३३॥
टीका-ध्यायन् टीका- ध्यायन् कृते यजन् यज्ञ स्त्रेतायां द्वापरेऽर्च्चना यदाप्नोति तदाप्नोति कलौ संङ्कीयं केशवमिति । श्रीशुक - श्रीपरीक्षित को कहे थे - सत्य युग में विष्णु ध्यान करके त्रेता युग में यज्ञानुष्ठान करके एवं द्वापर युग में परिचय करके जो फल लाभ होता है, कलियुग में श्री हरि सङ्कीर्तन के द्वारा ही मानवगण उस फल को प्राप्त कर सकते हैं। युगोचित उन उन साधनों के द्वारा जो जो फल होते हैं, उन सब फल लाभ–कलि में श्रीहरि नाम सङ्कीर्तन से ही होते हैं । विष्णु पुराण के ६।२।२७ में भी लिखित है-
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श्रीभक्ति सन्दर्भ
च वि० पु० ६।२।१७)-
“ध्यायन् कृते यजन् यज्ञस्त्रेतायां द्वापरेऽर्चयन् । यदाप्नोति तदाप्नोति कलौ संकीर्त्य केशवम । ८३५०
इति ॥ श्रीशुकः ॥