२६७

४५९ २६८

अथ लीला कीर्त्तनम् (भा० २८३)

R

(२६८) “शृण्वतः श्रद्धया नित्यं गृणतश्च स्वचेष्टितम् ।

कालेन नातिदीर्घेण भगवान् विशते हृदि ।“८२१॥

कर्णरन्ध्रस्याकाशत्वात् गुणगणानाञ्चामूर्त्तत्वात् न कदाचिदपि पूरणम्, अतो नित्यमेव श्रवणं फलिष्यतीति । हे नाथ ! निजकृत अपराधनिबन्धन नरक में हमारे जन्म यथेष्ट हो, उस से हम सब किञ्चिन्मात्र भीत नहीं हैं। भ्रमर जिस प्रकार कण्टकबिद्ध होकर भी कुसुम में अनुरागी होता है, उस प्रकार आप का भजन में विविध विघ्न प्राप्त करके भी यदि हमारे चित्त भ्रमर के समान आप के चरण नलिन युगल में सतत निरत रहे, तुलसी जिस प्रकार निज गुण की अपेक्षा न करके अर्थात् स्वयं श्रीकृष्ण वल्लभा होकर भी आप के चरण सम्बन्ध से ही शोभा शालिनी होती है, उस प्रकार हमारे वाक्य समूह भी यदि आप के चरण सम्बन्ध द्वारा शोभित हो, आप की गुणराशि के द्वारा यदि हमारे कर्णरन्ध्र पूर्ण हों, अभिप्राय यह है कि- कर्ण आकाश स्वरूप है, आप के गुण समुह भी अमूर्त्त हैं । अतएव गुण श्रवण से कर्ण की पूर्ति किसी प्रकार से कभी भी नहीं हो सकती है। इस से नित्य ही श्रवण सिद्ध होगा। इस अभिप्राय से ही कर्ण रन्ध्र पूर्ति की प्रार्थना उन्होंने की है ।

राजा श्रीशुक को कहे थे ॥ २६६ ॥ ।

४६० २६७

अनन्तर गुण कीर्तन का वर्णन करते हैं- श्रीभागवत के ११५२२ में वर्णित है -

(२६७) “इदं हि पुंसस्तपसः श्रुतस्य वा, स्विष्टस्य सूक्तस्य च बुद्ध-दत्तयोः ।

अविच्युतोऽर्थः कविनिरूपितो, यदुत्तमश्लोक-गुणानुवर्णनम् ॥” ८२०॥

देवर्षि नारद, श्रीकृष्ण द्वैपायन को कहे थे । हे मुनीन्द्र भगवदर्पित तपस्या, वेद अध्ययन, यज्ञादि अनुष्ठान, मन्त्रादि जप, शास्त्रीय ज्ञान, एवं सत् पात्र में दान का नित्य मुख्य फल, उत्तम श्लोक श्रीकृष्ण के गुण समूह का कीर्त्तन । गुण कीर्त्तन करते करते परम पुरुषार्थ रूप रति का उदय होने पर गुणानुवर्णन में नव नवायमान उल्लास प्रकाशित होता है, यही अविच्युत परम पुरुषार्थ है । अतएव अविचुचत विशेषण के द्वारा भगवद् गुणानुवाद को निखिल साधनों का मुख्य फल कहा गया है।

श्रीनारद श्रीव्यास को कहे थे ॥ २६७ ॥ २६८ । अनन्तर लीला कीर्त्तन का वर्णन करते हैं - भा० २८३ में कथित है-

(२६८) " शृण्वतः श्रद्धया नित्यं गृणतश्च स्वचेष्टितम् ।

कालेन नातिदीर्घेण भगवान् विशते हृदि ॥ " ८२१ ॥

[[५४६]]

नातिदीर्घेजण स्वल्पेनैव, विशते स्फुरति ॥ श्रीपरीक्षित् ॥