४५५ २६५
अतएव प्रथमस्कन्धान्तस्थितानां राज्ञः श्रेयोविविदिषावाक्यानामनन्तरं द्वितीय- स्कन्धारम्भे सर्वोत्तममुत्तरं वक्तुम् (भा७ २1१1८-१० ) -
“इदं भागवतं नाम पुराणं ब्रह्मसम्मितम् । अधीतवान् द्वापरादौ पितुद्वैपायनादहम् ॥ ७८८ परिनिष्ठितोऽपि नैर्गुण्य उत्तमश्लोक-लीलया । गृहीतचेता राजर्षे आख्यानं यदधीतवान् ॥७८॥ तदहं तेऽभिधास्यामि महापौरुषिको भवान्
यस्य श्रद्दधतामाशु स्यान्मुकुन्दे मतिः सती ॥ ७६० ॥
इति श्रीभागवतस्य परममहिमानमुक्त्वा तदनन्तरं श्रीभागवतमुपक्रममाण एव तस्य
न शुध्यति, उदाहृतैरुच्चारितै र्यथानामपदै रित्यनेन नमामीत्यादि क्रियायोगोऽपि नापेक्षित इति दर्शितम् । किञ्च तन्नामपदोच्चारणम् उत्तमः श्लोकस्य गुणानाञ्चोपलम्भक ज्ञापकं भवति नतु कृच्छ्र चान्द्रायणादिवत् पाप निवृत्ति मात्रोपक्षीणमित्यर्थः ।
ब्रह्मविद् व्यक्ति वृन्द जो सब प्रायश्चित्त का वर्णन किये हैं, वह सब प्रायश्चित्त के द्वारा पापीयान् जन उस प्रकार विशुद्ध नहीं होता है, श्रीहरि के नामपदल्लेख से जिस प्रकार शुद्ध होता है। श्री हरि- नामोच्चारण से केवल पाप विनष्ट ही नहीं होता है । किन्तु श्रीभगवद् गुण का अनुभव भी होता है ।
श्रीविष्णु दूतगण - यमदूत वृन्द को कहे थे ॥ २६४॥
४५६ २६५
अतएव श्रीभागवत के प्रथम स्कन्ध में परीक्षित महाराज के जीव के श्रेयः सम्पादक प्रश्न मूलक जो सब वाक्य हैं, उस के पश्चात् द्वितीय स्कन्ध के प्रारम्भ में उक्त प्रश्न के उत्तर प्रदान के समय श्रीशुक, श्रीमद् भागवत की परम महिमा का उल्लेख करके श्रीमद् भागवत प्रसङ्ग के प्रारम्भ में ही श्रीभगवान् के नाम कीर्त्तन का उपदेश प्रदान किये हैं । कारण, श्रीहरिनाम कीर्तन हो श्रीभगवान् के प्रति उन्मुखता सम्पादक है । भा० २०१८ - १० में उक्त है-
“इदं भागवतं नाम पुराणं ब्रह्मसम्मितम् । अधीतवान् द्वापरादौ पितुद्वैप यनादहम् ॥७८॥ परिनिष्ठितोऽपि नैगुण्य उत्तमश्लोक - लीलया । गृहीतचेता राजर्षे आख्यानं यदधीतवान् ॥ ७८६॥ तदहं तेऽभिधास्यामि महापौरुषिको भवान् ।
यस्य श्रद्दधतामाशु स्यान्मुकुन्दे मतिः सती ॥७६० ॥
टीका - किमिदमपूर्वं कथयसि ? सत्यम् । अतः पूर्वमेवेदमित्याह । इदं भगवता प्रोक्त ताक प्रधानं पुराणं ब्रह्म सम्मितं सर्ववेद तुल्यम्, यद्वा ब्रह्म सम्यङ् मितं येन । कुतस्त्वया प्राप्तम् ? अत आह, अधीतवानिति । द्वैपायनात् पितुः । कदा ? द्वापरादौ द्वापर आदिर्यस्य कालस्य तस्मिन् द्वापरान्ते - इत्यर्थः । शन्तनुसमकाले व्यासावतार प्रसिद्धः । (८) सिद्धस्य तव कुतोऽध्ययने प्रवृत्तिः ? तत्राह - परिनिष्ठितोऽपीति ।
[[५३३]]
नानाङ्गवतः श्रीमन्मुख्यतया तन्नामकीर्त्तनमेवोपदिशति । तत्रापि सर्वेषामेव परमसाध्यत्वेन चोपदिशति, (भा० २।१।११) -
(२६५) “एतन्निविद्यमानानामिच्छतामकुतोभयम् ।
योगिनां नृप निर्णीतं हरेर्नामानुकीर्त्तनम् ॥ ७६१॥!
टोका च - “साधकानां सिद्धानाश्च नातः परमन्यत् श्रेयोऽस्तीत्याह - एतदिति । इच्छतां कामिनां तत्तत्फलसाधनमेतदेव, निविद्यमानानां मुमुक्षूणां मोक्षसाधनमेतदेव, योगिनां ज्ञानिनां फलञ्चैतदेव निर्णीतम्, नात्र प्रमाणं वक्तव्यमित्यर्थः” इत्येषा । नामकीर्तनञ्चेदमुच्चैरेव प्रशस्तम्, (भा० १,६।२७) - “नामान्यनन्तस्य हतत्रपः पठम्” इत्यादी । अत्र पाद्मोक्ता दशापराधाः परित्याज्याः, यथा सनत्कुमारवाक्यम्-
गृहीत चेता - आकृष्ट चित्तः ॥६॥
श्रीमद् भागवतीय द्वितीयस्कन्धोक्त श्रीमद् भागवत माहात्म्य सूचक श्लोकार्थ है - हे राजन् ! अ/भगवत् प्रोक्त भगवन्नाम साधन प्रधान श्रीमद् भागवत पुराण ब्रह्म सम्मित अर्थात् सर्व वेद तुल्य है । अथवा जिस श्रीमद् भागवत के श्रवण कीर्तन द्वारा ब्रह्मानुभव लाभ होता है । मदीय जनक श्रीकृष्ण- द्वैपायन के निकट से, द्वापर है, जिस के आदि में अर्थात् द्वापर के अन्त में उस पुराण का अध्ययन मैंने किया । हे राजन् ! प्रश्न होना सम्भव है कि-आत्माराम आप्तकाम व्यक्ति को अध्ययन से क्या प्रयोजन है ? अर्थात् सिद्ध महापुरुष की प्रवृत्ति अध्ययन में कैसे हो सकती है ? उत्तर में कहते हैं-यद्यपि मैं निर्गुण ब्रह्म में सब प्रकार से निष्ठा प्राप्त था, तथापि उत्तम श्लोक श्रीकृष्ण की लीला कथा द्वारा आकृष्ट चित्त–गृहीत चित्त होकर ब्रह्म निष्ठा में स्थित होना असम्भव होने के कारण मैंने श्रीमद् भागवत महापुराण का अध्ययन किया। मैं आप के निकट में उस श्रीमद्भागवत का ही वर्णन करूँगा । कारण, आप विष्णुजन हैं। जिस श्रीमद् भागवत में श्रद्धा स्थापन करने पर मुकुन्द के चरणों में अहैतुकी प्रीति प्राप्ति होती है । इस रीति से श्रीमद् भागवत की परम महिमा वर्णन करने के पश्चात् श्रीमद् भागवत कथा प्रारम्भ के समय श्रीभक्ति साधन के विविध अङ्ग विद्यमान होने पर भी श्रीनाम सङ्कीर्तन का ही उपदेश प्रदान किये थे । कारण, समस्त साधनों के मध्य में श्रीनाम सङ्कीर्तन ही श्रीभगवदुन्मखता सम्पादक है । श्रीमद् भागवत में भी सर्व साधारण के पक्ष में परम साधन रूप से एवं परम साधन रूप में श्रीनाम– सङ्कीर्तन को ही कहे हैं । भ० २।१।११ ।
(२६५) “एतन्निविद्यमानानामिच्छतामकुतोभयम् ।
योगिनां नृप निर्णीतं हरेर्नामानुकीर्त्तनम् ॥ ७६१ ॥
।
श्रीधर स्वामि पाद कृत टीका की व्याख्या यह है - साधकों का एवं सिद्धमहापुरुषों का, इस से अधिक श्रेष्ठ साधन द्वितीय नहीं है । इस अभिप्राय को व्यक्त करने के निमित्त कहते हैं, हे राजन् । जो सकाम हैं, वह सब कामनारत व्यक्तियों का यह नाम सङ्कीर्तन ही उस काम्य फल लाभ हेतु अव्यभिचारी साधन है। निविद्यमान, अर्थात् मुमुक्ष व्यक्ति का भी श्रीनाम सङ्कीर्तन मुख्य साधन है। योगि वृन्द का भी योग फल लाभ हेतु मुख्य साधन यह श्रीनाम सङ्कीर्त्तन ही है, इस विषय में प्रमाणोल्लेख की कोई आवश्यकता नहीं है, कारण - यह निर्णीत है, अर्थात् इस निश्चित विषय में संशय का अवसर ही नहीं है। यह नाम सङ्कीर्त्तन उच्चैः स्वरसे करना ही प्रशस्त है । भा० १।६।२७ में उक्त है - “नामान्यनन्तस्य हतत्रपः
[[५३४]]
“सर्वापराधकृदपि मुच्यते हरिसंश्रयात् । हरेरप्यपराधान् यः कुर्य्याद्विपदपांसनः ॥७२॥ नामाश्रयः कदाचित् स्यात्तरत्येव स नामतः । नाम्नोऽपि सर्वसुहृद । ह्याराधात् पतत्यधः ॥ ७६३॥ इति । अपराधाश्चैते-
“सतां निन्दा नाम्नः परममपराधं वितनुते, यतः ख्यातिं यातं कथमु सहते तद्विगरिहाम् ।
शिवस्य श्रीविष्णोर्य इह गुण–नामादि–सकलं, घिया भिन्नं पश्येत् स खलु हरिनामाहितकरः ॥७६४॥
गुरोरवज्ञा श्र ुतिशास्त्रनिन्दनं, तथार्थवादो हरिनाम्नि कल्पनम् ।
नाम्नो बलाद्यस्य हि पापबुद्धि, –र्न विद्यते तस्य यहि शुद्धिः ॥७६५॥
धर्म व्रत-त्याग-हुतादि- पर्व, शुभ क्रिया साम्यमपि प्रमादः ।
अश्रद्दधाने विमुखेऽप्यशृण्वति, यश्चोपदेशः शिवनामापराध. १७६६॥
श्रुत्वापि नाममाहात्म्यं यः प्रीतिरहिनोऽधमः । अहंममादि-परमो नाम्नि सोऽप्यपराधकृत् ॥ ७६७
पठन् " अनन्त श्री भगवान का नाम - लोकलज्जा रहित होकर पाठ करे। इस से उच्चैः स्वर से नाम कोर्त्तन विहित हुआ है। श्रीहरिनाम सङ्कीर्त्तन प्रसङ्ग में पद्म पुराणोक्त दशापराध को परित्याग करन कर्तव्य है । सनत् कुमार कहे थे -
“सर्वपराधकृदपि मुच्यते हरिसंश्रयात् ।
हरेरप्यपराधान् यः कुर्य्याद्विपदपांसनः ॥७२॥ नामाश्रयः कदाचित् स्यात्तरत्येव स नामतः ।
नाम्नोऽपि सर्वसुहृदो ह्यपराधात् पतत्यधः ॥”७६३॥
सब प्रकार अपराधी व्यक्ति श्रीहरिचरणाश्रय करके मृक्ति लाभ करता है । मनुष्य के मध्य में कुल कज्जल स्थानीय जीव ही श्रीहरि चरणों में अपराधाचरण करता है । वह यदि कदाचित् नामाश्रय ग्रहण करता है तो, नामाश्रय के प्रभाव से वह अपराध से मुक्त हो जाता है । किन्तु सर्व जन सुहुत् श्रीनाम के निकट अपराधाचरण करने से वह अधः पतित होता है । दश अपराध का वर्णन करते हैं-
सज्जन वृन्द
“सतां निन्दा नाम्नः परममपराधं वितनुते,
यतः ख्याति यातं कथम् सहते सद्विगरिन् । शिवस्य श्रीविष्णोर्य इह–गुण-नामादि-सकलं,
धिया भिन्नं पश्येत् स खलु हरिनामाहितकरः ॥७६४
गुरोरवज्ञा श्रुतिशास्त्रनिन्दनं तथार्थवादो हरिनाम्नि कल्पनम्
नाम्नो वलाद्यस्य हि पापबुद्धि, -र्न विद्यते तस्य यहि शुद्धिः ॥७६ धर्म- व्रत-त्याग-हुतादि सर्व, -शुभक्रिया साम्यमपि प्रमादः । अश्रद्दधाने विमुखेऽप्यशृण्वति, यश्चोपदेशः शिवनामापराधः ॥७६६॥ श्रुत्वापि नाममाहात्म्यं यः प्रीतिरहितोऽधमः ।
अहंममादि–परमो नाम्नि सोऽप्यपराथकृत् ॥”७६७॥
को निन्दा श्रीनाम के निकट परम अपराध विस्तार करती है-यह प्रथम अपराध है । सत की निन्दा से श्रीनाम के समीप में अपराध कैसे हो सकता है ? उत्तर में कहते हैं । साधु वृन्द से ही श्रीहरिनाम ख्याति प्राप्त करते हैं, अतएव साधु की निन्दा को श्री हरिनाम कैसे सहन कर सकते हैं । यहाँ सत् शब्द से ध्रुव प्रह्लाद की निन्दा ही साधु निन्दा है, एवं उन के समान साधु की निन्दा ही साधु निन्दा रूप अपराध है - इस प्रकार धारणा ठीक नहीं है । कारण, श्रीहरि भक्त हो यथार्थ साधु है, कारण, उस
अत्र ‘सर्वापराधकृदपि’ इत्यादौ श्रीविष्णुयामल- वाक्यमप्यनुसन्धेयम-
[[५३५]]
“ मम नामानि लोकेऽस्मिन् श्रद्धया यस्तु कीत्तयेत् । तस्यापराधकोटीस्तु क्षमाभ्येव न संशयः ॥७८॥ ‘सतां निन्दा’ इत्यनेन हिंसादीनां बचनागोचरत्वं दर्शितम् । निन्दादयस्तु यथा स्कान्दे श्री मार्कण्डेय-भगीरथसंवादे-
“निन्दां कुर्वन्ति ये मूढ़ा वैष्णवांनां महात्मनाम् । पनन्ति तृभिः सार्द्ध महारौरवसंज्ञिते ॥७६६॥
।
प्रकार साधु वृन्द की शरीरादि में अहन्ता नहीं होती है, वे श्रीभगवान् के दास होते हैं, एवं समर्पितात्मा होते हैं, तथा जगज्जीवों के हितकारी होते हैं, कारण, प्रभु, भूत दया से ही सन्तुष्ट होते हैं । अतएव भक्ति के सम्पर्क से हो साधु संज्ञा होती है । दश प्रकार नाम पराध के मध्य में द्वितीय नामापराध यह है- श्रीशिव के गुण नामादि को जो श्रीविष्णु से स्वतन्त्र अर्थात् श्रीशिव के निज शक्ति सिद्ध मानते हैं, वे श्रीह रनाम के निकट अपराधी हैं। श्रीगुरु देवकी अवज्ञा अर्थात् आदेश पालन न करना एवं मनुष्य बुद्धि से व्यवहार करना तृतीय अपराध हैं । वेद एवं वेदानुगत शास्त्र निन्दा - यह चतुर्थ नामापराध है । श्रीहरि नाम में अर्थ वाद कल्पना करना अर्थात् यह स्तुति मात्र है। इस प्रकार मानना पञ्चम अपराध हैं । श्रीहरि नाम माहात्म्य को गौण करने के निमित्त अर्थान्तर चिन्ता करना, अर्थात् प्रकारान्तर में अर्थ कल्पना करना षष्ठ अपराध हैं। नाम के बल से पाप कर्म में प्रवृत्त होना, अर्थात् जिसने पापाचरण क्यों न हों हरिनाम करने से पवित्र हो जायेंगे, इस प्रकार धारणा करना सप्तम अपराध है । यहाँ नाम शब्द से भक्ति को समझना होगा । अर्थात् जिस किसी प्रकार भक्तयङ्ग के अनुष्ठान के बल से पाप आवरण में प्रवृत्त होना, नामापराध है । श्रीहरिनाम के बल से पापाचरण में प्रवृत्त होने पर यमनियमादि साधन के द्वारा अथवा यम दण्ड भोग करने से भी अपराध से निष्कृति नहीं होती है । धर्म, व्रत, त्याग, होम, प्रभृति शुभ
।
कर्म समूह के सहित नाम माहात्म्य को साम्य मानना, अर्थात् शुभ कर्माचरण से जो फल होता है, नाम साधन से भी वही फल होता है, इस प्रकार मानना अट्टम अपराध है। श्रद्धा हीन व्यक्ति को, बहिर्मुख व्यक्ति को एवं जो श्रीहरि नाम श्रवणेच्छ नहीं है, इस प्रकार व्यक्ति समूह को नामोपदेश करना नवम अपराध है। नाम माहात्म्य श्रवण करके भी उस में श्रद्धालु न होना, केवल अहङ्कारान्वित होना मैं मेरा इस प्रकार बुद्धि में प्रतिष्ठित होना दशम अपराध हैं ।
श्रुत्यपि नाममाहात्म्यं यः प्रीतिरहितोऽधमः ।
अहंममादि–परमो नाम्नि सोऽप्यपराधकृत् ॥ ”७६७॥
यहाँपर पूर्व वर्णित “सर्वापराधकृदपि” सनत् कुमारोक्त श्लोकार्थ प्रसङ्ग में श्रीविष्णु यामल वाक्य का अनुसन्धान करना कर्तव्य है । वह यह है-
“मम नामानि लोकेऽस्मिन् श्रद्धया यस्तु कीर्त्तयेत् ।
तस्यापराधकोटीस्तु क्षमाम्येव न संशयः ॥ ७८ ॥
इस जगत् में जो मेरा नाम कीर्त्तन श्रद्धा पूर्वक करता है, मैं उस के कोटि कोटि अपराधों को क्षमा करता हूँ । इस में अणुमात्र भी सन्देह नहीं है, जब सन् की निन्दा हो इस प्रकार दोषा वह है, तब साधु हिंसा करना जो कितना दोषावह है-वह वाक्यका अगोचर है । अर्थात् उसको प्रकाश करने के निमित्त भाषा सक्षम नहीं है, कतिपय व्यक्ति मानते हैं कि- साधुको निन्दा करना दोषावह है, किन्तु हिंसा प्रभृति करने से दोष नहीं होता है । इस प्रकार युक्ति का समाधान हेतु स्कन्द पुराणोक्त श्रीमार्कण्डेय भगीरथ प्रसङ्गः का उल्लेख करते हैं-
[[५३६]]
श्रीभक्ति सन्दर्भः
हन्ति निन्दति वै द्व ेष्टि वैष्णवान् नाभिनन्दति ।
क्र ुध्यते याति नो हर्षं दर्शने पतनानि षट ॥” ८००॥ इति ।
तन्निन्दाश्रवणेऽपि दोष उक्तः (भा० १० ७४१४०/-
“निन्दां भगवतः शृण्वत् तत्परस्य जनस्य वा ।
ततो नापैति यः सोऽपि यात्यधः सुकृताच्च्युतः ॥ ८०१ ॥ इति । ततोऽपगमश्चासमर्थस्यैव, समर्थेन तु निन्दकजिह्वा छतव्या, तत्राप्यसमर्थेन स्वप्राण- परित्यागोऽपि कर्त्तव्यः, यथोक्तं देव्या, (भा० ४।४।१७) -
“कणौं पिधाय निरियादयदकल्प ईशे
धर्मावितथ्यं शृणिभिर्नू भिरस्यमाने ।
जिह्वां प्रसह्य रुषतीमसतां प्रभुश्चे-
ि
च्छिन्द्यादसूनपि ततो विसृजेत् स धर्मः ॥ ८०२ ॥ इति ।
‘शिवस्य श्रीविष्णोः’ इत्यत्रवमनुसन्धेयस् श्रूयतेऽपि ( गी० १०१४१)
“निन्दां कुर्वन्ति ये मूढ़ा वैष्णवानां महात्मनाम् । पतन्ति पितृभिः सार्द्धं महा रौरव संज्ञिते ॥७६॥ हन्ति निन्दति वै द्वेष्टि वैष्णवान् नाभिनन्दति ।
[[71]]
क्र ुध्यते याति नो हर्ष दर्शने पतनानि षट् ॥ ८०॥
जो मूढ़, माहात्म्य वैष्णव वृन्द की करता है, वह पितृ कुल के सहित महारौरव नामक नरक में पतित होता है। जो वैष्णव हत्या करता है, वैष्णव निन्दा करता है, द्वेष करता है, एवं वैष्णव दर्शन करके आनन्दित नहीं होता है, अभिनन्दन नहीं करता है, उनके प्रति क्रुद्ध होता है, यह छै प्रकार दुर्जन हो अधः पतित होते हैं। स्वयं निन्दा करना यह तो दोषावह है हो, किन्तु दूसरे की निन्दा श्रवण करना भी निन्दा करने के समान ही दोषावह है। उस सम्बन्ध में भा० १००७४ ४० के श्लोका उल्लेख करते हैं-
““नन्दां भगवतः शृण्वन् तत्परस्य जनस्य वा ।
ततो नापैति यः सोऽपि यात्यधः सुकृताच्चुतः ॥ ८०१ ॥
श्रीभगवान् एवं भगवान् के जनों की निदा को सुनकर जो उस स्थान से चला नहीं जाता है, वह पूर्व सञ्चित सुकृत से वञ्चित होकर अधः पतित होता है । स्थान त्याग करने की विधि किन् तु असमर्थ व्यक्ति के पक्ष में है, समर्थ व्यक्ति के पक्ष में निन्दाकारी को जिह्वा की च्छेदन करना ही विहित है । उस में भी असमर्थ होने पर निज प्राण त्याग करना कर्त्तव्य है । भा० ४।४।१७ में उक्त है-
“कर्णौ पिधाय निरियाद्यदकरूप ईशे धर्माक्तिर्य्यशृणिभिर्नृभिरस्यमाने ।
जिह्वां प्रसह्य रुषतीमसतां प्रभुश्चे–च्छिन्द्यादसूनपि ततो विसृजेत् स धर्मः ॥ ८०२॥
यदि निरङ्कुश मानव, धर्मरक्षक महापुरुष की निन्दा करते हैं । तो समर्थ होने पर निन्दक व्यक्ति की हत्या करे अथवा उस की जिह्वा च्छेदन करे । असमर्थ होने पर निज कर्ण द्वय में हस्तार्पण करके उस स्थान से चले जाय । अथवा निज प्राण त्याग करे । इस प्रकार प्रायश्चित्त करना ही साधु निन्दा श्रवण कारी कर्त्तव्य है । इस के पहले लिखित है–श्रीविष्णु से श्रीशिव के नाम रूप प्रभृति को पृथक् मानना
श्री भक्तिसन्दर्भः
[
[[५३७]]
“यद् यद्विभूतिमत् सत्त्वं श्रीमदूजितमेव वा । तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोऽशसम्भवम् ॥” ८०३ ॥ इति ।
(भा० १०१६८१३७) “ब्रह्मा भवोऽहमपि यस्य कलाः कलायाः” इति, (भा० ३।२८ २२) “यत्पाद- निःसृत सरित् प्रवरोदकेन, तीर्थेन मूर्द्धाधिकृतेन शिवः शिवोऽभूत्” इति, ( भा० २२६३२) -
“सृजामि तन्नियुक्तोऽहं हरो हरति तद्वशः ।
विश्वं पुरुषरूपेण परिपाति त्रिशक्तिधृक् ॥ " ८०४ ॥ इति,
[[1591]]
तथा माध्वभाष्य दर्शितानि वचनानि, यथा ब्रह्माण्डे-
“रुजं द्रावयते यस्मात् रुद्रस्तस्माज्जनाद्दनः । ईशनादेव चेशानो महादेवो महत्त्वतः ॥ ८०५॥
श्रीनामापराध है । इस विषय की सम्प्रति आलोचना करते हैं । श्रीभगवद् गीता के १०।४१। में उक्त है-
“यद् यद् विभूतिमत् सत्त्वं श्रीमदूजितमेव वा । तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोऽंशसम्भवम् ॥८०३ ॥
हे अर्जुन ! जो सब पदार्थ विभूति युक्त एवं अंशसम्भूत जानना । भा० १० ६८ । ३७ में उक्त है-
प्रभाव सम्पन्न होते हैं । उन सब को मेरा प्रभाव के
“ब्रह्मा भवोऽहमपि यस्य कलाः कलायाः”
श्रीबलदेव, दुर्योधन प्रभृति को कहे थे-ब्रह्मा, महादेव, लक्ष्मी एवं मैं जिन के अंश के अंश स्वरूप होकर जिन की चरण रज को मस्तक में वहन करता हूँ। यह सब दुष्ट मति कौरव गण कहते हैं कि यह श्रीकृष्ण, नृपासन प्राप्त करने में अयोग्य हैं । भा० ३।२७/२२ में भी उक्त है-
“यत्पादनिःसृत-सरित्प्रवरोदकेन,
तीर्थेन मूर्द्धाधिकृतेन शिवः शिवोऽभूत ॥
भगवान् कपिल देव जननी को कहे थे-मातः ! जिन के श्रीचरण प्रक्षालन से आविर्भूता श्रीगङ्ग का संसारोद्धारक जल को मस्तक में धारण करके शिन हुए थे । अर्थात् परम सुख लाभ विये थे ।
भा० २०६।३२ में भी लिखित है-
“सृजामि तन्नियुक्तोऽहं हरो हरति तद्वशः ।
विश्वं पुरुषरूपेण परिपाति त्रिशक्तिधृक् ॥ " ८०४ ॥
श्रीब्रह्मा, देवर्षि नारद को कहे थे-बत्स ! मुझ को जो परमेश्वर मान रहे हो, यह अत्यन्त मूर्खता है, कारण, मैं श्रीविष्णु कर्त्तृक नियुक्त होकर सृष्टि करता हूँ । महेश श्रीविष्णु के अधीन होकर संहार कार्य्यं करते हैं । सृजन, पालन, एवं संहार रूप त्रिविध शक्ति समन्वित श्रीविष्णु पुरुष रूप धारण करके ही विश्वपालन करते रहते हैं। यह सब प्रमाणों से सुस्पष्ट बोध होता है कि-श्रीविष्णु के सहित श्रीशिव की समता करना समीचीन नहीं है । कारण पूर्वोक्त प्रमाण समूह के द्वारा पतिपन्न हुआ है कि-श्रीशिव- श्रीविष्णु के अधीन हैं । विशेषतः भागवत के द्वादश स्कन्ध में (भा० १२।१३।१६) लिखित है- “वैष्णवानां यथा शम्भुः अर्थात् वैष्णव वृन्द के मध्य में जिस प्रकार शम्भु श्रेष्ठ है, उस प्रकार पुराण समह के मध्य में श्रीमद् भागवत ही श्रेष्ठ प्रमाण है । श्रीशिव एवं श्रीब्रह्मा प्रभृति के नाम जो निज निज शक्ति सिद्ध नहीं हैं सम्प्रति माध्यभाष्योदकृत प्रमाणों के द्वारा उस को दर्शाते हैं। 1
“रुजं द्रावयते यस्माद् रुद्रस्तस्माज्जन द्दनः । ईशनादेव चेशानो महादेवो महत्त्वतः ॥ ८०५॥
[[५३८]]
पिबन्ति ये नरा नाकं मुक्ताः संसारसागरात् । तदाधारो यतो विष्णुः पिनाकीति ततः स्मृतः ॥८०६ ॥ शिवः सुखात्मकत्वेन सर्वसंरोधनाद्धरः । कृत्त्यात्मकमिमं देहं यतो वस्ते प्रवर्त्तयन् । ८०७ ॥ कृत्तिवासास्ती देवो विरिश्चिश्च विरेचनात् । बृहद्ब्रह्मनामासौ ऐश्वर्य्यादिन्द्र उच्यते ॥ ८०८ ॥ एवं नानाविधैः शब्दैरेक एव त्रिविक्रमः । वेदेषु च पुराणेषु गीयते पुरुषोत्तमः ॥ ८० ॥ इति । व्यामने -
“न तु नारायणादीनां नाम्नामन्यत्र संशयः । अन्यनाम्नां गतिविष्णुरेक एव प्रकीर्तितः ॥ ८१०॥ इति । - स्कान्दे-
“ऋते नारायणादीनि नामानि पुरुषोत्तमः । अदादन्यत्र भगवान् राजेवते स्वकं पुरम् ॥ " ८११ ॥ इति, ब्राह्म-
“चतुर्मुखः शतानन्दो ब्रह्मणः पद्मभूरिति । उग्रो भस्मधरो नग्नः कपालीति शिवस्य च ।
विशेषनामानि ददौ स्वकीयान्यपि केशवः ॥ ८१२॥ इति ।
पिबन्ति ये नरा नाकं मुक्ताः संसारसागरात् । ताधारो यतो विष्णुः पिनाकीति ततः स्मृतः ॥ ८०६ ॥ शिवः सुखात्मकत्वेन सर्व संरोधनाद्धरः । कृत्त्वात्मकमिमं देहं यतो वस्ते प्रवर्त्तयन् ॥८०७ ॥ कृत्तिवासास्ततो देवो विरिश्चिश्च विरेचनात् । बृहाद्ब्रह्मनामासौ ऐश्वर्य्यादिन्द्र उच्यते ॥८८॥ एवं नानाविधैः शब्दैरेक एव त्रिविक्रमः ।
वेदेषु च पुराणेषु गीयते पुरुषोत्तमः ॥ ८० ॥
क्लेश अपनोदन करते हैं-अतः जनार्दन का एकनाम रुद्र है। सब के नियन्ता होने के कारण श्री विष्णु ईशान नाम से विख्यात हैं । सब से महान होने के कारण श्रीविष्णु महादेव नाम से ख्यात हैं । संसार सागर से मुक्त होकर जो लोक अखण्ड स्वर्ग सुख भोग करते हैं, श्रीविष्णु उन सब मानवों का आधार होने के कारण आप का नाम, पिनाकी है। सुख स्वरूप हेतु श्रीविष्णु शिव हैं, एवं सर्व संहारकारी होने के कारण श्रीविष्णु हर नाम से कथित हैं। कृत्य अर्थात् कर्मात्मक इस शरीर में निवास करने के कारण, श्रीविष्णु का एकनाम कृत्तिवास है । प्रकृति में जीव शक्ति का आधान करने के कारण श्रीविष्णु का नाम विरिश्चि है । सर्वत्र व्याप्त होकर रहने के कारण श्रीविष्णु का नाम ब्रह्मा है। ऐश्वर्य पूर्णता हेतु इन्द्र हैं । इस प्रकार विविध शब्द के द्वारा त्रिविक्रम पुरुषोत्तम श्रीविष्णु ही वेद एवं पुराणों में विभिन्न नामों से ख्यात हैं। तात्पर्य यह है कि, निखिल नामों की मुक्त प्रग्रह वृत्ति एकमात्र श्रीदिष्णु में ही है । वामन पुराण में लिखित है-
" न तु नारायणादीनां नाम्नामन्यत्र संशयः ।
अन्यनाम्ना गतिर्विष्णुरेक एव प्रकीर्तितः ॥१०॥
नारायण प्रभृति नामों का अन्यत्र होना संशय नहीं है । ऐसा नहीं । अन्य किसी का नाम नारायण प्रभृति नहीं हैं । कारण, अन्य लिखित नामों का एकमात्र परमाश्रय रूप में श्रीविष्णु हो कीर्तित हैं। स्कन्द पुराण में
उल्लेख है -
“ऋते नारायणादीनि नामानि पुरुषोत्तमः ।
अदादन्यत्र भगवान् राजेवर्त्ते स्वकं पुरम् ॥८११ ॥श्रीभक्ति सन्दर्भः
[[५३६]]
तदेवं श्रीविष्णोः सर्वात्मकत्वेन प्रसिद्धत्वात् तस्मात् सकाशात् शिवस्य गुणनामादिकं भिन्न शक्तयन्तर - सिद्धमिति यो धियापि पश्येदित्यर्थः । द्वयोरभेदतात्पय्येण षष्ठ्यन्तत्वे सति श्रीविष्णोश्चेत्यपेक्ष्य ‘च’- शब्दः क्रियते, तत्प्राधान्यविवक्षयैव ‘श्री’ - शब्दश्च तत्रैव दत्तः । अतएव ‘शिवनामापराधः’ इति ‘शिव’ शब्देन मुख्यतया श्रीविष्णुरेव प्रतिपादित इत्यभिप्रेतम् । सहस्रनामादौ ज ‘स्थाणु’ ‘शिवादि’ - शब्दास्तथैव ।
अथ ‘श्रुतिशास्त्रनिन्दनम्, यथा पाषण्डमार्गेण दत्तात्रयर्षभदेवोपासकानां पाषण्डिनाम्, ‘तदार्थवादः’ स्तुतिमात्रमिदमिति मननम्, ‘कल्पनं’ तन्माहात्म्य गौणताकरणाय गत्यन्तर- चिन्तनम्, यथोक्तं कौर्मे व्यासगीतायाम्-
“देवद्रोहाद्गुरुद्रोहः कोटि-कोटि-गुणाधिकः । ज्ञानापवादो नास्तिक्यं तस्मात् कोटिगुणाधिकम् ॥” ८१३
जिस प्रकार राजा निज पुर को छोड़ कर अन्य समस्त राज्य शासन करने की क्षमता अपर को देते हैं, उस प्रकार भगवान् पुरुषोत्तम निज नारायण प्रभृति नाम व्यतीत अन्य समस्त नाम ब्रह्म प्रभृति देवता को प्रदान किये हैं । उस के मध्य में कतिपय नाम भगवान् विष्णु, ब्रह्मा एवं शिव को प्रदान किये हैं, किन्तु उन सब नामों के द्वारा विष्णु परिचित नहीं होते हैं।
ब्रह्म पुराण में लिखित है-
“चतुर्मुखः शतानन्दो ब्रह्मणः पद्मभूरितिः ।
उग्रो भस्मधरो नग्नः कपालीति शिवस्य च ।
विशेषनामानि ददौ स्वकीयान्यपि केशवः ॥ ८१२ ॥
चतुर्मुख, शतानन्द, एवं पद्म भू यह स्वीय नाम केशव ब्रह्मा को दान किये हैं । उग्र, भस्मधर, नग्न एवं कपाली यह स्वीय नाम केशव - शिव को प्रदान किये हैं
इस रीति से श्रीविष्णु ही सब के आत्मा रूप में प्रसिद्ध हैं । अतएव श्रीविष्णु से श्रीशिव के गुण नामादि भिन्न हैं, एवं स्वतन्त्र शक्ति के द्वारा सिद्ध हैं, इस प्रकार जिस की धारणा है । वह नामापराधी है । उक्त स्थल में अभेद तात्पर्य से यदि षष्ठी विभक्ति का प्रयोग होता तो “श्रीविष्णोः " शब्द के उत्तर में ‘च’ शब्द का प्रयोग अवश्य ही होता । विशेष कर श्रीविष्णु का प्राधान्य करने के निमित्त ही विष्णु शब्द के पूर्व में श्रीशब्द का प्रयोग हुआ है । किन्तु ‘शिव’ शब्द को पूर्व में ‘श्री’ शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है । अतएव “शिवनामापराधः " उल्लेख होने के कारण “शिव” शब्द से श्रीविष्णु का ही बोध होता है । कारण, श्रीहरिनामापराध प्रसङ्ग में शिव नामापराध अर्थात् महादेव वाची शिव शब्द का उल्लेख अप्रासङ्गिक है । सहस्र नामादि में स्थानु शिवादि शब्द श्रीविष्णु प्रति पादक रूप में उल्लेख हुये हैं ।
अनन्तर “श्रुति शास्त्र निन्दनम् " - अर्थात् वेद एवं तदनुगत शास्त्र निन्दा अपराध जनक है - इस का वर्णन करते हैं । कारण, वेद साक्षात् नारायण हैं । सुतरां वेद निन्दा से श्रीनारायण की निन्दा स्वतः ही होती है। श्रुतिशास्त्र निन्दाकारी का दृष्टान्त यह है- दत्तात्रेय एवं ऋषभ देव की उपासना में रत व्यक्ति गण - पाषण्डी नाम से अभिहित हैं । “तथार्थवादः " श्रीहरिनाम में अर्थ कल्पना । नाम माहात्म्य श्रवण करके भी यह प्रशंसा वाक्य मात्र है, इस प्रकार धारणा करना ‘अर्थवाद’ नामक पञ्चम अपराध है । " कल्पनं” शब्द का अर्थ है । नाम माहात्म्य को सङ्कुचित करने के निमित्त उपायान्तर का उद्भावन करना है । अर्थात् नाम माहात्म्य को गौण करना है । यह षष्ठ अपराध है । कूर्म पुराण की व्यास गीता में उक्त है–
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यत्तु श्री विष्णुपार्षदेभ्यः श्रुतनाममाहात्म्यस्याप्यजा मिलस्य (गा० ६ २ २) “सोऽहं व्यक्तं पतिष्यामि नरके भृशदारुणे” इत्येतद्वाक्यम्, तत् खलु स्वदौरात्म्यमात्रदृष्ट्या, नाम- माहात्म्यदृष्ट्या त्वग्रे वक्ष्यते, (भा० ६।२।३२-३३) - “तथापि मे दुर्भगस्य” इत्यादि-द्वयम्,
‘नाम्नो बलात्’ इति यद्यपि भवेन्नाम्नो बलेनापि कृतस्य पापस्य तेन नाम्ना क्षयः,
तथापि येन नाम्नो बलेन परमपुरुषार्थस्वरूपं सच्चिदानन्दसान्द्र साक्षाच्छ्री भगवच्चरणारविन्दं साधयितुं प्रवृत्तस्तेनैव परमघृणास्पदं पापविषयं साधयतीति परमदौरात्म्यम् । ततः कदर्थयत्येव तन्नाम चेति
चेति तत्पापकोटि- महत्तमस्यापराधस्यापातो वाढमेव । ततो यसैर्बहुभिर्य मनियमादिभिः कृतप्रायश्चित्तस्य क्रमेण प्राप्ताधिकारै रनेकैरपि दण्डधरैर्वा
“देवद्रोहाद्गुरुद्रोहः कोटि-कोटि-गुणाधिकः 1
ज्ञानापवादो नास्तिक्यं तस्मात् कोटिगुणाधिकम् ॥ " ८१३ ॥
देवद्रोह से गुरुद्रोह कोटि कोटि गुण अधिक है, ज्ञानापवाद अर्थात् शास्त्र का यथार्थ तात् पर्य्यं का अपलाप करना ही न स्तिकता है। यह कार्य्यं गुरुद्रोह से भी कोटि कोटि गुण अधिक है । यहाँ प्रश्न हो सकता है कि भा० ६ २२हमें उक्त है । श्रीविष्णु पाद से नाम माहात्म्य श्रवण करने के बाद अजामिल ने कहा, ‘सोऽहं व्यक्तं पतिष्यामि नूने भृशदारुणे” मैंने जो सब गुरु तर पापाचरण किया है, उस पाप के फल से ही मुझ को भीषण यन्त्रणामय नरक में जाना पड़ ेगा । इम से प्रतीति होती है कि नाम माहात्म्य श्रवण करने के बाद भी अजामिल का विश्वास नाम में नहीं हुआ था, इस से वह नामापराधी है । उत्तर में कहते हैं। यह नहीं हैं । कारण, यहाँपर–नाम माहात्म्य श्रवण करने के पश्चात् अजामिल को आत्मनिरीक्षण करने का अवसर उपस्थित हुआ था । उस से अजामिल निजकृत आचरण द्वारा जो दौरात्म्य का प्रकाश हुआ था तज्जन्य ही उसने उस प्रकार अनुताप किया था । किन्तु अजामिल नाम माहात्म्य में अविश्वस्त होकर अनुताप नहीं किया था । कारण भा० ६।२१२२ - ३३ में अजामिल ने स्वयं ही कहा है-
“अथापि में वुर्भगस्य विबुधोत्तम दर्शने
भवितव्यं मङ्गलेन येनात्मा में प्रसीदति ।
अन्यथा स्त्रियमाणस्य नाशुचे वृषलीपतेः
वैकुण्ठ नाम ग्रहणं जिह्वा वक्तुमिहार्हति ॥ "
यद्यपि मैं सब प्रकार से ही भाग्य हीन हूँ, तथापि उन देव श्रेष्ठ गण के दर्शन से मेरा मङ्गल अवश्य ही होगा । कारण, मैं चित्त प्रसन्नता को अनुभव कर रहा हूँ । अन्यथा कदर्थ्य शील शूद्राणी वेश्या सङ्गी स्त्रियमाण मेरी जिह्वा मृत्यु के समय वैकुण्ठ पति का नाम ग्रहण कभी कर सकती ?
“नाम्नो बलात्” नाम के बल से पाप में प्रवृत्ति - सप्तम अपर ध हैं । यद्यपि नाम बल से कृत पाप का क्षय उस नाम ग्रहण से ही होता है । तथापि जिस नाम के बल से परम पुरुषार्थ स्वरूप सच्चिदानन्द विग्रह साक्षात् श्रीभगवच्चरणारविन्द लाभ होता है । उस नाम के द्वारा परम घृणास्पद पाप क्षालन करने की इच्छा जिस की होती है, उस का दौरात्म्य की अवधि नहीं है । कारण, इस प्रकार आचरण से श्रीहरि नाम अप्रसन्न होते हैं । अतएव पाप विनाशन निबन्धन श्रीनाम की विनियोग करने से श्रीहरि नाम की कदर्थना ही होती है। अतएव अनेक यम नियमादि द्वारा प्रायश्चित्त करने पर भी अथवा अधिकार प्राप्त दण्ड धर गण कर्त्तृक दण्डित होने पर भी उस का जो शोधन होता ही नहीं, वह युक्ति युक्त है । किन्तु
श्रीभक्तिसन्दभः
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कृतदण्डस्य तस्य शुद्धयभावो युक्त एव - ‘नामापराधयुक्तानाम्’ इत्यादि. वक्ष्यमाणानुसारेण- पुनरपि सन्तत-नामकीर्त्तन मात्रस्य नत्र प्रायश्चित्तत्वात् ‘सर्वापराधकृदपि’ इत्याद्य क्तचनुसारेण नामापराधयुक्तस्य भगवद्भक्तिमतोऽप्यधःपः तलक्षणभ गनियमाञ्च । तत इन्द्रस्याश्वमेधाख्य- भगवद्यजन-बलेन वृत्रहत्या प्रवृत्तिस्तु लोकोपद्रव शान्ति तदीया सुरभावखण्डनेच्छू णामृषीणा- मङ्गीकृतत्वान्न दोष इति मन्तव्यम् ।
अथ ‘धर्मव्रत्तत्यागः’ इति धर्मादिभिः साम्यमननमपि प्रमादोऽपराधो भवतीत्यर्थः । अतएव च- “वेदाक्षराणि यावन्ति पठितानि द्विजातिभिः । तावन्ति हरिनामानि कीत्तितानि न संशयः ॥ ८१४ ॥ इत्यतिदेशेनापि नाम्न एव माहात्म्यमायाति । उक्तं हि - “मधुर-मधुरमे तन्मङ्गलं मङ्गलानां, सकल निगम वल्ली सत्फलम्’ इति, तथा श्रीविष्णुधर्मे -
“ऋग्वेदो हि यजुर्वेदः सामवेदोऽप्यथर्वणः । अधीतास्तेन येनोक्त हरिरित्यक्षरद्वयम् ॥ ८१५॥
स्कान्दे पार्व्वत्युक्तौ च -
उसका एक मात्र प्रायचित्त है, अर्थात् नामापराध ग्रस्त व्यक्ति के पक्ष में पुनर्वार अनवरत नाम सङ्कर्तन । इस का वर्ष अग्रिम ग्रन्थ में होगा । पुराण वचन में दृष्ट होता है—
“सर्वापराधकृदपि मुच्यते हरि संश्रयः ॥’ हरेरप्यपराधात् यः कुर्य्याद् द्विपद पांसनः ।
नामाश्रयः कदाचित् स्यात् तरत्येव स नामतः ॥”
इस प्रमाण के अनुसार भगवद् भक्तिमान् को भी नामापराध से अधः पात रूप भोग नियम को प्राप्त करना पड़ता है । अतएव अश्वमेध नामक भगवदर्चन के बल से देव राज इन्द्र की जो प्रवृत्ति वृत्रासुर को बध करने में हुई थी - उस के प्रति ऋषि वृन्द का आदेश हो कारण है, ऋषि वृन्द भी देवराज इन्द्र के हृदय में उस प्रकार प्रवृत्ति का उदय कराये थे, उस का कारण यह है-लोकों के प्रति जो उपद्रव हो रहा था, उस की शान्ति विधान करना, एवं वृत्र का असुरभावापनोदन करने की इच्छा। अतएव यहाँपर देवराज की ‘नामबल से’ पाप प्रवृत्ति नहीं हुई ।
म
अन्य शुभ कर्म के सहित नाम की समता को मानना अष्टम अपराध है । यहाँ पर मूल में जो प्रमाद शब्द का प्रयोग हुआ है, उस का अर्थ है-अपराध । अतएव अन्यत्र उल्लिखित है -
“वेदाक्षराणि यावन्ति पठितानि द्विजातिभिः ।
तावन्ति हरिनामानि कीर्त्तितानि न संशयः ॥ ८१४ ॥
ब्राह्मण वृन्द जितने वेदाक्षर का पाठ करते हैं उतने ही श्रीहरिनाम ग्रहण होता है । इस में कोई संशय नहीं है । इस प्रकार अतिदेश के द्वारा भी नाम माहात्म्य प्रकाशित होता है । स्कन्द पुराण में उक्त है-
“मधुर मधुरमेतन्मङ्गलं मङ्गलानां सकल निगमवल्ली सत् फलम् “1”
श्रीकृष्ण नाम मधुरों से भी मधुर है, एवं निखिल मङ्गलों का मङ्गल स्वरूप है । समस्त वेद रूप कल्पलता का नित्य एवं स्वप्रकाश फल स्वरूप है । उस प्रकार श्रीविष्णु धर्म में भी उक्त है-
“ऋग्वेदो हि यजुर्वेदः सामवेदोऽप्यथर्वणः । अधीतास्तेन देनोक्त हरिरित्यक्ष रद्वयम् ॥ ८१५॥ जिन्होंने ‘हरि’ यह अक्षरद्वय का उच्चारण किया है, उन के द्वारा साम, ऋक् यजुः एवं अथर्व यह
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• श्रीभक्तिसन्दर्भः “मा ऋचो मा यजुस्तात मा साम पठ किञ्चन । गोविन्देति हरेनम गेयं गायस्व नित्यशः ॥ ८१६॥ पाद्य श्रीरामाष्टोत्तरशतनामस्त्रोत्रे - ‘विष्णोरेकंव नामापि सर्व्ववेदाधिकं मतम्” इति ।
अथ ‘अश्रद्दधाने’ इत्यादिनोपदेष्टुरपराध दर्शयित्वोपदेश्य स्याह–‘अत्वेति, यतोऽहं– ममादिपरमोऽहन्ता ममताद्य के तात्पय्र्येण तस्मिन्ननादरवानित्यर्थः । “नामेकं यस्य वाचि स्मरणपथगतम्” इत्यादी देह द्रविणादि-निमित्तक- ‘पाषण्ड’ शब्देन च दशापराधा लक्ष्यन्ते, - पाषण्डमयत्वात्तेषाम् । तथा तद्विधानामेवापराधान्तरमुक्तं पाद्मवैशाख माहात्म्ये-
बेद चतुष्टय उच्चारित हुए हैं। स्कन्द पुराण में पार्वती की उक्ति में दृष्ट होता है-
मा ऋचो मा यजुस्तात मा साम पठ किञ्चन ।
गोविन्देति हरेर्नाम गेयं गायस्व नित्यशः ॥ ८१६॥
हे वत्स ! ऋक्, यजु, एवं साम वेद का पाठ तुम न करो, नित्य ‘गोविन्द’ यह नाम गान करो । पद्म पुराण के श्रीरामाष्टोत्तर शत नाम स्तोत्र में भी दृष्ट होता है- “विष्णोरेकैकनामापि सर्व्ववेदाधिकं मतम् । श्रीविष्णु के एक एक नाम ही सर्व वेदाध्ययन से अधिक है ।
अनन्तर ’ अश्रद्दधाने” श्रद्धा होन जन को जो उपदेश करता है, वह नामापराधी होता है । यह नवम नामापराध है । इस के पश्चात् जो जिस को उपदेश करता है, वह भी अपराधी होता है- इस कछ दृष्टान्त प्रस्तुत करते हैं ।
“श्रुत्वापि नाम माहात्म्यं यः प्रीति रहितोऽधमः ।
अह ममादि परमो नाम्नि सोऽप्यपराधकृत् ॥
जो अधम जन, श्रीनाम माहात्म्य श्रवण करके भी उल्लसित नहीं होता है, वह निश्चय ही अहन्ता ममता में आसक्त है । तज्जन्य श्रीहरि नाम के प्रति अनादर प्रकाश करता है। कारण उक्त है-
“नामेकं यस्य वाचि स्मरण पथगतं श्रोत्रमूलं गतं वा ।
शुद्धं वा शुद्धवर्ण व्यवहित रहितं त रवत्येव सत्यन् ॥’
एक श्रीकृष्ण नाम जिस की वाणी से उच्चारित होता है, अथवा स्मरण पदवी में उदित होता है, किवा श्रोत्र मूल में प्रविष्ट होता है, वह श्रीनाम शुद्ध हो, अथवा अशुद्ध हो हो, यदि व्यवधान रहित होता है, अर्थात् जिस प्रकार ‘मरा’ शब्द में म, रा के मध्य स्थल में व्यवधान नहीं है, अतः ‘मरा’ उच्चारण से राम नाम का उच्चारण होता है। किंवा व्यवहित-अथवा रहित भी होता है - जिस प्रकार ‘नारायण’ नामोच्चारण के समय ‘नारा’ उच्चारण के बाद- अपर वाक्योच्चारण करके अनन्तर ‘यण’ अंश का उच्चारण करता है । तथापि ‘नारायण’ नामोच्चारण का फल लाभ होता है । अथवा ‘रहित’ होने पर भी नामोच्चारण का फल होता है । जैसे ‘नारायण’ में ‘नारा’ उच्चारण के पश्चात् ‘यण’ का उच्चारण नहीं किया, तथापि नारायण नामोच्चारण का फल होता है । किन्तु यह ‘नाम’ यदि देह द्रविण, अर्थ, जन समूह, लोभ एवं पाषण्ड के मध्य में निक्षिप्त होता है, अर्थात् उक्त देह द्रविणादि सम्पादन हेतु प्रयुक्त होता है तो- श्रीनाम सरवर फल प्रदान नहीं करते हैं । अर्थात् श्रीनाम का मुख्य जो फल – श्रीकृष्णचरणों से ममत्व लाभ करना है-
वह श्रीनाम का मुख्य फल है, उसका प्रकाश आशु नहीं होता है । यहाँ पाषण्ड शब्द से दश नामापराध को ही जानना होगा । कारण उक्त दशविध नामापराध ही पाषण्ड मय अर्थात् पाप मय हैं । यहाँपर पाप
भोभक्तिसन्दर्भः
“अवमन्य प्रयान्ति ये भगवत्कीर्त्तनं नराः । ते यान्ति नरकं घोरं तेन पापेन कर्मणा ॥ ८१७॥ इत्येतेषाञ्चापराधानामनन्यप्रायश्चित्तत्वमेवोक्तं तत्र व-
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“नामापराधयुक्तानां नामान्येव हन्त्यघम् । अविश्रान्तियुक्तानि तान्येव व गण च ॥ ८१८ ॥
अन सत्प्रभृतिष्वपराधे तु तत्सन्तोषणार्थमेव सन्तत-नामकीर्त्तनादिकं समुचितम् - अम्बरीषचरितादौ तदेकक्षम्यत्वेनापराधानां दर्शनात् । उक्तञ्च नामकौमुद्याम्– महदपराधस्य भोग एव निवर्त्तकस्तदनुग्रहो वा” इति, तस्माद्गत्यन्तराभावात् साधूक्तम् (भा० २।१।११) एतन्निविद्यमानानाम्” इति ॥ श्रीशुकः ॥
२६६ एवं श्रीनारदेनोक्तं बृहन्नारदीये
महिम्नामपि यन्नाम्नः पारं गन्तुमनीश्वराः । मन्वोऽपि मुनीन्द्रादच कथं तं क्षुल्लधीर्भजे ॥ ८१ ॥
एवं पाषण्ड के मध्य में जो पार्थक्य हैं- उस का विचार यह है-शास्त्राज्ञा उल्लङ्घन–शास्त्र निषिद्ध आचरण करने का नाम पाप है । और श्रीभगवान् एवं उनके सम्बन्धान्वित वस्तु की अमर्थ्यादा करने का नाम अपराध है । शरीरी मानवों के पक्ष में अपर एक अपराध का विवरण पद्म पुराण के वैशाख माहत्म्य में है-
“अवमन्य प्रयान्ति ये भगवत्कीर्त्तनं नराः ।
ते यान्ति नरकं घोरं तेन पापेन कर्मणा ॥ " ८१७॥
जो लोक भगवत् कीर्त्तन को अवमानन करके चले याते हैं, इस प्रकार पापाचरण हेतु वे नरक में प्रवेश करते हैं । यह सब अपराधों का अपर कोई भी प्रायश्चित्त नहीं है। पद्म पुराण में लिखत है- “नामापराधयुक्तानां नामान्येव हरन्त्यघम् ।
अविश्रान्तिप्रयुक्तानि तान्येवार्थकराणि च ॥ " ६१८
जो नामापराधी है, उस के पक्ष में श्रीनाम ग्रहण ही एकमात्र महा प्रायश्चित्त है । कारण, अविश्रान्त प्रयुक्त श्री नाम ही समस्त अपराध विनष्ट करता है । सुतरां यह समस्त प्रयोजन साधक है। इस प्रसङ्ग में ज्ञातव्य यह है कि यदि महत् के निकट अपराध उपस्थित होता है तो, उन के सन्तोष हेतु सतत श्रीहरिनाम कीर्त्तन करना कर्तव्य है । कारण अम्बरीष महाराज के चरित्र में दृष्ट होता है, कि भगवान् वैकुष्ठ नाथके चरण में क्षमा प्रार्थना करने पर भी भगवान् दुर्वासा को महाराज अम्बरीषके निकट क्षमा प्रार्थना करने के निमित्त प्रेषण किये थे ।
भगवन्नाम कौमुदी में लिखित है “महदपराधस्य भोग एव निवर्तक स्तदनुग्रहो वा” महत् के निकट अपराध होने पर, तज्जन्य दुःख फल भोग से ही उसकी निवृत्ति होती है । अथवा उस महत् के अनुग्रह निवृत्ति होती है । एतदुभय व्यवस्था के मध्य में पर विधि हो बलबान है । अतएव पतित, दुर्गत, पापी, से अपराधी, विषयी, मुमुक्षु मुक्त, भक्त प्रभृति व्यक्ति के पक्ष में एक नामाश्रय व्यतीत अपर कोई उपाय नहीं है । भा० २।१।११ में उक्त है
“एतन्निविद्यमानानामिच्छता मकुतोभयम्”
योगिनां नृपनिर्णीतं हरेर्नामानुकीर्त्तनम् ॥
इस में श्रीहरिनाम कीर्तन को हो जो एकमात्र अभय साधन कहा गया है, वह अतीव सुन्दर है ।
।
।
प्रवक्ता श्रीशुक हैं- २६५॥
५.४४ ]
अथ श्रीरूप-कीर्तनम् (भा० १११३०१३) -
(२६६) “प्रत्याक्रण्डु नयनमबला.” इत्यादौ ।
[[6]]
यक्लीर्वाचां जनयति रति कीर्त्त्यमाना कवीनाम्” इति ।
यस्य श्रीकृष्णरूपस्य शोभासम्पत्तिः कीर्त्यमाना सती कवीनां तत्कीर्त्तकानां वाचा
-“काम तत्कीर्तनेष्वेव रागं जनयति । अथोक्तं श्रीचतुः सनेन (भा० ३।१५१४६ ) - " कामं भवः स्ववृजिनंनिरयेषु नः स्तात्” इत्यादी, “बाचस्तु नस्तुलसिवद्यति तेऽङ्घ्रिशोभाः इति ॥ राजा श्रीशुकम् ॥